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चुनावी बहिष्कार विवश नागरिकों का एकमात्र सहारा

शिवप्रसाद जोशी
१७ फ़रवरी २०१७

भारत में इस समय प्रांतीय चुनाव हो रहे हैं. वहां मतदान के बहिष्कार का इतिहास पुराना है. विकास में अनदेखी के कारण बहुत से गांवों के लोगों को अभी भी इसका सहारा लेना पड़ रहा है.

Indien Wahlen Uttar Pradesh
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup

भारतीय लोकतंत्र में चुनावी कसरतों, धूम धड़ाके, शोरगुल, रैली-जुलूस, पर्चे-पोस्टर, नारे-हुंकार आदि की अपनी रंगतें रही हैं. इस बार भी चुनावों की ये बेला अपनी पूरी धज में है और मतदान महादान जैसे जुमलों से गली मोहल्ले पटे हुए हैं. लेकिन इन्हीं रौनकों के समांतर, मतदान के बायकॉट जैसी विलक्षणताएं भी घटित हुई हैं. उत्तराखंड में उत्तरकाशी के सुदूर गांवों से लेकर पिथौरागढ़ के सुदूर गांवों तक, चुनावी हंगामे के बीच मतदान के बहिष्कार की खबरें दब सी गईं. इन गांवों के मतदाताओं ने स्थानीय समस्याओं को अनदेखा करते आ रहे जनप्रतिनिधियों, विधायकों और राजनैतिक दलों को इस बार सबक सिखाने का फैसला किया.

आजादी के बाद से अब तक ये इलाके बेहतरी की राह तकते रहे हैं और 16 साल पहले यूपी से अलग होने के बाद भी उनकी सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी मुश्किलें जस की तस हैं. नैनीताल के कुछ गांवों और श्रीनगर गढ़वाल के कुछ इलाकों ने भी वोट न डालने का फैसला किया था. कुछ जगहों पर प्रशासन के लिखित आश्वासन के बाद लोग तैयार हुए. कुल मिलाकर उत्तराखंड में इस बार मतदान बेहतर बताया गया. लेकिन इसकी इतराहट में अनदेखी नहीं हो सकती कि 33-34 फीसदी लोग मतदान से बाहर रहे और इनमें ऐसे भी सैकड़ों थे जिन्होंने बाकायदा बहिष्कार किया.

इस बायकॉट पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि सरकारें तो जैसे तैसे बन ही जाती हैं. भारतीय लोकतंत्र में वोट की राजनीति का ऐसा जादू हो गया है कि 10 में से तीन लोग वोट दें तो उन्हीं तीन के आधार पर जीत और हार या सरकार का निर्णय संभव है. संवैधानिक प्रावधानों में वोट का ये गणित यूं तो जनतंत्र की मजबूती के लिए ही था लेकिन सत्ता की राजनीति और वर्चस्व की लड़ाइयों ने इस गणित को अपने पक्ष में ऐसा झुका दिया कि अब जनतांत्रिक अधिकार इस चुनावी राजनीति में अंट नहीं रहे हैं. चुनावी राजनीति, सरकारें तो बना देती है, प्रशासनिक व्यवस्थाएं भी चल पड़ती हैं लेकिन वो लोगों में भरोसा नहीं बना पाती. वो उनके बुनियादी हकों का संरक्षण नहीं करती, परवाह तो दूर की बात है. यही वजह है कि लोग अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं. उन्हें सरकार की और वोट की मशीनरी पर संदेह होता है, उन्हें घोषणापत्रों और कसमों वादों पर यकीन नहीं होता है. अपनी इस भावना को वे मतदान के बहिष्कार से अभिव्यक्त करते हैं. वे और क्या करें.

तस्वीर: DW/J.Akhtar

क्योंकि संघर्षों को कभी मौकापरस्ती से कभी दमन, कभी लालच और कभी शॉर्टकट उपायों से दबाया जाता रहा है. बहिष्कार, संघर्ष की चेतना को एक नया आयाम देता है, वो उसे यकीनी और असरदार बनाता है. भले ही मुट्ठी भर लोगों का बहिष्कार, वोट के गणित को जरा भी इधर से उधर न खिसकाता हो लेकिन इसका संदेश दूर तक जाता है और ये लोगों की चेतना में दर्ज हो जाता है. इसलिए प्रशासनिक मशीनरी और राजनैतिक दल ये सुनिश्चित करते हैं कि मताधिकार के इस्तेमाल से कोई वंचित न रहे. लेकिन अगर ये मताधिकार है तो मत न देने का अधिकार भी तो है. ठीक है एक व्यवस्था मतदान में नोटा की भी है जिसमें नापसंदगी के विकल्प को चुना जा सकता है, लेकिन वे लोग जिनके पास दशकों से सड़कें नहीं पहुंची आखिर किन रास्तों से इन मशीनों पर जाकर उस विकल्प को चुनें. वे धैर्य और इंतजार के रास्ते पर कब तक चलेंगे?

राजनैतिक दल और नेता, मतदान के बहिष्कार की बहुत परवाह करते नहीं देखे गए हैं. वे बहिष्कार को चुनाव आयोग की रूटीन जागरूकता एक्सरसाइज की कमजोरी से जोड़ देने में देर नहीं लगाते. लेकिन ऐसा करते हुए भूल जाते हैं कि बहिष्कार की नौबत चुनाव आयोग और चुनावी प्रक्रिया की मशीनरी से नहीं आती बल्कि उनके और उनकी सरकारों के रवैये से आती है. चुनावी राजनीति के खिलाड़ियों को ये सोचना ही होगा कि बहिष्कार अगर सघन और व्यापक होता चला गया तो उनके तंबू उखड़ते देर नहीं लगेगी.

अगर नागरिकों से किए गए वादे पूरे नहीं किए गए तो बहिष्कार की उनकी सामर्थ्य को फैलने से भला कितने समय तक रोके रखा जा सकता है. नेताओं पर इसका असर भले ही न पड़े लेकिन लोकतंत्र के और रास्ते भी हैं, जहां से चीजें सही किए जाने की मांगें उठने लगेंगी. चुनाव सुधारों की बात यूं ही नहीं हो रही है. इसके मायने है और निहितार्थ हैं, न्यायपालिका भी प्रोएक्टिव हो जाए तो कोई हैरानी नहीं होगी. समय रहते लोगों की अपेक्षाओं का न्यायसंगत निदान करना ही होगा वरना लोकतंत्र तो भीड़तंत्र बनेगा ही, एक निरंकुश तंत्र भी नागरिक दमन के लिए पूरी तरह पसर जाएगा.

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