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गोवा में खनन और पर्यावरण की विडंबना

शिवप्रसाद जोशी
२० नवम्बर २०१८

ऐसे मामले कम ही सामने आते हैं जब राज्य सरकार के आग्रह पर केंद्र का एक मंत्रालय, अपनी सरकार को ही आगाह कर रहा है. आग्रह गोवा की सरकार का है खनन अधिनियम में संशोधन का और चेतावनी केंद्र का कानून मंत्रालय दे रहा है.

Uran Mine in Jadugoda Indien
तस्वीर: Ashish Birulee

गोवा में विवादास्पद खनन का मामला एक बार फिर सुर्खियों में तब आ गया जब पिछले दिनों पता चला कि गोवा सरकार ने कथित तौर पर खनन कानून में संशोधन का केंद्र से आग्रह किया है और कानून मंत्रालय ने सरकार से कहा है कि वो ऐसा न करे. कानून मंत्रालय का साफ कहना है कि ये विधायी दायरे से बाहर का मामला हो गया है और अगर कंपनियों और गोवा सरकार को लगता है कि काम शुरू हो तो वे सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं. उधर, गोवा में खनन कार्य से जुड़े लोगों का मोर्चा, दिसंबर में दिल्ली पहुंचकर विरोध प्रदर्शन की तैयारी में है.

खनन अधिनियम में संशोधन की मांग और इसे लेकर कानून मंत्रालय की आपत्ति की खबर इंडियन एक्सप्रेस में आने के बाद, गोवा के राजनीतिक हल्कों में गहमागहमी बढ़ी. बिजनेस स्टैंडर्ड ने गोवा विधानसभा में डिप्टी स्पीकर और बीजेपी नेता माइकल लोबो के हवाले से बताया कि अगले कुछ दिनों में मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर प्रेस में कोई बयान दे सकते हैं क्योंकि वही खनन मंत्री भी हैं. लेकिन लंबे समय से बीमार और मीडिया से दूर पर्रिकर ऐसा कर पाएंगे, कहना कठिन है.

गोवा के मुख्यमंत्री ने फिलहाल केंद्र से एमएमडीआर एक्ट (माइन्स ऐंड मिनरल्स) में संशोधन की अपील की है जिससे खदान की लीज की अवधि 2037 तक खिंच जाए और खनन कंपनियां अपना काम बहाल कर सकें. सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल राज्य सरकार द्वारा 88 खनन कंपनियों को जारी नई लीज को निरस्त कर दिया था. गोवा के पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर खदान कार्य का गहरा प्रभाव पडा है और कई खेतिहर इलाके और हरियाली नष्ट हुई है. पश्चिमी घाटों का एक प्रमुख हिस्सा भी गोवा में जारी निर्माण कार्यों से प्रभावित बताया जाता है. खनन गोवा के राजस्व का प्रमुख स्रोत रहा है लेकिन इसके साथ पर्यावरण की बरबादी की विडंबना भी जुडी है जिसे लेकर पर्यावरणविदों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता भी लंबे समय से मुखर रहे हैं. खनन को लेकर आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है.

अक्टूबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने गोवा के तमाम लौह अयस्क खनन और परिवहन पर रोक लगाने का आदेश दिया था. जस्टिस एमबीशाह आयोग की रिपोर्ट के बाद ये फैसला आया जिसमें बताया गया था कि लाखों टन लौह अयस्क अवैध रूप से निकाला जा रहा था. 2015 में राज्य सरकार ने 88 खनन कंपनियों की लीज को फिर से बहाल कर दिया था लेकिन इस साल फरवरी में गोवा फाउंडेशन नाम के एनजीओ की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने तमाम नई लीज रद्द करते हुए कहा था कि पर्यावरणीय क्लियरन्स के बाद ही नई लीज की जा सकती हैं. तब से इस पर यथास्थिति बनी हुई थी.

