छह-छह साल के बच्चे अभी ठीक से पढ़ना भले ही ना जानते हों लेकिन अपने दुश्मन का नाम उन्हें अच्छी तरह पता है और उसके मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं. यह बच्चे लेबनान के हैं जिन्हें बाकायदा नफरत करना सिखाया जा रहा है.
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अली की उम्र छह साल है और बेरुत में होने वाली एक रैली में वह अपने परिवार के साथ पूरे जोश के साथ "अमेरिका मुर्दाबाद" और "इस्राएल मुर्दाबाद" के नारे लगाता है. इस रैली का आयोजन लेबनान के कट्टरपंथी गुट हिज्बुल्लाह ने किया और इसमें येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के फैसले की मुखालफत की गई.
अली की मां फातिमा कहती है, "वह इतना बड़ा हो चुका है कि उसे यहां लाया जा सके." अली के छोटे भाई को भी वे इस रैली में लाई हैं और अपने इस कदम को वह सही मानती हैं. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस तरह बच्चों को नफरत का पाठ पढ़ाया जा रहा है.
फातिमा शिया हैं और इस रैली में जमा हुए हजारों लोगों की तरह हिज्बुल्लाह की समर्थक हैं. जिस सड़क से यह प्रदर्शन निकला, वह महिला और पुरुषों से भरी थी. रैली में हिज्बुल्लाह नेता हसन नसरल्लाह का यह बयान भी स्क्रीन पर दिखाया गया, "सीरिया और ईरान में जीत के बाद हम इस्राएल पर ध्यान केंद्रित करेंगे." इस पर वहां मौजूद लोगों ने हर्षध्वनि की.
कैसा नजर आता है येरुशलम
इस्राएल-फलस्तीन टकराव का बड़ा मुद्दा येरुशलम है, 1967 में हुये इस्राएल-अरब युद्ध के दौरान दिखने वाले येरुशलम और आज के येरुशलम की तुलना कीजिये इन तस्वीरों में.
तस्वीर: Reuters/R. Zvulun
आज, माउंट ऑफ ऑलिव्स
पुराने शहर की दीवार और सोने का गुंबद डोम ऑफ द रॉक और पीछे नजर आने वाला पहाड़ जो पुराने शहर के पूर्व में स्थित है. यहां दुनिया का सबसे पुराना अभी भी इस्तेमाल हो रहा यहूदी कब्रिस्तान है जो पहाड़ के पश्चिमी और दक्षिणी ढलान पर स्थित है. एक वक्त में यहां बहुत सारे जैतून के पेड़ हुआ करते थे और इसलिये इस क्षेत्र का नाम माउंट ऑफ ऑलिव्स पड़ा.
तस्वीर: Reuters/R. Zvulun
1967, माउंट ऑफ ऑलिव्स
यदि प्राचीन ऑटोमन शहर की दीवार और दरगाह तस्वीर में नजर न आये तो लोग शायद यह समझ ही न पायें कि यह वही जगह है जिसकी तस्वीर हमने पहले देखी थी. यह तस्वीर 7 जून 1967 को ली गई थी जब अरब-इस्राएल युद्ध अपने चरम पर था.
तस्वीर: Government Press Office/REUTERS
आज, अल-अक्सा मस्जिद
चांदी के रंग के गुंबद और विशाल हॉल वाली अल-अक्सा मस्जिद टेंपल माउंट पर स्थित है. मुस्लिम इस मस्जिद को "नोबल सेंचुरी" कहते हैं लेकिन यह यहूदी धर्म का भी सबसे पवित्र स्थल माना जाता है. मान्यता है कि यहां ऐसे दो इबादतखाने थे जिनका उल्लेख बाइबिल में मिलता है. इसे मक्का और मदीना के बाद सुन्नी इस्लाम का तीसरा सबसे पवित्र स्थल कहा जाता है.
