भारत उन चुनिंदा देशों में है जो सैकड़ों साल पुराने गैरजरूरी कानूनों को न सिर्फ ढो रहा है बल्कि उनका नुकसान को भी भोग रहा है. सरकार ने समय से सबक लेते हुए ऐसे लगभग 1000 कानूनों को खत्म करने की प्रक्रिया तेज कर दी है.
विज्ञापन
यह सिलसिला मोदी सरकार के चुनावी वादे से जुड़ा है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव प्रचार के दौरान कानूनों के मकड़जाल से जनता को मुक्ति दिलाने की बात प्रमुखता से कहते रहे हैं. इसे पूरा करने की शुरुआत पिछले साल मई में हो गई थी. उस समय सरकार ने संसद से दो विधेयक पारित करवा कर उन लगभग 1,000 पुराने पड चुके गैरजरूरी कानूनों से निजात पा ली थी. इनमें 758 ऐसे विनियोग एवं वित्त विधेयक शामिल थे जिन्हें महज चंद महीनों की जरूरत के लिए संसद से पारित करवाने की सरकार की औपचारिकता मात्र पूरी करने की जरूरत होती है. आजादी के बाद से ही ये विधेयक सरकारी गजट का हिस्सा बने हुए थे. पिछली सरकारों ने इन्हें खत्म करने की जहमत नहीं उठाई. खैर, मौजूदा सरकार ने इन्हें खत्म करने के लिए संसद के दोनों सदनों में विधेयक पेश किया जिसे दोनों सदनों ने ध्वनिमत से पारित कर दिया.
इनके अलावा 295 उन कानूनों को भी खत्म करने में कामयाबी हासिल कर ली जिन्हें पुराने कानूनों में मामूली संशोधन करने के लिए पारित किया गया था. हालांकि इन दोनों श्रेणियों के 1000 पुराने कानूनों को खत्म करने से अनुपयोगी और सिरदर्द साबित हो रहे ब्रिटिशकालीन काले कानूनों से निजात मिलने की बात कहना बेमानी होगी. हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि कानूनी महकमे के कंधों से गैरजरूरी कानूनों का बोझ अवश्य कम हुआ है.
राहतमिलेगीअब
दरअसल इस कवायद को शुरू करने के पहले सरकार ने लगभग 1,741 पुराने कानूनों की पहचान की थी जिन्हें खत्म किया जाना है. इनमें 758 कानून तो वित्त और विनियोग विधेयक थे. जबकि 295 कानून संशोधनों से संबंधित हैं जिन्हें खत्म करने की संसद ने मुहर लगा दी है. मजेदार बात यह है कि इन 295 कानूनों में महज 20 कानून ही ऐसे हैं जो ब्रिटिश काल से ही लागू हैं. इसलिए यह कहना सरासर गलत होगा कि सरकार की अब तक की कवायद से गैरजरूरी 1,000 कानून खत्म होने के बाद ब्रिटिशकालीन काले कानूनों से निजात मिल जाएगा. हालांकि इस कड़ी में सरकार ने अंग्रेजों के समय के अब तक लागू लगभग 22 कानूनों को खत्म करने के लिए चिन्हित किया है. इनमें सन 1872 का ड्रामेटिक परफॉर्मेंस एक्ट और 1880 के हावड़ा ऑफिस एक्ट और गंगा टैक्स एक्ट के अलावा 1867 के वेस्टलैंड क्लेम एक्ट और सराय एक्ट जैसे कानून शामिल हैं जो अब तक भारत में लागू हैं. हकीकत यह है कि इन कानूनों की जगह नए कानून लागू किए जा चुके हैं लेकिन अब तक पुराने काननों को खत्म नहीं किया गया था इसलिए ऐसे तमाम एक्ट अब तक कानून की किताब का हिस्सा बने हुए थे.
असलचुनौतीशेष
सरकार के लिए असल चुनौती अपराध संहित (आईपीसी) और अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के गैरजरूरी प्रावधानों के अलावा मोटर वाहन कानून को खत्म करने की चुनौती बरकरार है. दरअसल ये कानून भी ब्रिटिशकालीन होने के कारण अब इनके दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं. मसलन मोटर वाहन एक्ट की मूल भावना ही वाहन मालिक का संरक्षण करते हुए आम आदमी को वाहन चलाने से रोकने की है. दरअसल यह कानून जिस दौर में पारित किया गया था उस समय सिर्फ अंग्रेज और रजवाड़ों के लोग ही वाहन चलाते थे. ऐसे में इनके वाहनों होने वाले हादसों के शिकार आम लोग होते थे. पीड़ितों को हर्जाना देने से वाहन मालिक को बचाने के मकसद से इस कानून में लापरवाही से वाहन चलाने को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया जिससे चालक को तुरंत थाने से ही जमानत मिल जाती है. यही वजह है कि आज भी हिट एंड रन मामलों में रईसजादे छूट जाते हैं और पीड़ित पक्षकार न्याय के लिए दर की ठोकरें खाने को अभिशप्त हैं. विधि आयोग समय की मांग को देखते हुए इस तरह के कानूनों को खत्म कर नए कानून बनाने की सिफारशि कर चुका है.
जिस तरह की इच्छाशक्ति सरकार ने अंग्रेजों द्वारा बनाए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने दिखाई है उसी तरह से सरकार को दबाव में ही सही लेकिन अब न्यायिक सुधार के वास्ते जर्जर पड़ चुके ऐसे कानूनों से जनता को मुक्ति दिलानी ही होगी. कम से कम देश के प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर के आंसुओं की खातिर ही सही लेकिन अब मोदी सरकार को इस दिशा में कारगर पहल करनी ही पड़ेगी.
