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घर में नल हो, नल में पानी; ये है इनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश!

स्वाति मिश्रा मध्य प्रदेश के झाबुआ से
१३ मई २०२४

मध्यप्रदेश के झाबुआ के कई गांव आजादी के अमृत काल में भी पीने के पानी से वंचित हैं. फ्लुराइड वाले पानी से विकलांग होना या फिर सैकड़ों रुपये खर्च कर टैंकर से पानी मंगाना, पानी पीने के ये दोनों विकल्प बहुत महंगे हैं.

Indien Jhabua | Trinkwasserkrise
तस्वीर: Swati Mishra/DW

7 मई के ही बाद से शाम की बदली हमारे साथ चल रही है. सुबह से ही झुलसाने वाली धूप, इतनी तेज कि पसीने से मानो चश्मे का शीशा तक पसीज जाता है, और शाम ढलते-ढलते झमझमाती बारिश. हम झाबुआ में हैं, शायद ये यहां से गुजर रही कर्क रेखा का असर है.

झाबुआ शहर पार करके हमें पारा में रुकना था. यहां एक सज्जन हमारे साथ राह दिखाने आने वाले थे. लेकिन हम रास्ता भटक गए और राह दिखाने वाला पारा में इंतजार करता रह गया. खैर इधर उधर भटकते हुए हम पहुंच ही गए जहां पहुंचना था. गांव, जसोदा हिरजी.

यहां सरपंच का घर खोजने में कुछ और मशक्कत हुई. जब उनके दरवाजे पर पहुंचे, तब तक पसीने से कपड़े और बाल तर थे. चेहरा लाल हो चुका था. घर की छांव मिली, बैठने को कुर्सी, तो थोड़ा दम लेकर सुकून आया. 

एक प्लास्टिक के गिलास में ठंडा डालकर मुझे पकड़ाते हुए रमीला निनामा ने कहा, "घर में नल, नल में पानी… जिनके पास ये होता है उनसे भाग्यशाली कोई नहीं!"

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में दूर दराज के गांवों में पानी की भारी किल्लत हैतस्वीर: Swati Mishra/DW

आदिवासी समुदाय की रमीला गांव की सरपंच हैं. यह मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में दूर-दराज का एक पठारी गांव है, जहां मुख्य रूप से आदिवासियों की बसाहट है. यहां पानी के लिए दूर जाना पड़ता है लेकिन कोल्ड ड्रिंक पास की दुकान में ही मिल जाता है. 

बहुत मोल है यहां पानी का

पैनोरमा व्यू बताऊं, तो ऊबड़-खाबड़ सी सूखी जमीन है, हरियाली बहुत ज्यादा नहीं, घर भी दूर-दूर बने हैं. गांव को जाने वाली सड़क पतली, लेकिन पक्की है. हालांकि, कोई अस्पताल या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है. बीमार हों, तो इलाज की सबसे नजदीकी सुविधा के लिए 15 किलोमीटर दूर पारा जाना होगा. हालांकि, ग्रामीण इसकी भी कोई खास शिकायत नहीं करते. यहां जिस चीज की सबसे ज्यादा किल्लत है, वह है पानी.

गर्मी के महीनों में पानी का अभाव और गहरा जाता है. आस-पास के गांवों की हालत भी इससे अलग नहीं. ऐसा नहीं कि गांव में हैंडपंप नहीं, लेकिन कुछ में पानी नहीं आता और कुछ का इस्तेमाल गांव वाले कर नहीं सकते. इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि उन चापाकलों से निकलने वाले पानी में फ्लोराइड की अधिकता बताई जाती है.

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टेढ़े हो जाते हैं हांथ पांव

हाई फ्लोराइड पानी पीने के कारण इन इलाकों में स्केलेटल फ्लोरोसिस के कई मामले सामने आए. प्रभावित लोगों, खासकर बच्चों के हाथ-पैर ऐंठ गए. पड़ोस के जसौदा खुमजी गांव के कुंवरसिंह डामोर भी उनमें से एक हैं. उनके दोनों पैर भीतर की ओर मुड़े हैं, इलाज की कोशिश कामयाब नहीं हुई. नौजवान कुंवरसिंह अब विकलांग पेंशन पाते हैं.

पानी को हौद और दूसरी चीजों में जम कर रखते हैं और महीने भर इसी से काम चलाते हैं लोगतस्वीर: Swati Mishra/DW

कुंवरसिंह बताते हैं, "जिनका थोड़ा कम था उनका इलाज हो गया, लेकिन मेरा इलाज नहीं हो सका. मुझे महीने में 600 रुपया विकलांगता पेंशन मिलती है.” इसी गांव के युवक राकेश के पैर भी फ्लोरोसिस की चपेट में आए, लेकिन उसका असर बहुत बढ़ने से पहले ही उन्होंने हैंडपंप का पानी पीना छोड़ दिया. फिर इलाज के बाद उनकी स्थिति काफी बेहतर हुई. अब वो मजदूरी करते हैं. हालांकि, राकेश बताते हैं कि उनके पैर अब भी पूरी तरह तो ठीक नहीं हो पाए हैं.