तस्वीर: Reuters/A. Awad
1967, अल-अक्सा मस्जिद
अल अक्सा का अनुवाद, "सबसे दूर स्थित" मस्जिद होता है. यह येरुशलम की सबसे बड़ी मस्जिद है. 1967 के छह दिवसीय युद्ध में येरुशलेम पर विजय प्राप्त करने के बाद इस्राएल का इस इलाके पर सख्त नियंत्रण रहा है. उस वक्त नेताओं के बीच यह सहमति बनी थी कि मस्जिद का प्रबंधन इस्लामिक धार्मिक ट्रस्ट, वक्फ के पास होगा.
तस्वीर: Reuters/
आज, दमिश्क दरवाजा
इस दरवाजे का नाम दमिश्क दरवाजा इसलिये पड़ा क्योंकि यहां से गुजरने वाली सड़क दमिश्क को जाती है. येरुशलम के फलस्तीनी हिस्से का यह व्यस्त प्रवेश द्वार है. पिछले दो वर्षों में यह कई बार सुरक्षा संबंधी घटनाओं और फलस्तीन की ओर से इस्राएल पर हमलों का केंद्र रहा है
तस्वीर: Reuters/R. Zvulun
1967, दमिश्क दरवाजा
इस ऐतिहासिक दमिश्क दरवाजे को तुर्क सुल्तान सुलेमान ने साल 1537 में तैयार करवाया था. यह काफी कुछ वैसा ही नजर आता है जैसा कि ये साल 1967 में नजर आता था. सात दरवाजों से होकर पुराने शहर और इसके अलग-अलग क्वार्टरों में प्रवेश संभव है.
तस्वीर: Reuters/
आज, ओल्ड सिटी
येरुशलम की ओल्ड सिटी 1981 से यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में है और काफी जीवंत नजर आती है. यहां विभिन्न धर्मों के कई महत्वपूर्ण स्थल हैं, मुस्लिमों के लिये डोम ऑफ द रॉक, अल अक्सा मस्जिद, यहूदियों के लिए पश्चिमी दीवार, ईसाइयों के लिये चर्च. साथ ही यहां खाने-पीने और खरीदारी करने के भी शानदार ठिकाने हैं. यह पर्यटकों का मुख्य आकर्षण केंद्र है.
तस्वीर: Reuters/A. Awad
1967, ओल्ड सिटी
यह तस्वीर साल जुलाई 1967 में ली गई थी. 50 साल बाद भी यहां कुछ चीजें बिल्कुल नहीं बदली हैं. सिर पर थाल लिये एक लड़का यहां की गलियों में ब्रेड बेच रहा है. अन्य लोगों की चहलकदमी भी साफ नजर आ रही है.
तस्वीर: Reuters/Fritz Cohen/Courtesy of Government Press Office
आज, वेस्टर्न वॉल
यह यहूदी लोगों के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है. यहूदी लोग यहां प्रार्थना करने आते हैं और दीवार की दरारों में कई बार नोट भी रख जाते हैं. यहां महिलाओं और पुरुषों के लिये अलग-अलग व्यवस्था है और यह स्थल साल भर खुला रहता है. लेकिन अंदर आने के लिये सुरक्षा जांच अनिवार्य है.
तस्वीर: Reuters/R. Zvulun
1967, वेस्टर्न वॉल
इस दीवार को "वेलिंग वॉल" के नाम से भी जाना जाता है लेकिन यहूदी इसे एक अपमानजनक शब्द मानते हैं और इसका इस्तेमाल नहीं करते. दीवार पर आने वालों की यह तस्वीर उस वक्त ली गई थी जब इस्राएल ने छह दिन चले युद्ध के बाद इस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया था. 19 साल पहले इस इलाके पर जॉर्डन ने कब्जा कर लिया था.
इस रैली में जितनी तादाद पुरुषों की थी, उतनी ही महिला और बच्चों की. महिलाएं इसलिए भी बच्चों को रैली में ले आती है क्योंकि उनके बाद घर पर कोई बच्चों की देखभाल करने वाला नहीं होता. लेकिन इसका एक मकसद बच्चों को हिज्बुल्लाह की सोच और उद्देश्य से वाकिफ भी कराना है जिसका मकसद है इस्राएल का विरोध करना.
