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समाज

उस रात की छटपटाहट आज भी जिंदा है

१२ मई २०१९

भोपाल गैस कांड जिस फैक्ट्री से हुआ उसके खंडहर को अगर एक म्यूजियम बनाया जाता तो आने वाली पीढ़ियां याद रखती कि औद्योगिक लापरवाही कितनी बड़ी त्रासदी बन सकती है. लेकिन हादसों को भुला देना तो भारतीय प्रशासन की खूबी है.

Indien Bhopal Gas Katastrophe Museum
तस्वीर: Raghu Rai/Remember Bhopal Musem

कुहासे से भरी रात में हजारों लोग छटपटाने लगे. अंधेरे में एक दूसरे से टकराते हुए दिशाहीन भागने लगे. उनके पैरों से लाशें और कराहते पीड़ित टकरा रहे थे, लेकिन रुकने का मतलब था मौत. दम घोंटती मौत. भागने वाले जब कई किलोमीटर दूर पहुंचे तो उनकी आंखों में जलन थी. कइयों को खून भरी उल्टियां हो रही थीं.

गले का ऐसा हाल था मानो किसी ने खौलती धातु हलक में उतार दी हो. 2 और 3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से लीक हुई मिथाइल आइसोसाइनैट गैस ने ऐसा खौफनाक मंजर पैदा किया. आधी रात को एक बजे के आस पास जहां जहां गैस फैली, वहां जो लोग सोए थे, वे फिर कभी न उठ सके.

फैक्ट्री के एक टैंक से 30 से 40 टन मिथाइल आइसोसाइनैट लीक हो चुकी थीं. गैस हवा के साथ शहर के दक्षिणपूर्वी हिस्से की तरफ फैली. जहरीली गैस की भनक लगते ही मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजधानी भोपाल से भाग गए. लोग मर रहे थे और अर्जुन सिंह भोपाल से दूर अपने निजी फार्म हाउस कैरवा डैम में खुद को भाग्यशाली मान रहे थे.

भगोड़ों में भोपाल के ज्यादार सीनियर डॉक्टर भी थे. जान बचाने के लिए वे भी शहर से दूर चले गए. अस्पतालों की सारी जिम्मेदारी जूनियर डॉक्टरों पर थी. उन्हें ऐसी स्थिति से निपटने का बहुत कम अनुभव था. त्राहिमाम की रात के बाद जब अगली सुबह हुई तो शहर के दक्षिणपूर्वी हिस्से में शवों का अंबार लग चुका था. चंद घंटों के भीतर 2000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे. हजारों बुरी तरह बीमार थे. भोर होते होते जूनियर डॉक्टर आंखों में आई ड्रॉप्स डालने में व्यस्त थे. पीड़ित खुद खांसते और हांफते दूसरों के लिए ऑक्सीजन के सिलेंडर कंधे पर ढो रहे थे. 

यूनियन कार्बाइड की इस फैक्ट्री में हुआ हादसातस्वीर: DW/I. Bhatia

रात में अपनी मां के साथ स्कूटर से काफी दूर भागने वाले अब्दुल जब्बार सुबह अपनी बहन और उसके परिवार की तिमारदारी में अस्पताल पहुंचे. उस वाकये को याद करते हुए अब्दुल कहते हैं, "उसे देख कर हमारे सिर पर इतना जूनुन सवार हो गया कि अगर भोपाल का कोई नेता उस वक्त मिलता तो शायद मैं उसका गला घोंट देता. कैसे हो गया ये सब, बस दिमाग में यही सोच थी." इस बीच अब्दुल के फेंफड़ों में भी खून भरने लगा. वह भी बीमारों की श्रेणी में पहुंच गए.

उस वक्त के सरकारी आंकड़ों ने मृतकों की संख्या 3000 बताई, जिसे बाद में 3787 बताया गया. गंभीर रूप से बीमार लोगों की संख्या तब 1,00,200 बताई गई. वैसे गैस लीकेज के चलते 2,000 से ज्यादा मवेशी और पशु भी मारे गए लेकिन उनका जिक्र करने की फुर्सत उस वक्त किसी के पास नहीं थी.

