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गैंगरेप के बदले एनकाउंटर: क्या यही न्याय चाहते हैं हम?

अनु सिंह चौधरी
७ दिसम्बर २०१९

हैदराबाद में बलात्कार के आरोपियों के एनकाउंटर के बाद देश में एक नई बहस शुरू हो गई है. समाज में यह सवाल पूछा जा रहा है कि बलात्कार रोकने या फिर दोषियों को सजा देने का क्या यही एक तरीका रह गया है?

Indien l Proteste gegen Vergewaltigungen
तस्वीर: picture alliance/NurPhoto/S. Pal Chaudhury

शुक्रवार की सुबह साढ़े तीन बजे के आस-पास हैदराबाद में वेटनरी डॉक्टर के गैंगरेप के चारों आरोपियों का पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया. कहा ये गया कि क्राइम सीन पर वारदात के रिकंस्ट्रक्शन के दौरान चारों आरोपियों ने वहां से भागने की कोशिश की, जिसकी वजह से पुलिस को उन चारों पर गोलियां चलानी पड़ीं. ये चारों आरोपी कोर्ट के आदेश पर पुलिस रिमांड में थे.
इस एनकाउंटर ने महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा को लेकर भारत की राय को वाकई दो टुकड़ों में बांट दिया है. सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप पर एनकाउंटर के पक्ष और विरोध में कुछ इस कदर शोर मचा है कि हैदराबाद सामूहिक बलात्कार की बात भूलकर हम एक सनसनीखेज 'पुलिस एनकाउंटर' पर एक-दूसरे से लड़ने-भिड़ने में लगे हुए हैं.
एएनआई ने ट्विटर पर डॉ रेड्डी के पिता की एक बाइट जारी की जिसमें उनका कहना था,"मेरी बेटी को गुजरे दस दिन हो गए हैं. मैं (एनकाउंटर के लिए) पुलिस और सरकार के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूं. मेरी बेटी की आत्मा को अब जाकर शांति मिली होगी.”

दिसंबर 2012 में दिल्ली के कुख्यात 'निर्भया कांड' में जघन्य सामूहिक बलात्कार और शारीरिक हिंसा के बाद अपनी जान गंवा बैठी 23 साल की ज्योति सिंह की मां आशा देवी ने कहा,"कम से कम एक बेटी को न्याय मिला. मैं पुलिस को धन्यवाद देती हूं. मैं सात सालों से चिल्ला चिल्लाकर कह रही हूं कि दोषियों को सजा दो, चाहे इसके लिए कानून ही क्यों ना तोड़ना पड़े, और फिर देखो कि समाज कैसे बदलता है.”
निर्भया कांड के बाद पूरा देश आक्रोशित था. खूब नारेबाजियां हुईं, खूब मोमबत्तियां जलाई गईं. निर्भया भारत के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए महिलाओं के खिलाफ हिंसा, खासतौर पर रेप के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गई.
2012 में निर्भया कांड के बाद बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग में जरूर इजाफा आया. पुलिस की संवेदनशीलता, फास्टट्रैक सुनवाई, मौत की सजा और बड़े स्तर पर पुरुषप्रधान समाज में बदलाव की जरूरत पर जमकर बहस भी हुई और बलात्कार कानून में बदलाव के कुछ ऐतिहासिक कदम भी उठाए गए जिसमें पॉक्सो एक्ट शामिल था.
