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चिपको आंदोलन से बहुत बड़ा है सुंदरलाल बहुगुणा का संघर्ष

हृदयेश जोशी
२१ मई २०२१

शुक्रवार को सुंदरलाल बहुगुणा के निधन के साथ हिमालय में पर्यावरणीय संघर्ष और चेतना के एक अध्याय का समापन हो गया.

Sunderlal Bahuguna | indischer Umweltschützer
तस्वीर: Subhash Sharma/ZUMA/imago images

93 साल के सुंदरलाल कोरोना से पीड़ित थे और पिछली 8 मई को उन्हें ऋषिकेश के एम्स में भरती किया गया था.  बहुगुणा को सत्तर के दशक में उत्तराखंड में चले चिपको आंदोलन से जुड़े होने के कारण "चिपको” नेता के नाम से जाना जाता है लेकिन आमजन और पर्यावरण के लिए उनके संघर्ष की कहानी की तो यह बहुत छोटी कड़ी है. 

सच्चे गांधीवादी

नौ जनवरी 1927 को उत्तराखंड के टिहरी ज़िले के मरूड़ा गांव में जन्मे बहुगुणा का जीवन पर्यावरण, राजनीति, समाज सेवा और पत्रकारिता समेत बहुत सारे अनुभवों को समेटे था. उनकी समझ गांधी के विचारों से प्रेरित थी. उन्होंने 13 साल की उम्र में आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया. किशोरावस्था में  कौसानी में गांधी सरला बहन के आश्रम में उनका वक्त गुजारा और वहीं उनकी चेतना विकसित हुई. यह गांधी का प्रभाव ही था कि बहुगुणा ने अपने पूरे जीवन में इस बात के लिये प्रयत्न किया कि कथनी और करनी में अंतर ना हो. वह अपना छोटे से छोटा काम भी स्वयं ही करते और जब उनकी पर्यावरणीय चेतना विकसित हुई तो उन्होंने एक सस्टेनेबल और प्रकृति के अनुरूप जीवन शैली अपनाई.

बहुगुणा ने एक बार कहा, "मैं चावल नहीं खाता क्योंकि धान की खेती में बहुत पानी की खपत होती है. मुझे पता नहीं कि इससे पर्यावरण संरक्षण की कोशिश कितनी मजबूत होगी लेकिन मैं प्रकृति के साथ सहजीविता के भाव के साथ जीना चाहता हूं ताकि कोई अपराध बोध न हो.”

युवावस्था में बहुगुणा ने स्यालरा में पर्वतीय जन जीवन मंडल की स्थापना की और दलित बच्चों और बालिकाओं को शिक्षित करने का काम शुरू किया. उन्होंने उत्तराखंड के बूढ़ा केदार में दलित परिवारों के साथ जीवन बिताया. एक ही घर में सोये और भोजन किया. यह वह दौर था जब जाति की बेड़ियां बहुत मजबूत थीं और और गांधीवादी छुआछूत के खिलाफ संघर्ष तेज कर रहे थे.

इसी दौर में उनकी मुलाकात सामाजिक कार्यकर्ता विमला नौटियाल से हुई जो उत्तर भारत के जाने-माने नेता विद्यासागर नौटियाल की बहन भी हैं. साथ में काम करते हुये दोनों ने जीवन साथ बिताने का फैसला किया. बहुत से लोगों को लगता है कि विमला नौटियाल ने विवाह से पहले ही सुंदरलाल को राजनीति के बजाय समाजसेवा के लिये प्रेरित किया.

कांग्रेस नेता और उत्तराखंड के गांवों में वनाधिकार आंदोलन चला रहे किशोर उपाध्याय कहते हैं, "वो पत्रकार भी रहे. यूएनआई और पीटीआई के लिये रिपोर्टिंग की. उन्होंने श्रीनगर (गढ़वाल) से अरुणाचल तक की पैदल यात्रा की. उन पर विनोबा भावे का बड़ा प्रभाव था लेकिन अगर वह राजनीति में बने रहते तो वह पंडित गोविन्दबल्लभ पन्त के बाद या हेमवती नंदन बहुगुणा से पहले यूपी के मुख्यमंत्री बन गये होते.”  

पर्यावरण संरक्षण को दिया नया आयाम

सत्तर के दशक में सुंदरलाल बहुगुणा का दिया एक नारा लोगों की चेतना का आधार बना: 

क्या हैं जंगल के उपकार,

मिट्टी, पानी और बयार,

जिंदा रहने के आधार. 

इस नारे से हिमालय को बचाने के लिये ग्रामीणों और आमजन की चेतना काफी प्रभावित हुई और उन्हें समझ में आया कि जंगल का मानव जीवन के साथ कितना गहरा रिश्ता है. सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी कहते हैं  कि चिपको हिमालय को पहला वन आंदोलन नहीं था बल्कि आजादी के बाद से ही कुमाऊं और गढ़वाल में ऐसे आंदोलन चल रहे थे. उनके मुताबिक बहुगुणा ने इन संघर्षों को संगठित,  व्यावहारिक और योजनाबद्ध रुप दिया.

तिवारी कहते हैं, "हमारे यहां आजादी के आंदोलन में जल, जंगल और जमीन के सवाल प्रमुख रहे हैं. गढ़वाल में कम्युनिस्ट और कुमाऊं में समाजवादी ऐसे कई आंदोलनों को चला रहे थे. चिपको असल में इन्हीं वन आंदोलनों का परिमार्जित रूप है. बहुगुणा के बारे में समझने की अहम बात ये है कि उन्होंने पर्यावरणीय आंदोलनों के साथ सामाजिक बुराइयों के खिलाफ भी काम किया। मिसाल के तौर पर सत्तर के दशक में उन्होंने शराबबंदी के खिलाफ 16 दिन का अनशन किया क्योंकि उस वक्त शराब पहाड़ी समाज में एक बड़ी समस्या थी.”

मुआवज़े का फलसफा

विकास परियोजनाओं में प्रभावित लोगों को बिना किसी क्षतिपूर्ति के बच निकलना सरकारों और कंपनियों की आदत रही है. किशोर उपाध्याय कहते हैं कि टिहरी आंदोलन में भले ही एक विशाल बांध बन गया और टिहरी डूब गया लेकिन बहुगुणा ने जिन सवालों को उठाया उससे सत्ता में बैठे कई लोगों को ऐसे विराट परियोजनाओं का अमानवीय चेहरा दिखाई दिया और कम से कम वह मुआवजे के लिये तैयार हुए.  उपाध्याय कहते हैं कि बहुगुणा को इतने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों के बावजूद आत्मचिंतन करने और अपनी गलतियों को सुधारने में कोई हिचक नहीं थी।

"पर्यावरण कार्यकर्ताओं के दबाव से जंगलों, नदियों, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं को बचाने के लिये कानून तो बने लेकिन इन क्षेत्रों में रह रहे लोगों के सरोकार पीछे छूट गये. उन्हीं जंगलों से लोगों को अलग कर दिया गया जिनका जीवन उस पारिस्थितिकी पर टिका था. एक बार मैंने बहुगुणा जी से इस बात को कहा तो उन्होंने दरियादिली से कमी को स्वीकार किया और कहा कि आप जैसे युवाओं को इस लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहिये. ये उस आदमी की महानता थी और इसलिये उनके जाने से भारत की ही नहीं पूरे विश्व की क्षति हुई है.”

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