इसी बीच भोपाल पहुंचे अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन सीईओ और चेयरमैन वॉरेन एंडरसन को गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन कुछ ही घंटों बाद उन्हें जमानत दे दी गई और फौरन ही उन्हें सुरक्षित तरीके से भारत छोड़ने की सुविधा भी मुहैया कराई गई. अर्जुन सिंह इसके लिए केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं.

इसके बाद लगातार एंडरसन न्याय से दूर भागता रहा और पीड़ित उसके करीब पहुंचने की कोशिश में दौड़ते रहे. पीड़ितों की यह दौड़ आज भी जारी है. अब उनकी संख्या पहले के मुकाबले कम है क्योंकि दशकों चलते कानूनी मामलों के् दौरान हजारों पीड़ित मारे जा चुके हैं.

त्रासदी के तीन साल बाद 1987 में अब्दुल जब्बार ने अन्य पीड़ितों के साथ मिल कर भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन बनाया. संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार के मुताबिक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 1997 और 2006 में वे सुप्रीम कोर्ट में यह साबित कर पाए कि गैस त्रासदी में 15,274 लोगों की मौत हुई और 5,74,000 लोग बीमार हुए. अब्बास कहते हैं कि इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने बीमार पीड़ितों को 50,000 रुपये का मुआवजा देने का एलान किया. 

आज भी ऐसे धरने जारी हैंतस्वीर: DW/I. Bhatia

अब्बास के मुताबिक मुआवजा लेना भी आसान नहीं रहा, "लोगों को मोटी मोटी फाइलें बनानी पड़ीं, उन्हें राशन कार्ड लगाने पड़े, यह साबित करना पड़ा कि उस रात वह भोपाल में ही थे." दस्तावेज जुटाने के संघर्ष के बाद भी जो मुआवजा मिला वह 34 साल से हर दिन ली जा रही दवाओं के लिए नाकाफी साबित हो रहा है.

अब्दुल जब्बार के मुताबिक आज भी पीड़ित मारे जा रहे हैं. लेकिन जब कभी किसी गैस पीड़ित की मौत होती है, तो मेडिकल रिपोर्ट में गैस कांड की हिस्ट्री का जिक्र नहीं किया जाता, बल्कि सांस संबंधी या दूसरी बीमारियों का जिक्र किया जाता है. अब्दुल का आरोप है कि सरकारें, पीड़ितों के साथ नहीं बल्कि उनके खिलाफ खड़ी दिखती हैं.

मुआवजे से पीड़ितों की रोजमर्रा की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती हैं. कई पीड़ित स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के चलते कोई दूसरा काम नहीं कर पाते हैं. उन्हें भोपाल छोड़ने में डर लगता है. वे सोचते हैं कि बाहर तबियत बिगड़ गई तो क्या होगा. भोपाल में कम से कम मुफ्त इलाज मिलता है और डॉक्टर भी केस स्टडी जानते हैं.

हकीकत यहीं तक है. इसके आगे न्याय की उम्मीदें हैं और वे न्यायपालिका पर ही टिकी हैं. सरकारों से गैस पीड़ितों को बहुत कम आशाएं हैं. पीड़ित दिल्ली के जंतर मंतर में भी लंबे धरने दे चुके हैं और भोपाल के जहांगीराबाद में तो आज भी ऐसा धरना जारी है. सिर्फ चुनावों के वक्त बीजेपी और कांग्रेस के नेता गैस कांड का मुद्दा उठाते हैं और इसके जरिए वोट पाने की कोशिश करते हैं. पांच लाख से ज्यादा पीड़ितों के वोट.

इसके अलावा भोपाल गैस कांड का न तो भारत की स्कूली किताबों में कहीं जिक्र है, न ही शहर के मुख्य स्थान पर याद दिलाने वाला कोई स्मारक. अब दुनिया में तो न अर्जुन सिंह हैं, न राजीव गांधी और न ही एंडरसन. अब बस होमगार्डों की चौकीदारी में घिरा फैक्ट्री का खंडहर है और उसके बाहर मरते खपते पीड़ित.

ओंकार सिंह जनौटी (भोपाल)

तीन दशक बाद भी प्रभावित परिवार इंसाफ की राह देख रहे हैं... 

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