हिंदू धर्म में गाय की सेवा को पुण्य कमाने से जोड़ा गया है. लेकिन हाल के दिनों में गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी के कई मामले सामने आए हैं. मिलिए एक ऐसी महिला से जो ना हिंदू है और ना हिंदुस्तानी पर फिर भी गौसेवा में लगी हैं.
विज्ञापन
मथुरा में गोवर्धन पर्वत के परिक्रमा मार्ग के बाहरी ग्रामीण इलाके में करीब 1200 गायों की एक गोशाला है. यूं तो व्रज के इस इलाके में तमाम गोशालाएं हैं और काफी बड़ी भी, लेकिन सुरभि गौसेवा निकेतन नाम की इस गोशाला की खास बात यह है कि यहां वही गायें रहती हैं जो या तो विकलांग हैं या बीमार हैं या फिर किसी कारण से उनका कोई सहारा नहीं है.
इस गोशाला का संचालन साठ वर्षीया जर्मन महिला फ्रेडरिक ब्रुइनिंग करती हैं. ब्रुइनिंग पिछले चालीस साल से यहां रह रही हैं और गायों की सेवा कर रही हैं. ब्रुइनिंग बताती हैं कि वे भारत में एक पर्यटक के तौर पर घूमने आई थीं लेकिन बाद में कुछ ऐसा हुआ कि उन्होंने गायों की सेवा शुरू कर दी. वे कहती हैं, "तब मैं बीस-इक्कीस साल की थी और एक पर्यटक के तौर पर दक्षिण एशियाई देशों की यात्रा पर निकली थी. जब भारत आई तो भगवद्गीता पढ़ने के बाद अध्यात्म की ओर मेरा रुझान हुआ और उसके लिए एक गुरु की आवश्यकता थी. गुरु की तलाश में मैं व्रज क्षेत्र में आई. यहीं मुझे गुरु मिले और फिर उनसे मैंने दीक्षा ली."
गायों के प्रति रुझान और उनकी सेवा के पीछे ब्रुइनिंग एक संस्मरण सुनाती हैं, "दीक्षा लेने के बाद कुछेक साल तो मंत्रजाप, पूजा-पाठ इन्हीं सबमें निकल गये. लेकिन एक दिन मुझे गाय का एक बछड़ा दिखा जिसका पैर टूटा हुआ था. सभी लोग उसे देखकर आगे चले जा रहे थे. मुझे बहुत दया आई और मैं उस बछड़े को रिक्शे पर लादकर आश्रम में ले आयी और उसकी देखभाल करने लगी. बस यहीं से गायों की सेवा का मेरा काम शुरू हो गया."
1200 गायों वाली गोशाला
जर्मनी के बर्लिन शहर की रहने वाली ब्रुइनिंग बताती हैं कि पहले तो उनके पास सिर्फ दस गायें थीं लेकिन धीरे-धीरे गायों का कुनबा बढ़ता गया और फिर इनकी संख्या सौ तक जा पहुंची. वे बताती हैं कि कई बार लोग वृद्ध गायों को उनके यहां छोड़ जाते थे और उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं थी, "कई साल बाद मेरे पिताजी यहां आए. मुझे गायों के बीच छोटे से कच्चे घर में रहते देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ. वे मुझसे वापस घर चलने को बोले तो मैंने कहा कि अब तो इन गायों को छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकती."
ब्रुइनिंग कहती हैं कि उन्होंने अपने पिता से कुछ आर्थिक मदद देने को कहा ताकि वो गायों की देखभाल, उनकी दवा इत्यादि के लिए किसी और पर निर्भर न रहें. उनके पिता इस बात के लिए तैयार हो गये और उन्होंने न सिर्फ काफी पैसे दिये, बल्कि अभी तक हर महीने वहां से पैसे भेजते हैं.