बहुत महंगा पड़ता है पानी

फ्लोरोसिस के मामले सामने आने के बाद प्रशासन ने पानी के नमूनों की जांच कराई और फ्लोराइड की अधिकता वाले हैंडपंप बंद कर दिए गए. पानी की गंभीर कमी का सामने कर रहे इन गांवों में साफ पानी की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है. कुओं में पानी नहीं है. तालाब सूख जाते हैं. ऐसे में ग्रामीणों को अपने खर्च पर टैंकर मंगवाना पड़ता. एक बार टैंकर मंगवाने पर करीब 1,200 रुपये खर्च होते थे.

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ग्रामीण लंबे वक्त से सरकारी टैंकर की मांग कर रहे थे. रमीला निनामा बताती हैं कि करीब एक महीने पहले गांव को एक सरकारी टैंकर मिला है, लेकिन इसमें एक पेच है. टैंकर के पांव नहीं होते कि वो खुद जाए और पानी भर लाए. टैंकर को ट्रैक्टर से जोड़कर कुछ किलोमीटर दूर ले जाना पड़ता है और ट्रैक्टर डीजल से चलता है.

हैंडपंप से मिलने वाले पानी में इतना फ्लुराइड है कि पीने वाले विकलांग हो जाते हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

गांव में सबके पास ट्रैक्टर तो है नहीं, तो जिनके पास है उनसे लेकर लोग उसमें डीजल भरवाते हैं. इसमें 400 से 500 रुपए लगते हैं. फिर जिसके बोरवेल पर जाकर पानी भरवाते हैं, वो भी कम-से-कम 200 रुपये लेता है. मोटे तौर पर प्रति टैंकर पानी पर 600 से 700 रुपये का खर्च. ग्रामीण बताते हैं कि कई बार ज्यादा भी लग जाते हैं. यह रकम अपनी जेब से जाती है.

पानी है सबसे बड़ा मुद्दा

रमीला के घर में उन्हें मिलाकर कुल सात लोग हैं, पांच बच्चे और दो पति-पत्नी. यह परिवार एक टैंकर पानी कम-से-कम एक महीने चलाता है. पीना, नहाना, गाय को पिलाना… सब इसी से. घर के बाहर एक हौद है, जिसे पीले रंग के एक तारपोलिन से ढका गया है. कुछ पानी इस हौद में रखा जाता है, जो नहाने और गाय को पिलाने में काम आता है. बाकी पानी अपने पीने के लिए घड़ों और प्लास्टिक की टंकी में रखा जाता है. रमीला के पूरे घर में जहां-तहां मटके और स्टील के घड़े दिखते हैं.

गांव में एक चक्कर काटो, तो सबके आंगन में प्लास्टिक की ड्रमनुमा टंकियां रखी दिखती हैं. रमीला कहती हैं कि पानी की इस किल्लत में कोई मेहमान आ जाए, तो सोचना पड़ता है. कोई हैरानी नहीं कि रमीला पानी को अपना सबसे जरूरी मुद्दा मानती हैं.

घर में बाल्टी, प्लास्टिक के डिब्बे, टंकी मटके में पानी भर कर रखते हैं और उससे महीने भर काम चलाते हैंतस्वीर: Swati Mishra/DW

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पिछले लोकसभा चुनाव में भी गांव के लोगों ने प्रतिनिधियों से पानी आपूर्ति की मांग की थी, इस बार भी की है. उन्हें उम्मीद है कि अब की बार मांग पूरी हो जाएगी. ऐसा नहीं कि प्रशासन ने पहले कभी पानी आपूर्ति के लिए ढांचा बनवाने की कोशिश ना की हो. गांव में कुछ बड़े-बड़े सीमेंट के कुएं दिखते हैं, लेकिन सूखे. इनमें पानी नहीं है. ऐसा एक सूखा कुआं रमीला के भी घर के पीछे है.

भविष्य की उम्मीद

इसी साल फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झाबुआ आए थे. उन्हें "आदिवासी महाकुंभ” नाम के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाया गया था. यहां पीएम मोदी ने ‘तलावड़ा परियोजना' का उद्घाटन किया. यह धार और रतलाम के 1,000 से ज्यादा गांवों के लिए पीने के पानी की आपूर्ति से जुड़ी योजना है. साथ ही, उन्होंने झाबुआ की करीब 50 ग्राम पंचायतों के लिए ‘नल जल योजना' का भी एलान किया. इसके तहत लगभग 11,000 घरों में नल का पानी मुहैया कराने की बात कही गई है.

मैं चाहती हूं, रमीला निनामा के भी घर में नल लग जाए. वो जब चाहें, नल खोलकर गिलास भरकर पी लें. मैं चाहती हूं, वो भी भाग्यशाली हो जाएं.

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