विशेषज्ञों के मुताबिक गोवा में खदानों को सालाना छह करोड़ टन अयस्क के उत्पादन की अनुमति थी. डाउन टू अर्थ संस्था के एक आकलन के मुताबिक गोवा में खनन का बिजनेस 16 हजार करोड़ से 22 हजार करोड़ प्रति वर्ष का माना जाता है. राज्य के चार तालुकों में ज्यादातर खदानें हैं जहां स्थानीय लोग वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण से पीड़ित रहे हैं. बताया जाता है कि 2008 में पेइचिंग में हुए ओलम्पिक खेलों से आठ साल पहले ही गोवा में लोहे और मैंगनीज की मांग अचानक बढ़ने लगी थी. अंतरराष्ट्रीय बाजार में लौह अयस्क की कीमत 180 डॉलर प्रति टन छूने लगी तो गोवा की खनिज संपदा का जरूरत से ज्यादा दोहन किया जाने लगा.

इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 के मुताबिक बताया जाता है कि 2015 से 2017 के दौरान माइनिंग और दूसरी परियोजनाओं के चलते 900 हेक्टेयर जंगल घट गया था. लेकिन गोवा में खनन ही नहीं बल्कि विकास परियोजनाएं भी उसके जंगलों, खेतों और हरित क्षेत्र को निगल रही है. केंद्र द्वारा वित्त पोषित भारतमाला और सागरमाला प्रोजेक्टों के तहत आठ-लेन हाईवे, नया हवाई अड्डा, कोयले के लिए रेल लाइनें और रियल इस्टेट बिजनेस के फैलाव में बेतहाशा आवासीय निर्माण कार्यों की वजह से पेड़ों का कटना जारी है. एक रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2017 से जून 2018 के दौरान गोवा के वन विभाग ने सरकारी प्रोजेक्टों के लिए 28,910 पेड़ों को काटने की अनुमति दी थी.

ये हीरे वरदान भी हैं और अभिशाप भी

जानेमाने पर्यावरणविद् और विशेषज्ञ माधव गाडगिल हाल की केरल बाढ आपदा के बाद कह चुके हैं कि गोवा और महाराष्ट्र के पश्चिम घाट इलाकों में सावधानी बरतने की जरूरत है. उनके मुताबिक अनापशनाप विकास कार्य, प्राकृतिक प्रवाहों को बाधित करेंगे. पर्यावरणविदों का ये भी मानना है कि विकास के काम जरूरी हैं लेकिन सरकारें बहुत हड़बड़ी में नजर आती है. जबकि उन्हें कम नुकसान वाले विकल्पों पर भी सोचना चाहिए. आरोप हैं कि पांच साल की शासन अवधि के हिसाब से विकास परियोजनाओं को झोंका जाता है लिहाजा जनजीवन, पर्यावरण और पारिस्थितिकी की चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं. और ये हाल अकेले गोवा का नहीं है. उत्तराखंड से लेकर केरल तक कोई राज्य ऐसा नहीं जो विकास के इस मुनाफाखोर और निवेश प्रधान लेकिन असंवेदनशील मॉडल से घिरा हुआ न हो.

इस पूरे मामले का एक दूसरा पहलू भी है जिससे विकास के इस मॉडल की पेचीदगी दिखती है और उसकी पोल भी खुलती है. गोवा में खनन कार्य से जुड़े लोगों के संगठन, गोवा माइनिंग पीपुल्स फ्रंट ने खबरों के मुताबिक अगले महीने दिल्ली के जंतरमंतर में विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है. फ्रंट से जुड़े लोगों की शिकायत है कि खनन कार्य बंद होने से उनकी रोजीरोटी भी कथित रूप से ठप हो गई है. इसका अर्थ ये नहीं हो सकता कि खनन को बेलगाम कर दिया जाए. सरकारों को समय पर सावधान होकर सोचना चाहिए कि गोवा जैसी सपनीली कहलाने वाली जगहों पर क्या फिर सैलानी धूल फांकने के लिए जाएंगे.

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