आशा देवी लेकिन अभी भी अपराधियों के फांसी पर चढ़ने का इंतजार कर रही हैं. निर्भया मामले में अगली सुनवाई 13 दिसंबर को होगी, जब दिल्ली की एक अदालत के निर्देश का पालन करते हुए तिहाड़ जेल प्रशासन चारों दोषियों को अदालत के सामने पेश करके उनकी दया याचिका पर लिए गए फैसले की जानकारी देगा. निर्भया के माता-पिता ने अदालत से तिहाड़ प्रशासन को ये निर्देश देने का अनुरोध किया था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर चारों दोषियों को जल्द से जल्द फांसी की सजा दी जाए.
जब निर्भया मामले में फास्टट्रैक सुनवाई करके आखिरकार सजा-ए-मौत का फैसला आ चुका है तो फिर आशा देवी को ऐसा क्यों लगता है कि पुलिस एनकाउंटर की वजह से ही एक और बेटी को न्याय मिल पाया है?
इस बात को समझने के लिए भारत में महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा से जुड़े कुछ आंकड़ों को समझना बेहद जरूरी है. भारत सरकार की एक एजेंसी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) हर तरह के अपराधों से जुड़े आंकड़ों और सूचनाओं जमा करती है. एक सच ये भी है कि अपराध के बहुत सारे मामले, खासतौर पर महिलाओं के खिलाफ होनेवाली यौन हिंसा के मामलोंकी बहुत कम रिपोर्टिंग होती है, और कई बार तो मामले दर्ज भी नहीं कराए जाते. दर्ज कराए जानेवाले अपराध के मामलों और वास्तविक अपराध दर के बीच जो ये बड़ा फासला है उसके पीछे हमारा अपना जीर्ण-शीर्ण न्यायिक ढांचा बहुत हद तक जिम्मेदार है.
अगर कन्विक्शन रेट यानी दोषी साबित हो जाने की दर पर नजर डालें तो एक चौंका देनेवाला आंकड़ा सामने आता है. भारत में रेप के मामले में 1973 में कन्विक्शन की दर 44.3 प्रतिशत थी. 1983 में यह दर घटकर 37.7 प्रतिशत, 2009 में 26.9प्रतिशत, 2010 में 26.6 प्रतिशत, 2011में 26.4 प्रतिशत, 2012 में 24.2 प्रतिशत और 2013 में यह दर 27.1 फीसदी थी. यानी मामलों के दर्ज होने में भले बढ़ोत्तरी हुई हो, लेकिन पिछले चालीस सालों में रेप के मामले में सजा होने की दर में लगातार गिरावट ही आई है.
एक ताजा सरकारी आंकड़े के मुताबिक साल 2017 में बलात्कार के 32,500 मामले दर्ज हुए, यानी एक दिन में नब्बे से ज्यादा बलात्कार. भारत की अदालतों में उस साल सिर्फ 18,300 मामलों की सुनवाई कर उन पर कोई कार्रवाई हुई और फैसला सुनाया गया. महिलाओं के खिलाफ हिंसा के तकरीबन एक लाख बीस हजार मामले साल 2017 के आखिर में भारतीय अदालतों में लटके हुए थे.

