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समाजभारत

भारत में हर आठ मिनट पर लापता हो रहा एक बच्चा

आदिल भट
१३ जनवरी २०२३

हर साल हजारों बच्चे अपने घरों को छोड़कर ट्रेन से भाग जाते हैं. वे अकसर देश की राजधानी दिल्ली पहुंचते हैं और उनकी जिंदगी अनिश्चितता के साये में घिर जाती है. आखिर इस समस्या की वजह क्या है?

Symbolbild | Verloren gegangene Kinder in indischen Bahnhöfen
तस्वीर: Adil Bhat/DW

पिछले साल दिसंबर के अंतिम हफ्ते में असम के रहने वाले 11 वर्षीय देबब्रत (बदला हुआ नाम) ने अपने घर से भागने का फैसला किया. उसने ट्रेन पकड़ी और सीधा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गया. घुंघराले बालों वाला देबब्रत देखने में काफी सीधा-साधा है. स्वभाव से शर्मीला है. जब उसकी उम्र 10 साल थी, तभी उसके पिता ने उसे बाल मजदूर के तौर पर काम करने के लिए मजबूर किया.

पढ़ने की उम्र में उसके हाथ में किताब-कलम की जगह बर्तन मांजने का सामान थमा दिया गया. देबब्रत ने बताया कि वह दिन में करीब 12 घंटे असम के एक होटल में बर्तन साफ करने का काम करता था. कम वेतन और इस थकाऊ काम से बचने के लिएवह घर से भाग गया. उसे यह भी नहीं पता कि वह आगे क्या करेगा. अब उसका भविष्य पूरी तरह अनिश्चितता के साये में है.

देबब्रत ने यह फैसला अचानक नहीं लिया. लंबे समय से उसकी जिंदगी में उथल-पुथल मची हुई थी. लंबी बीमारी की वजह से उसके पिता की मौत हो गई थी. उसकी मां उसे और उसके छोटे भाई की देखभाल करने के लिए संघर्ष कर रही थी. फिलहाल, देबब्रत अन्य 30 बेघर बच्चों के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास एक छोटे, जीर्ण-शीर्ण और शोर-शराबे वाले आश्रय गृह में रहता है. ये बच्चे दिन का ज्यादातर समय टीवी देखते हुए बिताते हैं.

देबब्रत ने डॉयचे वेले को बताया, "मेरा परिवार हर दिन मुझे मारता था और घंटों काम करने के लिए भेजता था. मैं अपने घर पर खुश नहीं था.” असम के अपने कठिन जीवन के बारे में बताते हुए उसकी आंखें भर आयी.

आश्रय गृह के दोस्त

अपने परिवार से हफ्तों दूर रहने के बाद, अब देबब्रत का मन घरवालों से मिलने के लिए तरसता है. वह अब अपने परिवार के पास वापस लौटना चाहता है. हालांकि, यहां से लौटने पर वह अपने उन नए दोस्तों से बिछड़ जाएगा जिनसे उसकी मुलाकात आश्रय गृह में हुई है. उन बच्चों की जिंदगी की कहानियां भी कमोवेश देबब्रत जैसी ही हैं. उन्होंने भी बाल श्रम, दुर्व्यवहार और पलायन का सामना किया है.

इन ट्रेनों में भागते हैं हर साल हजारों बच्चेतस्वीर: Francis Mascarenhas/Reuters

आश्रय गृह में आने के बाद देबब्रत और 12 वर्षीय शेखर (बदला हुआ नाम) अच्छे दोस्त बन गए हैं. शेखर मूल रूप से उत्तर प्रदेश का रहने वाला है. अपने शराबी पिता के दुर्व्यवहार से बचने के लिए वह घर छोड़कर दिल्ली भाग आया. उसने कहा कि उसका शराबी पिता उसे हर दिन पीटता था. घर से भागने के बाद शेखर ने अपना लंबा वक्त रेलवे स्टेशनों पर बिताया. आखिरकार वह तीन महीने पहले नई दिल्ली स्टेशन पहुंचा, जहां से उसे पास के आश्रय गृह में भेज दिया गया.