करीब साढ़े तीन हजार वर्ग गज में फैली ब्रुइनिंग की इस गोशाला में लगभग 1200 गायें रहती हैं. इनमें से कई गायें बीमार हैं या फिर अपाहिज. कुछ गायें अंधी भी हैं. इन गायों की सेवा में सहायता के लिए आस-पास के करीब सत्तर लोग ब्रुइनिंग के साथ रहते हैं. तमाम दवाइयां घर पर ही रखी हैं और जरूरत पड़ने पर डॉक्टर भी आकर गायों का इलाज करते हैं. गोशाला के रख-रखाव और गायों के इलाज पर सालाना बीस लाख रुपये से ज्यादा का खर्च आता है. इन सबके लिए ब्रुइनिंग कोई सरकारी सहायता नहीं लेतीं. हालांकि भारत में कई स्वयंसेवी संस्थाएं ऐसी हैं जो कि समय-समय पर अनुदान देती हैं और उसी से गोशाला का खर्च चलता है.
गायों के पेट से निकला इतना प्लास्टिक
प्लास्टिक के खतरों से अब कोई अंजान नहीं. इसीलिए अफ्रीकी देश केन्या में प्लास्टिक बैग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है. केन्या के सबसे बड़े डंपिंग ग्राउंड में देखिए कैसे प्लास्टिक हमारी भोजन श्रृंखला में दाखिल हो रहा है.
तस्वीर: Reuters/B. Ratner
कचरे से मुनाफा
केन्या की राजधानी नैरोबी के बाहरी इलाके में डंडोरा डंपिंग ग्राउंट पर अकसर ऐसा नजारा देखने को मिलता है. कचरा बीनने वालों को यहां ऐसी चीजों की तलाश रहती है जिन्हें फिर से इस्तेमाल किया जा सके या बेचा जा सके.
तस्वीर: Reuters/T. Mukoya
कचरा की कचरा
डंडोरा नैरोबी का मुख्य डंपिंग ग्राउंड है. जिस चीज को बहुत से लोग कचरा समझ कर फेंक देते हैं, उसी से ऐसे बहुत से जरूरतमंद लोगों की जिंदगी चलती है. यानी एक व्यक्ति के लिए जो कचरा है, दूसरे के लिए वही रोजी रोटी है.
तस्वीर: Reuters/T. Mukoya
भारी बोझ
कूड़ा उठाने वालों को वजन के हिसाब से पैसे मिलते हैं. कांच, धातु और प्लास्टिक के प्रति किलो के हिसाब से अलग अलग पैसे तय हैं. दिन अच्छा हो तो एक कूड़ा उठाने वाले को लगभग 3 यूरो यानी 220 रुपये तक मिल जाते हैं.
तस्वीर: Reuters/T. Mukoya
परिंदों की दावत
इस कचरे में ज्यादातर प्लास्टिक बैग्स होते हैं. लेकिन परिंदों को भी यहां खाने को काफी कुछ मिल जाता है. इसीलिए डंडोरा में ऐसे परिंदों का भी तांता लगा रहता है, जो फेंकी गयी खाने की चीजों से दावत उड़ाते हैं.
तस्वीर: Reuters/T. Mukoya
गाय भी हैं
खाने की तलाश गायों को भी डंडोरा डंपिंग ग्राउंड तक खींच लाती है. इन्हें भी ऑर्गेनिक कचरा खाने के लिए चाहिए लेकिन उसके साथ अक्सर प्लास्टिक भी उनके पेट में चला जाता है.
तस्वीर: Reuters/T. Mukoya
गंभीर समस्या
डांडोरा में चरने वाली कई गायें बाद में बूचड़खानों में पहुंचती है. वहां कटने के बाद कई गायों के पेट से प्लास्टिक निकलती है. दुनिया के कई हिस्सों में यह समस्या देखने को मिली है.
