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चींटियों की जंग में मोर्चे पर मरने जाते हैं बूढ़े सैनिक

९ मार्च २०१८

चींटियां जब युद्ध में जाती हैं तो मोर्चे पर सबसे आगे बूढ़े सैनिक रहते हैं. वैसे सैनिक जो वैसे ही मौत की कगार पर पहुंच चुके हों.

Ameise trägt verletzte Ameise fort
तस्वीर: Erik Frank

इस हफ्ते एक रिसर्च के नतीजों में यह बात सामने आई है. जब जिंदगी और मौत की जंग हो यानी कि किसी घुसपैठिए ने उनके घर पर हमला बोला हो या फिर उनका खाना छीनने की कोशिश कर रहा हो तो चीटियों का झुंड एक खास सैन्य रणनीति के तहत हरकत में आता है और यह रणनीति इंसानों की युद्धनीति से बिल्कुल उलट है. रॉयल सोसायटी जर्नल बायोलॉजी के रिसर्चरों ने अपनी रिपोर्ट में यह बात कही है.

तस्वीर: Frank et al. Sci. Adv. 2017

जापान के रिसर्चरों की एक टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है प्रयोगशाला में प्रयोग के दौरान, "युवा रंगरूटों की तुलना में बूढ़े सैनिक मोर्चे पर ज्यादा बार आगे गए और बांबी के दरवाजों को दुश्मनों के लिए बंद करने की कोशिश की." रिसर्चरों ने इसके साथ ही रिपोर्ट में यह भी कहा है, "नतीजों से पता चलता है कि चींटियों ने सैनिकों को उम्र के आधार काम बांट रखा है, जिसमें उम्रदराज सैनिक ज्यादा खतरनाक काम के लिए भेजे जाते हैं." एक और दिलचस्प बात है कि बूढ़े सैनिकों की तुलना में बूढ़ी मादा चीटियों को और ज्यादा मोर्चे की पहली पंक्ति में जगह दी गई ताकि वो हमले झेल कर दूसरों की रक्षा करें.

रिसर्चरों ने यह भी देखा कि युवा सैनिक बांबी के दरवाजे की बजाय केंद्रीय हिस्से की सुरक्षा में ज्यादा तल्लीन थे. ठीक वैसे ही जैसे किसी राज्य के सैनिक सीमा की रक्षा करने की बजाय राजमहल की सुरक्षा पर सारा ध्यान दें. हालांकि इस तह की उम्र आधारित व्यवस्था सैनिकों की जीवन प्रत्याशा बढ़ाने में मदद करती है क्योंकि युवा सैनिक सुरक्षित रहते हैं. इस तरह से उन्हें अपना और अपने समुदाय का जीवन बढ़ाने में योगदान करने का ज्यादा मौका मिलता है.

ज्यादातर चींटियों में मादा और नर दोनों बांझ होते हैं. इनके बड़े जबड़े इनका हथियार हैं इनमें भी कई समूह होते हैं जैसे कि नवजातों का ख्याल रखने वाला समूह, बांबी का निर्माण करने वाला समूह और साथ ही प्रजनन करने वाले "राजाओं" और "रानियों" का समूह.

तस्वीर: Frank et al. Sci. Adv. 2017

ऐसा नहीं कि बूढ़े सैनिकों को उनके अनुभव या सक्षमता के कारण मोर्चे पर भेजा जाता है. वो तो सुरक्षा तंत्र में बहुत योगदान भी नहीं कर पाते लेकिन फिर भी मोर्चे पर अगली कतार में उन्हें ही रहना होता है, खुद मर कर औरों को जिंदा रखने के लिए शायद. झुंड का यही रिवाज है.

एनआर/ओएसजे (एएफपी)

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