हर साल भागते हैं हजारों बच्चे

गरीबी और बुरे बर्ताव से बचने की चाह में देश में हर साल हजारों बच्चे अपने घर से भागकर रेलवे स्टेशनों पर पहुंचते हैं. सड़क पर रहने वाले बच्चों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘रेलवे चिल्ड्रन' द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर आठ मिनट में एक बच्चा लापता होता है. घर से भागने वाले हजारों बच्चे इस उम्मीद में ट्रेन में सवार होते हैं कि अब उन्हें दुर्व्यवहार और गरीबी से छुटकारा मिल जाएगा, लेकिन यह नहीं पता होता कि जाना कहां है.

इनमें से कई बच्चे तस्करों के चंगुल में फंस जाते हैं और इनसे बाल मजदूर, बंधुआ मजदूर और घरेलू नौकर के तौर पर काम कराया जाता है. कई बच्चों को यौन कार्य में भी शामिल कर दिया जाता है. वहीं, देबब्रत और शेखर जैसे कुछ बच्चों को सलाम बालक ट्रस्ट जैसे गैर-लाभकारी संगठन बचाने में सफल हो जाते हैं. ये संगठन खोए हुए या घर से भागे हुए बच्चों की मदद करने के लिए रेलवे स्टेशन पर एक टीम तैनात रखते हैं.

एक हॉल में ट्रेनों की दुनिया

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सलाम बालक ट्रस्ट की कल्याण अधिकारी मीना कुमारी ने डॉयचे वेले को बताया, "इन बच्चों को रेलवे प्लेटफॉर्म पर खोजने के बाद, सबसे पहले हम उन्हें अपनी डे केयर यूनिट में ले जाते हैं. वहां हम उन्हें खाना और कपड़ा देते हैं. हमारे काउंसलर उनके साथ बैठते हैं और उनके घर-परिवार के बारे में पूछते हैं.”उन्होंने कहा, "बच्चे आसानी से हमें पूरी बात सही-सही नहीं बताते. उनसे सही जानकारी हासिल करने में हमें कई दिन या हफ्ते लग जाते हैं. उनमें से कुछ को अपने घर का पता या फोन नंबर याद नहीं रहता. इससे उनके परिवारों का पता लगाना मुश्किल हो जाता है.”

परिवार की तलाश

किसी बच्चे को अपनी निगरानी में लेने के बाद कई सारी प्रक्रियाएं पूरी करनी होती हैं. जैसे, काफी ज्यादा कागजी कार्रवाई, काउंसलिंग, और 24 घंटे के भीतर पुलिस के साथ-साथ बाल कल्याण समितियों के सामने बच्चों को पेश करना.

सलाम बालक ट्रस्ट के मनोचिकित्सक मोहम्मद तनवीर ने डीडब्ल्यू को बताया, "इनमें से ज्यादातर बच्चे शारीरिक और भावनात्मक शोषण का शिकार होते हैं. लगभग 90 फीसदी में अवसाद और पीटीएसडी के लक्षण होते हैं. हम उन्हें सामान्य जिंदगी में लाने के लिए काउंसलिंग करते हैं. साथ ही, थेरेपी सेशन भी आयोजित करते हैं.” उन्होंने कहा कि काउंसलिंग के बाद संस्था बाल कल्याण समिति के माध्यम से उनके परिवारों से संपर्क करने की प्रक्रिया शुरू करती है.

अब एक बार फिर आश्रय गृह का रुख करते हैं. यहां एनजीओ की टीम असम में रहने वाली देबब्रत की मां का पता लगाने में सफल रही, लेकिन जब उनसे बात की गई, तो उन्होंने कहा कि वह अपने बेटे को वापस घर नहीं बुलाना चाहती हैं. उन्होंने देबब्रत से फोन पर कहा कि उनके पास उसे दिल्ली से असम लाने के लिए पैसे नहीं हैं. वह दिल्ली में ही अन्य हजारों बेघर और घर से भागे हुए बच्चों के साथ आश्रय गृह में रहे.

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