तस्वीर: Reuters/B. Ratner
प्लास्टिक के खतरे
प्लास्टिक बहुत मुश्किल से खत्म होता है. उम्मीद है कि केन्या में प्लास्टिक बैगों पर लगी पाबंदी से इंसानी सेहत और पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी.
तस्वीर: Reuters/B. Ratner
7 तस्वीरें1 | 7
ऐसे रखा जाता है ख्याल
सुरभि गोशाला तीन हिस्सों में बंटी है. बाहर की ओर दो हिस्सों में गायों के स्वच्छंद विचरण की जगह है जहां उन्हें हरा चारा खिलाया जाता है. एक हिस्से में उनके खाने-पीने का सामान रखा जाता है और गेट के भीतर स्थित हिस्से में सुबह-शाम गायें उस वक्त आती हैं, जब उन्हें भूसा-खली-चोकर मिश्रित चारा दिया जाता है. इसी हिस्से में एक छोटा सा घरनुमा स्थान है जिसकी दीवारों और जमीन पर गोबर का लेप है. यहीं ब्रुइनिंग रहती भी हैं और यहीं गायों की तमाम जरूरी दवाइयां भी रखी रहती हैं.
ब्रुइनिंग के यहां काम करने वाले लोग आस-पास के गांवों के हैं और कुछ रात में भी यहीं रहते हैं ताकि किसी इमरजेंसी में कोई दिक्कत न आने पाए. गोशाला में कई साल से काम करने वाले सतीश बताते हैं कि वे लोग ब्रुइनिंग को 'दीदी' कहकर पुकारते हैं. सतीश बताते हैं, "यहां दिन में कई ऐसी गायें आती हैं जिनका एक्सीडेंट हो गया होता है या फिर जो बीमार हैं. गायों का यहां इलाज होता है. गाय के बछड़ों को दूसरी गायों का भी दूध पिलाया जाता है और यदि गाय नहीं पिलाती है तो दीदी उन बच्चों को बोतल से भी दूध पिलाती हैं." सतीश बताते हैं कि कई गायें दूध जरूर देती हैं लेकिन ये दूध यहां मौजूद बछड़ों के लिए भी पर्याप्त नहीं होता, इसलिए करीब चालीस-पचास लीटर दूध रोज बाहर से भी मंगाना पड़ता है ताकि उन बच्चों को दूध मिल जाए जिनकी मां नहीं हैं या जो दूध पिलाने में सक्षम नहीं हैं.
क्या है राज्यों में "गाय" की स्थिति
भारत में गौहत्या को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है. हाल में राजस्थान में तथाकथित गौरक्षकों द्वारा एक व्यक्ति को इतना पीटा गया कि उपचार के दौरान उसकी मौत हो गई. डालते हैं एक नजर इसके संवैधानिक प्रावधान पर.
तस्वीर: Fotolia/Dudarev Mikhail
राज्यों का अधिकार
हिंदू धर्म में गाय का वध एक वर्जित विषय है. गाय को पारंपरिक रूप से पवित्र माना जाता है. गाय का वध भारत के अधिकांश राज्यों में प्रतिबंधित है उसके मांस के सेवन की भी मनाही है लेकिन यह राज्य सूची का विषय है और पशुधन पर नियम-कानून बनाने का अधिकार राज्यों के पास है.
तस्वीर: AP
गौहत्या पर नहीं प्रतिबंध
केरल, पश्चिम बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे राज्यों में गौहत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है. हालांकि संविधान के अनुच्छेद 48 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत गौहत्या को निषेध कहा गया है.
तस्वीर: Fotolia/Dudarev Mikhail
आंध्रप्रदेश और तेलंगाना
इन दोनों राज्यों में गाय और बछड़ों का वध करना गैरकानूनी है. लेकिन ऐसे बैल और सांड जिनमें न तो प्रजनन शक्ति बची हो और न ही उनका इस्तेमाल कृषि के लिये किया जा सकता हो और उनके लिये "फिट फॉर स्लॉटर" प्रमाणपत्र प्राप्त हो, उन्हें मारा जा सकता है.