तस्वीर: Reuters/S. Siddiqui
तस्वीर: Reuters/R. De Chowdhuri

पिछले दो सालों में तो इसमें हजारों हजार मामले और जुड़े ही होंगे. उस पर से पीड़िता को जिस मानसिक, शारीरिक और सामाजिक अवसाद और कटु अनुभवों से गुजरना पड़ता है, उसे तो किसी संख्या या आंकड़ों में डाला भी नहीं जा सकता. और उन मामलों का तो खैर कोई हिसाब-किताब ही नहीं जो घर की चहारदीवारी के अंदर होते हैं. हमारे 'सभ्य समाज' की एक सच्चाई यह भी है कि यौन हिंसा के रिपोर्ट होनेवाले 93.1 प्रतिशत मामलों में आरोपी अपने ही रिश्तेदार, पड़ोसी, प्रेमी या करीबी परिचित होते हैं. इन आंकड़ों में वैवाहिक बलात्कार यानी मैरीटल रेप के मामले शामिल नहीं हैं.
यौन हिंसा के खिलाफ सख्त कानूनों, पुलिस की त्वरित प्रतिक्रिया, फास्टट्रैक कानूनी प्रक्रिया और सुनवाइयों के बाद जल्द से जल्द फैसला दिए जाने की भी बात खूब उठती है. हालांकि भारतीय कानूनी प्रक्रिया की सच्चाई क्या है इसका पता अदालत में लाखों लाख की तादाद में रुके पड़े मामले से चलता है. 
शायद इसलिए देश का एक बड़ा तबका इस एनकाउंटर को 'जस्टिस डेलिवर्ड' मान रहा है. इसलिए जिस सांसद जया बच्चन ने अभी दो दिन पहले ही संसद में बलात्कार के आरोपियों की सरेआम 'लिंचिंग' की वकालत की थी, उन्होंने भी कह दिया कि 'देर आए लेकिन दुरुस्त आए.' इसलिए मायावती और उमा भारती जैसी नेत्रियों ने भी हैदराबाद पुलिस की खुलकर तारीफ करते हुए दिल्ली और उत्तर प्रदेश पुलिस को 'सबक' लेने का सुझाव भी दे डाला. गीता फोगाट, पीवी सिंधु और सायना नेहवाल जैसी रोल मॉडल सेलिब्रिटी खिलाड़ियों ने ट्विटर पर हैदराबाद पुलिस का शुक्रिया भी अदा किया.
इस बहस का लेकिन एक दूसरा पहलू भी है, जो उतना ही वैध है. क्या वाकई न्याय इसी को कहते हैं? कानून कहता है कि जब तक दोष साबित ना हो जाए, आप निर्दोष हैं. क्या इस एनकाउंटर ने इस लिहाज से कानून की धज्जियां नहीं उड़ा दीं? महिला अधिकारों की पुरजोर वकालत करनेवाली सीनियर वकील वृंदा ग्रोवर ने फेसबुक पर लिखा, "फेमिनिस्ट, महिला अधिकार समूह, महिला अधिकार एनजीओ और महिला अधिकार के लिए संघर्षरत एक्टिविस्ट और फेमिनिस्ट वकील जो महिला पीड़ितों और घरेलू और यौन हिंसा समेत हर तरह की हिंसा झेल चुकी महिलाओं के साथ खड़ी हैं, सबने एक स्वर में हैदराबाद पुलिस के चारों आरोपियों के एनकाउंटर करने का पुरजोर विरोध किया है. इसे महिलाओं के हक में मिलनेवाले न्याय के रूप में बेचना बंद कीजिए.”
ज्वाला गुट्टा ने ट्विटर पर सवाल पूछा,"क्या इससे भविष्य में रेप रुक जाएंगे? एक और अहम सवाल क्या हर रेपिस्ट के साथ ऐसा ही बर्ताव किया जाएगा?" यह सवाल इसलिए भी बहुत अहम है क्योंकि हम वही देश और वही लॉ एंड ऑर्डर हैं जहां उन्नाव में
अदालत की ओर न्याय की उम्मीद में जाती बलात्कार पीड़िता को जिंदा जला दिया जाताहै, जहां खुलेआम नंगी आंखों के सामने नाचते सबूतों के बावजूद राम रहीम, नित्यानंद, आसाराम और कुलदीप सेंगर जैसे रसूखदार अपराधियों के दरवाजे पर सत्तासीन नेता हुकुम बजाते हैं, उन्हें सालगिरह की बधाइयां देते हैं, उनके लिए जनता मरने मारने पर उतारू हो जाती है. अगर एनकाउंटर ही न्याय का नया चेहरा है तो फिर ये सभी अपराधियों के लिए एक जैसा क्यों नहीं? अगर हैदराबाद एनकाउंटर का आदेश देनेवाला अफसर हमारा नया नायक और रक्षक है तो क्या रेप के सारे मामलों की अर्जियां उन्हें ही सौंप दी जाएं?
कुछ भी हो, इस पूरे घटनाक्रम ने सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं का ही किया है. फिर से ये बात जाहिर हो गई है कि महिलाओं के लिए किसी भी तरह की हिंसा, खासतौर पर यौन हिंसा, के खिलाफ न्याय की लड़ाई लंबी ही नहीं बल्कि नामुमकिन होती जा रही है.  जिस बराबरी और सुरक्षा के अधिकार की हम मांग कर रही हैं, वह दरअसल फिर से पुरुषप्रधान समाज के गलत-सही फैसलों का शिकार हो गया है.

तस्वीर: Reuters/A. Fadnavis
तस्वीर: AFP/STR

इस पूरे घटनाक्रम से क्या हम ये मतलब निकालें कि देश की न्यायिक व्यवस्था पर हमें तो क्या, पुलिस समेत हमारी अपनी सुरक्षा एजेंसियों को भरोसा नहीं है? क्या हम ये मतलब निकाल लें कि ये देश हिंसा के बदले हिंसा को ही बराबरी का इकलौता जरिया मानने लगा है? हमें ना तब जवाब मिला था, और ना इन चार आरोपियों के एनकाउंटर के बाद मिला है.

एक तरफ हम पाषाण युग में लौट जाने का जश्न मनाते हुए एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों पर फूलों की बरसात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उन्नाव की उस लड़की ने न्याय की उम्मीद में अपने बलात्कारियों का नाम लेते-लेते शनिवार सुबह अस्पताल में दम तोड़ दिया.

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