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घंटे वाला से शॉपिंग मॉल तक दिल्ली

१२ दिसम्बर २०११

दिल्ली आज आधुनिक भारत की निशानी बन चुकी है. वहां शॉपिंग मॉल्स हैं, एसी बसें हैं, मेट्रो ट्रेन है. लेकिन साथ में दिल्ली में रिक्शे भी हैं और वह तंग गलियां भी जहां शहर की 300-400 साल पुरानी तहजीब दिखती है.

तस्वीर: AP

कहा जाता है की मुगलों के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर को मीठा खाने का शौक बहुत था. दिल्ली के लाल किले में जब बादशाह सलामत को खाने के बाद कुछ मीठा चखने का दिल करता, तो उनके सिपहसलार चांदनी चौक का रुख करते थे. करीब 300 साल पहले जिस दुकान से वे मिठाई खरीदते थे, वह आज भी चांदनी चौक में उसी जगह है. भारत में मिठाई की सबसे पुरानी दुकान घंटे वाला के नाम से मशहूर है.

दिल्ली का घंटे वाला

राजस्थान के लाला सुख लाल जैन ने 1790 में दिल्ली आकर घंटे वाला मिठाई की दुकान खोली. जैन परिवार की सातवीं पुश्त सुशांत जैन कहते हैं, “भले ही हमारी पैकिंग बदल गई हो लेकिन मिठाई की क्वालिटी और जायका वही है, जो 250 साल पहले था.” वह कहते हैं, “हमारा सोहन हलवा, मोतीचूर के लड्डू और पिस्ता बर्फी एक्सपोर्ट भी होता है. उन्हें परदेस में बसे भारतीय और विदेशी बड़े चाव से खाते हैं.”

दिल्ली में 142 साल पुराना ट्रेन इंजन फेरी क्वीनतस्वीर: AP

लेकिन सवाल यह है कि दुकान का नाम घंटे वाला कैसे पड़ा? सुशांत जैन के अनुसार, “पुराने समय में हमारी दुकान के सामने एक स्कूल होता था और हर दिन स्कूल शुरू होने से पहले और खत्म होने पर और बीच में पीरियड्स के लिए घंटा बजता था. और क्योंकि हमारी दुकान स्कूल के ठीक सामने थी, इसलिए दुकान का नाम घंटे वाला पड़ गया. ”

इसके अलावा चांदनी चौक में ही, ठीक फतहपुरी मस्जिद के साथ, चीना हलवाई की दुकान है. आज उसे चलाने के लिए वहां बैठते हैं दिल्ली के पूर्व क्रिकेटर हरी गिडवानी, जो हिन्दू कॉलेज क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके हैं. गिडवानी का कहना है, “आप कुछ भी खाने दिल्ली में कहीं भी चले जाएं लेकिन कराची हलवा के लिए सब हमारे पास ही आते हैं.”

अपने मिजाज में पुरानी दिल्लीतस्वीर: DW

फास्ट फूड का दौर

यह बातें उस समय की हैं, जब फास्ट फ़ूड का दौर नहीं था. लोग चारों तरफ घिरी दिल्ली के घेरे के अंदर ही रहते थे. उस घेरे का कुछ अवशेष अभी भी दिल्ली गेट के पास दिखता है. वैसे भी उस समय लोग घर के बाहर खाना कम ही खाते थे. हां, चाट पकौड़ी का चलन काफी था.

नॉन वेज के शौकीन अकसर जामा मस्जिद के पास करीम या जवाहर होटल में जाया करते थे. करीम होटल 1913 में बना था. शाकाहारी पसंद करने वालों के लिए दरीबा के मोड़ पर परांठे वाली गली थी. जामा मस्जिद के पास ही सीता राम बाजार था.

न सिर्फ खाने के लिए बल्कि दूसरी ज़रूरतों के लिए भी लोग पुरानी दिल्ली की चारदीवारी में ही जाते थे. कॉपी किताबों के लिए नई सड़क, मसालों और मेवा के लिए खारी बावली, कपड़ों के लिए चांदनी चौक मेन मार्केट और जूते चप्पलों के लिए बल्ली मारान ही ठिकाना हुआ करता था.

पुराने जमाने में दिल्ली में शायद ही कोई ऐसी शादी हुई होगी, जिसके जेवरात दरीबा में न बने हों. करीब 150 साल से किनारी बाज़ार में पूर्वजों का कारोबार जिंदा रखे हुए राकेश गुप्ता कहते हैं, “यहां तक कि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू की शादी सीता राम बाज़ार में एक हवेली में हुई, तब भी जेवर दरीबा में ही बने थे.”

