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समाज

गाय की सेवा में लगी जर्मन महिला

१३ नवम्बर २०१७

हिंदू धर्म में गाय की सेवा को पुण्य कमाने से जोड़ा गया है. लेकिन हाल के दिनों में गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी के कई मामले सामने आए हैं. मिलिए एक ऐसी महिला से जो ना हिंदू है और ना हिंदुस्तानी पर फिर भी गौसेवा में लगी हैं.

Frederik Bruening kümmert sich um alte Kühe in Indien
तस्वीर: DW/S.Mishra

मथुरा में गोवर्धन पर्वत के परिक्रमा मार्ग के बाहरी ग्रामीण इलाके में करीब 1200 गायों की एक गोशाला है. यूं तो व्रज के इस इलाके में तमाम गोशालाएं हैं और काफी बड़ी भी, लेकिन सुरभि गौसेवा निकेतन नाम की इस गोशाला की खास बात यह है कि यहां वही गायें रहती हैं जो या तो विकलांग हैं या बीमार हैं या फिर किसी कारण से उनका कोई सहारा नहीं है.

इस गोशाला का संचालन साठ वर्षीया जर्मन महिला फ्रेडरिक ब्रुइनिंग करती हैं. ब्रुइनिंग पिछले चालीस साल से यहां रह रही हैं और गायों की सेवा कर रही हैं. ब्रुइनिंग बताती हैं कि वे भारत में एक पर्यटक के तौर पर घूमने आई थीं लेकिन बाद में कुछ ऐसा हुआ कि उन्होंने गायों की सेवा शुरू कर दी. वे कहती हैं, "तब मैं बीस-इक्कीस साल की थी और एक पर्यटक के तौर पर दक्षिण एशियाई देशों की यात्रा पर निकली थी. जब भारत आई तो भगवद्गीता पढ़ने के बाद अध्यात्म की ओर मेरा रुझान हुआ और उसके लिए एक गुरु की आवश्यकता थी. गुरु की तलाश में मैं व्रज क्षेत्र में आई. यहीं मुझे गुरु मिले और फिर उनसे मैंने दीक्षा ली."

तस्वीर: DW/S.Mishra

गायों के प्रति रुझान और उनकी सेवा के पीछे ब्रुइनिंग एक संस्मरण सुनाती हैं, "दीक्षा लेने के बाद कुछेक साल तो मंत्रजाप, पूजा-पाठ इन्हीं सबमें निकल गये. लेकिन एक दिन मुझे गाय का एक बछड़ा दिखा जिसका पैर टूटा हुआ था. सभी लोग उसे देखकर आगे चले जा रहे थे. मुझे बहुत दया आई और मैं उस बछड़े को रिक्शे पर लादकर आश्रम में ले आयी और उसकी देखभाल करने लगी. बस यहीं से गायों की सेवा का मेरा काम शुरू हो गया."

1200 गायों वाली गोशाला

जर्मनी के बर्लिन शहर की रहने वाली ब्रुइनिंग बताती हैं कि पहले तो उनके पास सिर्फ दस गायें थीं लेकिन धीरे-धीरे गायों का कुनबा बढ़ता गया और फिर इनकी संख्या सौ तक जा पहुंची. वे बताती हैं कि कई बार लोग वृद्ध गायों को उनके यहां छोड़ जाते थे और उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं थी, "कई साल बाद मेरे पिताजी यहां आए. मुझे गायों के बीच छोटे से कच्चे घर में रहते देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ. वे मुझसे वापस घर चलने को बोले तो मैंने कहा कि अब तो इन गायों को छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकती."

ब्रुइनिंग कहती हैं कि उन्होंने अपने पिता से कुछ आर्थिक मदद देने को कहा ताकि वो गायों की देखभाल, उनकी दवा इत्यादि के लिए किसी और पर निर्भर न रहें. उनके पिता इस बात के लिए तैयार हो गये और उन्होंने न सिर्फ काफी पैसे दिये, बल्कि अभी तक हर महीने वहां से पैसे भेजते हैं.

इस गोशाला में लगभग 1200 गायें रहती हैंतस्वीर: DW/S.Mishra

करीब साढ़े तीन हजार वर्ग गज में फैली ब्रुइनिंग की इस गोशाला में लगभग 1200 गायें रहती हैं. इनमें से कई गायें बीमार हैं या फिर अपाहिज. कुछ गायें अंधी भी हैं. इन गायों की सेवा में सहायता के लिए आस-पास के करीब सत्तर लोग ब्रुइनिंग के साथ रहते हैं. तमाम दवाइयां घर पर ही रखी हैं और जरूरत पड़ने पर डॉक्टर भी आकर गायों का इलाज करते हैं. गोशाला के रख-रखाव और गायों के इलाज पर सालाना बीस लाख रुपये से ज्यादा का खर्च आता है. इन सबके लिए ब्रुइनिंग कोई सरकारी सहायता नहीं लेतीं. हालांकि भारत में कई स्वयंसेवी संस्थाएं ऐसी हैं जो कि समय-समय पर अनुदान देती हैं और उसी से गोशाला का खर्च चलता है.