तस्वीर: Asian Development Bank/Lester Ledesma
उत्तर प्रदेश
राज्य में गाय, बैल और सांड का वध निषेध है. गोमांस को खाना और उसे स्टोर करना मना है. कानून तोड़ने वाले को 7 साल की जेल या 10 हजार रुपये जुर्माना, या दोनों हो सकता है. लेकिन विदेशियों को परोसने के लिये इसे सील कंटेनर में आयात किया सकता है. भैंसों को मारा जा सकता है.
तस्वीर: Getty Images/Allison Joyce
असम और बिहार
असम में गायों को मारने पर प्रतिबंध है लेकिन जिन गायों को फिट-फॉर-स्लॉटर प्रमाणपत्र मिल गया है उन्हें मारा जा सकता है. बिहार में गाय और बछड़ों को मारने पर प्रतिबंध है लेकिन वे बैल और सांड जिनकी उम्र 15 वर्ष से अधिक है उन्हें मारा जा सकता है. कानून तोड़ने वाले के 6 महीने की जेल या जुर्माना हो सकता है.
तस्वीर: AP
हरियाणा
राज्य में साल 2015 में बने कानून मुताबिक, गाय शब्द के तहत, बैल, सांड, बछड़े और कमजोर बीमार, अपाहिज और बांझ गायों को शामिल किया गया है और इनको मारने पर प्रतिबंध हैं. सजा का प्रावधान 3-10 साल या एक लाख का जुर्माना या दोनों हो सकता है. गौमांस और इससे बने उत्पाद की बिक्री भी यहां वर्जित है.
तस्वीर: AP
गुजरात
गाय, बछड़े, बैल और सांड का वध करना गैर कानूनी है. इनके मांस को बेचने पर भी प्रतिबंध है. सजा का प्रावधान 7 साल कैद या 50 हजार रुपये जुर्माना तक है. हालांकि यह प्रतिबंध भैंसों पर लागू नहीं है.
तस्वीर: AP
दिल्ली
कृषि में इस्तेमाल होने वाले जानवर मसलन गाय, बछड़े, बैल, सांड को मारना या उनका मांस रखना भी गैर कानूनी है. अगर इन्हें दिल्ली के बाहर भी मारा गया हो तब भी इनका मांस साथ नहीं रखा जा सकता, भैंस इस कानून के दायरे में नहीं आती.
तस्वीर: AP
महाराष्ट्र
राज्य में साल 2015 के संशोधित कानून के मुताबिक गाय, बैल, सांड का वध करना और इनके मांस का सेवन करना प्रतिबंधित है. सजा का प्रावधान 5 साल की कैद और 10 हजार रुपये का जुर्माना है. हालांकि भैंसों को मारा जा सकता है.
तस्वीर: Daniel Tschudy
9 तस्वीरें1 | 9
जो गायें मर जाती हैं, उनका क्या किया जाता है, इस सवाल पर ब्रुइनिंग ने बताया, "गायों के मरने के बाद यहीं उन्हें समाधि दे दी जाती है यानि उन्हें दफना दिया जाता है. अंतिम समय में उनके मुंह में गंगाजल डाला जाता है और समाधि के बाद उनके लिए लाउड स्पीकर लगाकर शांति-पाठ किया जाता है."
क्या लौटना होगा जर्मनी?
आश्रम में गुरु से दीक्षा लेने के बाद उनका नाम सुदेवी दासी पड़ गया लेकिन आधिकारिक तौर पर अभी भी उनका जर्मन नाम ही है. ब्रुइनिंग कहती हैं कि पहले उन्हें हिन्दी नहीं आती थी लेकिन गुरु के आश्रम में उन्होंने हिन्दी सीखी और इस काम में धर्म ग्रंथों से काफी सहायता मिली. अब तो वे फर्राटेदार हिन्दी बोलती हैं और उनका कहना है कि ये सब यहां रहते हुए ही उन्होंने सीखा, कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी.