भारत के प्रधानमंत्री
एक नजर आजादी से अब तक भारत के प्रधानमंत्रियों और उनके कार्यकाल पर.
तस्वीर: Reuters
जवाहरलाल नेहरू
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्ष नेता थे. उनके कार्यकाल में समाजवादी नीतियों पर जोर रहा. विज्ञान, शिक्षा और समाज सुधारों की शुरुआत हुई. हालांकि नेहरू के कार्यकाल में देश ने अकाल भी देखे. आलोचक कहते हैं कि नेहरू ने देश से ज्यादा विदेशों पर ध्यान दिया और प्राथमिक शिक्षा पर भी कम ध्यान दिया.
तस्वीर: Keystone/Getty Images
लाल बहादुर शास्त्री
दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की छवि बेहद मेहनती और जमीन से जुड़े नेता की रही. चुपचाप ईमानदारी से अपना काम करने वाले शास्त्री देश को अकाल से निकालने से सफल रहे. कृषि में क्रांति करने वाले इस नेता ने ही "जय जवान, जय किसान" का नारा दिया.
तस्वीर: Getty Images
इंदिरा गांधी
लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. कांग्रेस पार्टी टूट गई, लेकिन बांग्लादेश युद्ध के दौरान उनकी छवि लौह महिला की बनी. आपातकाल लगाने और पार्टी लोकतंत्र को खत्म करने के लिए इंदिरा गांधी की आलोचना होती है. उन्हीं के कार्यकाल में खालिस्तान आंदोलन भी शुरू हुआ.
तस्वीर: picture-alliance/KPA
मोरारजी देसाई
इंदिरा गांधी की सरकार में वित्त मंत्री रहे मोरारजी देसाई आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनावों में इंदिरा की हार के बाद पीएम बने. लेकिन उनकी जनता पार्टी सरकार दो ही साल चली. चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने और फिर इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
राजीव गांधी
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. 40 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने वाले राजीव ने संचार, शिक्षा और लाइसेंस राज में बड़े सुधार किये. शाहबानो केस, बोफोर्स घोटाले, भोपाल गैस कांड और काले धन के मामले उन्हीं के कार्यकाल में सामने आए.
तस्वीर: AP
विश्वनाथ प्रताप सिंह
1989 के चुनावों में कांग्रेस की हार से जनता पार्टी की गठबंधन सरकार बनी. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. उन्हीं के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुई. 1990 में वीपी सिंह की सरकार गिरी और चंद्र शेखर की अगुवाई में सरकार बनी. ये भी 1991 में गिर गई.
तस्वीर: AFP/Getty Images
पीवी नरसिंह राव
राजीव गांधी की हत्या के बाद जून 1991 में कांग्रेस के नरसिंह राव देश के पहले दक्षिण भारतीय प्रधानमंत्री बने. वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की मदद से उन्होंने उदारीकरण के रास्ते खोले. उन्हीं के कार्यकाल में हिंदू कट्टरपंथियों ने बाबरी मस्जिद तोड़ी.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
एचडी देवगौड़ा
1996 के चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद बीजेपी को सबसे ज्यादा सीटें मिली. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली अल्पमत सरकार सिर्फ 13 दिन चल सकी. इसके बाद जनता दल यूनाइटेड ने एचडी देवगौड़ा (बाएं से तीसरे) के नेतृत्व में सरकार बनाई. भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझती ये सरकार साल भर में धराशायी हो गई.
तस्वीर: Sajjad HussainAFP/Getty Images
आईके गुजराल
पढ़े लिखे, सौम्य और विनम्र छवि के इंद्र कुमार गुजराल 1997 में प्रधानमंत्री बने. उनकी गठबंधन सरकार बहुत कुछ नहीं कर पाई, ज्यादातर वक्त सरकार बचाने की जोड़ तोड़ ही होती रही.
तस्वीर: AFP/Getty Images
अटल बिहारी वाजपेयी
1998 में हुए चुनावों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी की गठबंधन सरकार बनी. पर सरकार 13 महीने ही चली. फिर चुनाव हुए और वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी. इस दौरान आर्थिक विकास तेज हुआ. पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर हुए. लेकिन कारगिल युद्ध ने संबंधों में दरार डाल दी. वाजपेयी के कार्यकाल में कंधार विमान अपहरण कांड भी हुआ.
तस्वीर: AP
मनमोहन सिंह
एनडीए का "इंडिया शाइनिंग" नारा नाकाम रहा. 2004 में केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए गठबंधन सरकार बनी. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जाना आश्चर्यजनक था. सूचना अधिकार, शिक्षा अधिकार, मनरेगा जैसे बड़े फैसले सरकार ने लिए. लेकिन दूसरी पारी में सरकार भ्रष्टाचार के लिए बदनाम हुई. देश ने कई बड़े घोटाले देखे.
तस्वीर: UNI
नरेंद्र मोदी
मई 2014 को जबरदस्त बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी भारत के 14वें प्रधानमंत्री बने. तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके मोदी विकास, सुशासन और सबको साथ लेने का नारा देकर बहुमत में आए. विरोधी उन पर गुजरात दंगों में ठोस कदम न उठाने का आरोप लगाते हैं.