ऐसे रखा जाता है ख्याल

सुरभि गोशाला तीन हिस्सों में बंटी है. बाहर की ओर दो हिस्सों में गायों के स्वच्छंद विचरण की जगह है जहां उन्हें हरा चारा खिलाया जाता है. एक हिस्से में उनके खाने-पीने का सामान रखा जाता है और गेट के भीतर स्थित हिस्से में सुबह-शाम गायें उस वक्त आती हैं, जब उन्हें भूसा-खली-चोकर मिश्रित चारा दिया जाता है. इसी हिस्से में एक छोटा सा घरनुमा स्थान है जिसकी दीवारों और जमीन पर गोबर का लेप है. यहीं ब्रुइनिंग रहती भी हैं और यहीं गायों की तमाम जरूरी दवाइयां भी रखी रहती हैं.

ब्रुइनिंग के यहां काम करने वाले लोग आस-पास के गांवों के हैं और कुछ रात में भी यहीं रहते हैं ताकि किसी इमरजेंसी में कोई दिक्कत न आने पाए. गोशाला में कई साल से काम करने वाले सतीश बताते हैं कि वे लोग ब्रुइनिंग को 'दीदी' कहकर पुकारते हैं. सतीश बताते हैं, "यहां दिन में कई ऐसी गायें आती हैं जिनका एक्सीडेंट हो गया होता है या फिर जो बीमार हैं. गायों का यहां इलाज होता है. गाय के बछड़ों को दूसरी गायों का भी दूध पिलाया जाता है और यदि गाय नहीं पिलाती है तो दीदी उन बच्चों को बोतल से भी दूध पिलाती हैं." सतीश बताते हैं कि कई गायें दूध जरूर देती हैं लेकिन ये दूध यहां मौजूद बछड़ों के लिए भी पर्याप्त नहीं होता, इसलिए करीब चालीस-पचास लीटर दूध रोज बाहर से भी मंगाना पड़ता है ताकि उन बच्चों को दूध मिल जाए जिनकी मां नहीं हैं या जो दूध पिलाने में सक्षम नहीं हैं.

जो गायें मर जाती हैं, उनका क्या किया जाता है, इस सवाल पर ब्रुइनिंग ने बताया, "गायों के मरने के बाद यहीं उन्हें समाधि दे दी जाती है यानि उन्हें दफना दिया जाता है. अंतिम समय में उनके मुंह में गंगाजल डाला जाता है और समाधि के बाद उनके लिए लाउड स्पीकर लगाकर शांति-पाठ किया जाता है."

क्या लौटना होगा जर्मनी?

आश्रम में गुरु से दीक्षा लेने के बाद उनका नाम सुदेवी दासी पड़ गया लेकिन आधिकारिक तौर पर अभी भी उनका जर्मन नाम ही है. ब्रुइनिंग कहती हैं कि पहले उन्हें हिन्दी नहीं आती थी लेकिन गुरु के आश्रम में उन्होंने हिन्दी सीखी और इस काम में धर्म ग्रंथों से काफी सहायता मिली. अब तो वे फर्राटेदार हिन्दी बोलती हैं और उनका कहना है कि ये सब यहां रहते हुए ही उन्होंने सीखा, कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी.

करीब चार दशक से गायों की सेवा में लगी ब्रुइनिंग के सामने आजकल एक नयी समस्या आ गयी है. दरअसल पांच साल पहले रीन्यू हुआ उनका वीजा अब समाप्त होने जा रहा है. वे कहती हैं कि अभी तक वीजा मिल जाता रहा है, कभी पढ़ाई के नाम पर कभी टूरिस्ट के नाम पर, "लेकिन अब पता नहीं ये आगे बढ़ेगा कि नहीं. यदि वीजा की अवधि नहीं बढ़ी, फिर तो वापस जर्मनी ही जाना पड़ेगा. लेकिन इन गायों के बिना मैं वहां रहूंगी कैसे, ये मैं सोच भी नहीं सकती हूं." ये शब्द कहते कहते सुदेवी दासी उर्फ फ्रेडरिक ब्रुइनिंग की आंखें भर आती हैं.

रिपोर्ट: समीर मिश्रा

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