करीब चार दशक से गायों की सेवा में लगी ब्रुइनिंग के सामने आजकल एक नयी समस्या आ गयी है. दरअसल पांच साल पहले रीन्यू हुआ उनका वीजा अब समाप्त होने जा रहा है. वे कहती हैं कि अभी तक वीजा मिल जाता रहा है, कभी पढ़ाई के नाम पर कभी टूरिस्ट के नाम पर, "लेकिन अब पता नहीं ये आगे बढ़ेगा कि नहीं. यदि वीजा की अवधि नहीं बढ़ी, फिर तो वापस जर्मनी ही जाना पड़ेगा. लेकिन इन गायों के बिना मैं वहां रहूंगी कैसे, ये मैं सोच भी नहीं सकती हूं." ये शब्द कहते कहते सुदेवी दासी उर्फ फ्रेडरिक ब्रुइनिंग की आंखें भर आती हैं.
रिपोर्ट: समीर मिश्रा
गाय क्यों बन रही हैं ये महिलाएं?
फोटोग्राफर सुजात्रो घोष ने गाय बचाने के नाम पर हिंसा और महिला सुरक्षा के मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाया है. उनकी फोटो आपको साधारण लगेंगी लेकिन उन सभी में महिलाओं ने जिस तरह गाय के मुखौटे पहने हैं, वे उन्हें खास बनाते हैं.
तस्वीर: Getty Images
मकसद
फोटोग्राफर सुजात्रो घोष कहते हैं कि उनके इस प्रोजेक्ट का मकसद महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के मुद्दे को उठाना है. उनके मुताबिक, "अगर हम गाय को बचा सकते हैं तो फिर महिलाओं को क्यों नहीं."
तस्वीर: Handout photo from Sujatro Ghos
महिला सुरक्षा की अनदेखी
उनका कहना है कि गाय को बचाने के नाम पर लोगों की सरे आम हत्याएं हो रही हैं लेकिन महिलाओं की सुरक्षा को अनदेखा किया जा रहा है.
तस्वीर: Reuters/S. Ghosh
महिलाओं के खिलाफ अपराध
भारत में 2012 के निर्भया कांड के बाद महिला सुरक्षा के लिए नियम कड़े किये गये लेकिन 2015 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के 327,390 मामले दर्ज किये गये हैं.
तस्वीर: Reuters/S. Ghosh
सामाजिक अड़चनें
बहुत से मामले तो दर्ज ही नहीं होते हैं क्योंकि कई बार पीड़ित को हमलावरों की तरफ से दोबारा परेशान किये जाने का डर रहता है तो कई बार सामाजिक रूप से कलंलित होने का डर.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma
गाय के नाम पर
दूसरी तरफ भारत में गाय के नाम पर हिंसा के एक के बाद एक कई मामले सामने आये हैं. कथित गौरक्षकों की गतिविधियों में सरेआम कई लोगों की हत्या की गयी है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/J.F. Monier
सराहना
घोष का कहना है कि सबसे पहले उन्होंने अपनी दोस्तों और परिवार की महिलाओं की मास्क के साथ फोटो ली. लेकिन अब बहुत सी और महिलाएं भी उनके प्रोजेक्ट का हिस्सा बनना चाहती हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
आलोचना
इस बीच सुजात्रो घोष को सोशल मीडिया पर निशाना भी बनाया गया है. कई लोग उन पर गाय का अपमान करने का आरोप लगा रहे हैं.
तस्वीर: AP
उम्मीद
घोष को उम्मीद है कि लोग उनके इस संदेश को सही से समझेंगे कि जिस तरह गाय को बचाने की कोशिश हो रही हैं, उसी तरह महिलाओं को भी बचाने की जरूरत है.