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घबड़ाहट में दिखती है आत्मविश्वास की कमी

११ अगस्त २०१५

विरोध का सामना करने में भारत की सरकारों ने हमेशा से लोकतांत्रिक उदारता की कमी दिखाई है. सत्ता या ताकत का सहारा वही सरकारें लेती हैं जिन्हें बहस और दलील में पिछड़ जाने का डर होता है.

तस्वीर: instagram.com

सत्ता का चरित्र निरंकुश होता है. उसे किसी भी तरह की चुनौती बर्दाश्त नहीं होती. लेकिन वही सत्ता देर तक टिकने में समर्थ होती है जिसमें सवालों का सामना करने और उनका जवाब देने की क्षमता होती है. विरोध होते ही उसे दबाने का प्रयास करने वाली सत्ता के बारे में बिला शक कहा जा सकता है कि उसमें आत्मविश्वास की कमी है. पिछले कई महीनों से केंद्र और राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने जिस प्रकार की असहिष्णुता का परिचय दिया है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि उनकी यह बौखलाहट इस बात का प्रमाण है कि उनका सिंहासन डोलने लगा है.

गुजरात सरकार और उसकी पुलिस तथा केंद्र सरकार के नियंत्रण में काम करने वाली सीबीआई जिस तरह से हाथ धो कर सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के पीछे पड़ी है, जिस तरह से ग्रीनपीस इंडिया, फोर्ड फाउंडेशन और अन्य गैर-सरकारी संगठनों की गतिविधियों पर पाबंदियां लगाई जा रही हैं, जिस तरह से तीन टीवी चैनलों को लाइसेंस रद्द करने की धमकी देते हुए नोटिस भेजे गए हैं और जिस तरह से कल आधी रात के बाद नई दिल्ली के जंतर मंतर पर शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे किसानों और स्वराज अभियान के नेता एवं जाने-माने बुद्धिजीवी योगेंद्र यादव को गिरफ्तार किया गया है, वह यही दर्शाता है कि सरकार में विरोध को सहने का माद्दा नहीं है. योगेंद्र यादव का आरोप है कि पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज भी किया और उनके साथ भी मारपीट की गई जिसमें उनका कुर्ता भी फट गया, लेकिन स्वाभाविक रूप से पुलिस ने इसका खंडन किया है.

सत्ता पक्ष का टकराववादी रवैया संसद में भी देखने को मिला है. नारे लगाने और प्लेकार्ड दिखाने के कारण 25 कांग्रेस सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित किया गया जबकि दस सालों तक विपक्ष में रहते हुए बीजेपी के सांसद भी इससे भिन्न आचरण नहीं करते थे. टकराव का यह रवैया एक ओर सत्ता पक्ष की आंतरिक कमजोरी का संकेत देता है, वहीं दूसरी ओर इससे उसकी लोकतंत्रविरोधी तानाशाही प्रवृत्ति भी उजागर होती है.

इतिहास से सबक लेने की बात तो सभी करते हैं, लेकिन लेता कोई भी नहीं. इंदिरा गांधी ने 1972 के बाद से विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों को निर्ममता के साथ कुचलने की शुरुआत की थी जिसकी परिणति आपातकाल के रूप में हुई और प्रेस को भी सेंसरशिप का सामना करना पड़ा. लेकिन 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्हें मुंहकी खानी पड़ी. इस अनुभव के बावजूद उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने और लोकसभा में अभूतपूर्व बहुमत प्राप्त करने के कुछ ही समय बाद प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए कानून लाने की तैयारी शुरू कर दी. जबर्दस्त राष्ट्रव्यापी विरोध के बाद उन्हें यह कदम वापस लेना पड़ा. अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी आउटलुक पत्रिका को काफी परेशान किया. मनमोहन सिंह सरकार ने भी कई टीवी चैनलों को नोटिस दिए. यानी शायद ही कोई ऐसे सरकार रही हो जिसने विरोध के प्रति सहिष्णुता और लोकतांत्रिक उदारता का रवैया अपनाया हो.

सभी सरकारें पारदर्शिता की बात करती हैं लेकिन जनता को तथ्यों से अपरिचित रखना चाहती हैं ताकि वे मनमानी करती रहें. वरना प्रधानमंत्री की डिग्रियों के बारे में सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवाल का जवाब देने से सरकार यह कह कर इंकार न कर देती कि यह “राष्ट्रीय सुरक्षा” से जुड़ा मसला है. तीस्ता सीतलवाड़ और उनके पति जावेद आनंद को सीबीआई जेल में डालने के लिए इतनी आतुर थी कि उन्हें भी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया गया. लेकिन आज मुंबई उच्च न्यायालय ने उन्हें अग्रिम जमानत देकर सरकार के इस तर्क की हवा निकाल दी. शायद इसीलिए नरेंद्र मोदी सरकार न्यायपालिका के प्रति भी टकराववादी रवैया अपनाए हुए है और न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलने पर तुली है. लेकिन यह रवैया जन आक्रोश को और अधिक बढ़ाने वाला ही सिद्ध होगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

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