चीन को नाराज करना दूरदर्शिता नहीं
२५ अप्रैल २०१६कई दिनों से इस बारे में अनिश्चितता बनी हुई थी कि क्या ईसा 28 अप्रैल से धर्मशाला में होने जा रहे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेंगे और वहां तिब्बतियों के धर्मगुरु और सर्वोच्च नेता दलाई लामा से भेंट करेंगे. ईसा को ई-पर्यटक वीसा मिला था. आज इसे इस आधार पर रद्द किया गया है कि इस वीसा पर आने वाले पर्यटक को किसी सम्मेलन में भाग लेने और भाषण देने की अनुमति नहीं होती है. ईसा का कहना है कि भारत ने यह फैसला चीन के दबाव में आकर किया है.
दरअसल इस प्रकरण से एक बार फिर यह बात प्रमाणित हो गई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति किसी सुचिंतित आधार पर नहीं टिकी है और इसीलिए पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुधारने की उसकी घोषित नीति के बावजूद लगभग सभी पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों में लगातार तनाव आता जा रहा है. नेपाल, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश, सभी के साथ संबंध सुधरने के बजाय बिगड़ते जा रहे हैं. ईसा को वीसा दिए जाने को भारत द्वारा चीन को तुर्की-बतुर्की जवाब दिए जाने की तरह देखा गया क्योंकि हाल ही में चीन ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकवादी सरगना मसूद अजहर के पक्ष में वीटो का इस्तेमाल किया था. चीन डोल्कुन ईसा को आतंकवादी मानता है जबकि ईसा का दावा है कि ऊइगुर पृथकतावादी आंदोलन और वह स्वयं पूरी तरह अहिंसक हैं. लेकिन इसी के साथ ही यह भी सही है कि ईसा के खिलाफ इंटरपोल ने रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया हुआ है. भारत स्वयं इस तरह के नोटिस का लाभ उठाता रहा है और अबू सलेम समेत कई वांछित अपराधियों को वह अन्य देशों में गिरफ्तार करवाने में सफल रहा है. चीन का कहना था कि यदि ईसा भारत आते हैं तो भारत सरकार की जिम्मेदारी होगी कि उन्हें गिरफ्तार किया जाए.
चीन तिब्बत और उइगुर पृथकतावादियों के मसले पर बेहद संवेदनशील है. भारत सरकार की नीति तिब्बतियों को मौन समर्थन देने की रही है और इस नीति को तिब्बतियों के संघर्ष का घोर समर्थन करने वाली भारतीय जनता पार्टी और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे समाजवादी नेता सत्ता में आने के बाद भी नहीं बदल पाए क्योंकि भारत किसी भी तरह इस स्थिति में नहीं है कि वह पाकिस्तान की ओर से आने वाली आतंकवादी चुनौती का सामना करते-करते चीन के खिलाफ भी एक और मोर्चा खोल दे. एक आर्थिक एवं सैन्य महाशक्ति के रूप में भारत चीन के सामने कहीं नहीं ठहरता. इसलिए यदि वह चीन को चुनौती देना चाहता है तो इसके पीछे एक सुनियोजित कार्ययोजना एवं रणनीति होनी चाहिए. ईसा प्रकरण से स्पष्ट हो गया है कि ऐसा नहीं है और उसने खामख्वाह चीन को नाराज करने का जोखिम उठा डाला है.
चीन और पाकिस्तान की घनिष्ठ मित्रता जगजाहिर है. इसे चीन भारत के खिलाफ दबाव के रूप में इस्तेमाल भी करता है. लेकिन यह भी सही है कि पिछले कई दशकों के दौरान भारत-चीन सीमा कमोबेश शांतिपूर्ण रही है. एक समय चीन उत्तर-पूर्व के अलगाववादी सशस्त्र विद्रोहियों को प्रशिक्षण और हथियार आदि से मदद किया करता था, लेकिन अब लंबे समय से यह मदद भी बंद है. सीमा विवाद को उसने व्यापार और अन्य क्षेत्रों में संबंध मजबूत करने की प्रक्रिया के आड़े नहीं आने दिया है. कश्मीर समस्या पर भी उसका रुख अमेरिका जैसा ही है कि भारत और पाकिस्तान को द्विपक्षीय आधार पर इसे बिना किसी मध्यस्थता के सुलझाना चाहिए.
ऐसे में बिला वजह चीन को नाराज करना दूरदर्शिता और दानिशमंदी नहीं है. यह कोई नहीं कहेगा कि भारत चीन से डर कर रहे. लेकिन सभी देशों की तरह उसे भी विदेश नीति में अपना नफा-नुकसान सोचकर कदम उठाना चाहिए. वरना उसकी ऐसी ही किरकिरी होती रहेगी जैसे डोल्कुन ईसा प्रकरण में हुई है.