गूगल के साथ आया चुनाव आयोग
३ जनवरी २०१४भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी है कि आजादी के बाद से लगातार संवैधानिक संस्थाओं की साख में गिरावट आई है और इसके लिए देश का राजनीतिक वर्ग ही मुख्य रूप से जिम्मेदार रहा है. लेकिन न्यायपालिका, विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग ऐसी संवैधानिक संस्थाएं हैं जिनकी साख आज भी पहले जैसी ही है. जहां तक निर्वाचन आयोग का सवाल है, शायद वह अकेली ऐसी संस्था है जिसकी साख में पिछले दो दशकों के दौरान वृद्धि ही हुई है. इसलिए निर्वाचन आयोग के हर एक फैसले पर पूरे देश की निगाह रहती है क्योंकि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव करवाने में इन फैसलों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. अनेक बार उसके फैसलों पर आशंकाएं प्रकट की गईं, मसलन इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल के फैसले पर, लेकिन सौभाग्य से वे सभी निर्मूल साबित हुईं. अब फिर से उसके एक ताजा फैसले पर लोगों का माथा ठनक रहा है और उन्हें कई किस्म की आशंकाएं सताने लगी हैं.
क्या करेगा गूगल
निर्वाचन आयोग ने अमेरिका की विराट इंटरनेट कंपनी गूगल के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके तहत आगामी लोकसभा से पहले गूगल उसे मतदाताओं के ऑनलाइन पंजीकरण तथा अन्य सुविधाओं से संबंधित सेवाएं मुहैया कराने में मदद करेगा. अगले छह महीनों के दौरान गूगल आयोग को अपने सर्च इंजिन समेत सभी संसाधन उपलब्ध कराएगा ताकि मतदाता इंटरनेट पर जाकर ऑनलाइन अपने पंजीकरण की ताजा स्थिति की जानकारी प्राप्त कर सकें और गूगल के नक्शों का इस्तेमाल करके अपने मतदान केंद्र को ढूंढ सकें.
पिछले महीने अंतिम दिनों में इस अनुबंध को अंतिम रूप दिया गया और माना जा रहा है कि इस महीने के मध्य तक यह प्रभावी हो जाएगा. गूगल निर्वाचन आयोग को ये सुविधाएं मुफ्त देगा क्योंकि इसके लिए वह अपने सामाजिक दायित्व कोष से खर्च करेगा. यह खर्च भी कोई बहुत अधिक नहीं होगा, मात्र तीस लाख रुपये. गूगल जैसी सभी कंपनियों को कानून सामाजिक कार्यों के लिए अपने मुनाफे का एक निश्चित प्रतिशत खर्च करना होता है, इसलिए वह 100 देशों में इसी तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराता है.
एनएसए का हस्तक्षेप
पिछले दिनों एडवर्ड स्नोडन द्वारा किए गए रहस्योद्घाटन के बाद अब यह तथ्य सार्वजनिक हो गया है कि अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी एनएसए अमेरिकी नागरिकों के साथ साथ दुनिया के अनेक देशों की सरकारों, उनके दूतावासों और नागरिकों के टेलीफोन, ईमेल और सामाजिक मीडिया पर गतिविधियों पर कड़ी निगाह रखे हुए है और सभी सूचनाएं एकत्र करती है. इन देशों की सूची में भारत का स्थान काफी ऊपर है. यह एक मित्र देश की सरकार और उसके नागरिकों के खिलाफ खुल्लमखुल्ला जासूसी करने का मामला है लेकिन अमेरिकी अदालतें इसमें कोई भी गैरकानूनी बात नहीं देखतीं. अमेरिकी प्रशासन भी इसे लेकर शर्मसार नहीं है और दुनिया भर के देशों के नागरिकों की निजता के हनन को गलत नहीं मानता.
अमेरिकी कंपनियां अमेरिकी कानून का पालन करने के लिए बाध्य हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी को सभी जानकारी मुहैया कराना उनका कानूनी दायित्व है. जब कोई मतदाता ऑनलाइन पंजीकरण कराएगा, तो उसे अपने बारे में सभी जरूरी जानकारी देनी होगी और वह जानकारी और संभवतः निर्वाचन आयोग का पूरा डेटाबेस भी इस प्रकार गूगल को उपलब्ध हो जाएगा. लोगों के मन में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि अमेरिका द्वारा दुनिया भर के देशों के नागरिकों पर आतंकवाद के खतरे का मुकाबला करने के नाम पर निगरानी रखने के बारे में जानने के बाद भी क्या गूगल को भारतीय मतदाताओं के बारे में सारी जानकारी देना उचित होगा?
कुछ अहम सवाल
एक दूसरा सवाल भी है और वह यह कि सिर्फ तीस लाख रुपये बचाने के लिए निर्वाचन आयोग को गूगल के साथ इस तरह का अनुबंध करना चाहिए था? भारत जैसे विशाल देश में चुनाव प्रबंध करने पर होने वाले विराट खर्च के सामने तीस लाख रुपये की रकम नगण्य है. इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि क्या भारत में इस प्रकार की सुविधा उपलब्ध नहीं है जो गूगल की मदद ली जाये. इस संदर्भ में यह भी गौरतलब है कि निर्वाचन आयोग गूगल के पास नहीं गया, गूगल ने स्वयं उसके सामने मदद का प्रस्ताव किया. क्या यह अयाचित मदद बिना किसी अन्य मंतव्य के है?
सूचना तकनीकी के क्षेत्र में काम करने वाले कुछ भारतीयों ने अखबारों में छपी खबरों पर टिप्पणी करते हुए निर्वाचन आयोग के सामने प्रस्ताव रखा है कि वे अपने सभी सर्च इंजिन उसके काम में लगाने को तैयार हैं और वह गूगल के बजाय उनसे मतदाता पंजीकरण आदि कामों में सहायता ले ताकि जानकारी अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के हाथों में न जाए. देखना होगा कि क्या आयोग उनके अनुरोध का संज्ञान लेता है या नहीं.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार
संपादनः मानसी गोपालकृष्णन