जंगल में बना क्नॉट प्लेस

दिल्ली दरबार के बाद जब नई दिल्ली बनी तो उस समय ब्रिटिश सरकार को एक सुलभ और सुंदर बाजार की कमी महसूस हुई. 1929 में एक बाजार की नींव पड़ी, जिसे आज क्नॉट प्लेस (राजीव चौक) के नाम से जाना जाता है. यह 1933 में बन कर तैयार हो गई. बाज़ार के तैयार होने से पहले यह इलाका कीकर की झाड़ियों का घना जंगल था, जहां उस समय कश्मीरी गेट और सिविल लाइंस में रहने वाले लोग तीतर, बटेर मारने आते थे.

जो लोग उस वक्त क्नॉट प्लेस के आस पास के जंगल में रहते थे उन्हें करोल बाग़ और कपड़ों और मोटर के कल पुर्जों की बड़ी मार्केट में बसाया गया. यहां मेवे की दुकान चलाने वाले देवराज सहगल कहते हैं, “आज क्नॉट प्लेस दोबारा जंगल लगता है. लेकिन ईंट पत्थर का.”

शॉपिंग मॉल्स में बढ़ते खरीदारतस्वीर: picture-alliance/ dpa

क्नॉट प्लेस में काके दी हट्टी, निरूला, वेदी टेलर, वेंगर्स, वोल्गा जैसे दुकान आज भी मशहूर हैं. दुकानें उसी जगह जमी हैं लेकिन बदलते वक्त के साथ उनकी पूछ थोड़ी कम होती जा रही है.

सीमांत गांधी की याद में

नई दिल्ली का एक और बड़ा और मशहूर बाजार है खान मार्केट. पंडारा रोड और लोदी इस्टेट के बीच खान मार्केट के इलाके को देश के बंटवारे के बाद पश्चिमोत्तर के सीमांतर इलाके से आए शरणार्थियों को दिया गया. धीरे धीरे इन लोगों ने वहां बसना शुरू कर दिया और अपने दो मंजिला घरों के नीचे छोटी मोटी दुकानें खोल लीं. सीमांतर इलाके को मशहूर पश्तून नेता खान अब्दुल गफ्फार खान या सीमांत गांधी के नाम पर इस मार्केट का नाम खान मार्केट रखा गया. आज दोमंजिला घरों की जगह यहां बड़े बड़े रेस्त्रां खुल गए हैं और खान मार्केट की गिनती दिल्ली की सबसे महंगी मार्केट में होती है. खाने पीने की दुकानों के अलावा बाहरी संस जैसी किताबों की मशहूर दुकान भी है.

पहली एसी मार्केट

जैसे जैसे दिल्ली का विकास हुआ, या यूं कहें कि दिल्ली में भीड़ भाड़ बढ़ी, बाजार भी बढ़े. सरोजनी नगर, लाजपत नगर, करोल बाग़, अजमल खान मार्केट जैसे इलाके दिल्ली के बहुत बड़े बाजार माने जाते हैं. 1970 में क्नॉट प्लेस में दिल्ली का पहला अंडरग्राउंड एयर कंडीशंड पालिका बाज़ार खुला. हालांकि यह बाज़ार काफी तंग था और बिना किसी तरतीब के दुकानों के होने की वजह से भरा रहता था. लेकिन उस ज़माने में यह मार्केट बहुत ही लोकप्रिय थी.

उसके बाद दिल्ली में दौर शुरू हुआ शॉपिंग मॉल का. 1999 में खेल गांव मार्ग पर पहला शॉपिंग मॉल, अंसल प्लाजा शुरू हुआ तो दिल्ली वालों को विदेशी बाजारों के तर्ज पर एक ही जगह सारी चीजें खरीदने का अनुभव हुआ.

किसी जमाने में लोग सिर्फ खरीदारी नहीं, बल्कि घूमने फिरने भी इस शॉपिंग मॉल में जाते थे. लेकिन आज तो दिल्ली के हर कोने पर ऐसे विशालकाय मॉल खड़े हैं. दिल्ली वालों का भी काम इन दुकानों के बिना नहीं चल सकता. यह बात अलग है कि राजनीति के लिए विपक्ष रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश का विरोध कर रहा है.

रिपोर्टः नॉरिस प्रीतम, दिल्ली

संपादनः ए जमाल

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