फातिमा का कहना है, "बच्चों की यही उम्र है कि वे जानें कैसे यहूदियों ने हमारी जमीन को ले लिया." वह जोश के साथ 1948 के उस घटनाक्रम को बयान करती हैं जब फलस्तीनी जमीन पर इस्राएल खड़ा किया गया था. फातिमा के मुताबिक, "अमेरिका बराबर इस्राएल की मदद करता है और हम पर युद्ध थोपता है और अब शैतान हमारी मस्जिद यहूदियों को देना चाहता है."
अल अक्सा मस्जिद इस्लाम धर्म में तीसरा सबसे पवित्र धार्मिक स्थल है जो पूर्वी येरुशलम में मौजूद है. 1967 में छह दिन तक चले युद्ध में इस्राएल ने पूर्वी येरुशलम पर नियंत्रण कर उसे अपने क्षेत्र में मिला लिया था. तभी से फलस्तीनी और अरब दुनिया मांग करती रही है कि पूर्वी येरुशलम वापस दिया जाए.
येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के ट्रंप के फैसले की दुनिया भर में आलोचना हो रही है. संयुक्त राष्ट्र ने भी इसका विरोध किया है लेकिन ट्रंप अपने रुख पर कायम है. इसके चलते मुस्लिम दुनिया भर में अमेरिका विरोधी भावनाएं एक बार फिर प्रबल हो गई हैं. लेबनान में भी लोग इस बात को लेकर गुस्सा है. लेबनान इसलिए भी खास है क्योंकि वह इस्राएल का पड़ोसी है.
विरोध प्रदर्शनों में आए बच्चे अपने माता पिता के पीछे पीछे वहां लगने वाले नारों को दोहराते हैं. भले ही वे गंभीर मुद्दों की पेचीदगियों से नावाकिफ हों लेकिन नारे पूरे जोश के साथ लगाते हैं. वे उन अमेरिकियों और यहूदियों की मौत के नारे बुलंद कर रहे हैं जिनसे ना वे कभी मिले हैं और ना ही कभी बात की है. छह साल के बच्चे से जब पूछा गया कि वह नारे क्यों लगा रहा है, तो अपनी मां की तरफ देखते हुए वह कहता है, "क्योंकि अमेरिकी और यहूदी हमारे दुश्मन हैं."
इस्राएल के लिए आखिर क्यों इतना अहम है येरुशलम?
अमेरिका ने इस्राएल की राजधानी के रूप में येरुशलम को मान्यता दे दी. अमेरिका सहित कई देशों ने अपने दूतावास भी येरुशलम में शिफ्ट कर दिए हैं. येरुशलम ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म का पवित्र शहर है.
तस्वीर: Reuters/A. Abdallah Dalsh
क्यों है झगड़ा
इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है. 1967 के युद्ध के दौरान इस्राएल ने येरुशलम के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया था. वहीं फलस्तीनी लोग चाहते हैं कि जब भी फलस्तीन एक अलग देश बने तो पूर्वी येरुशलम ही उनकी राजधानी बने. यही परस्पर प्रतिद्वंद्वी दावे दशकों से खिंच रहे इस्राएली-फलस्तीनी विवाद की मुख्य जड़ है.
तस्वीर: Reuters/A. Awad
जटिल मामला
विवाद मुख्य रूप से शहर के पूर्वी हिस्से को लेकर ही है जहां येरुशलम के सबसे महत्वपूर्ण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं. ऐसे में, येरुशलम के दर्जे से जुड़ा विवाद राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक मामला भी है और शायद इसीलिए इतना जटिल भी है.
टेंपल माउंट या अल अक्सा मस्जिद
पहाड़ियों पर स्थित परिसर को यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं और उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है. यहां हजारों साल पहले एक यहूदी मंदिर था जिसका जिक्र बाइबिल में भी है. लेकिन आज यहां पर अल अक्सा मस्जिद है जो इस्लाम में तीसरा सबसे अहम धार्मिक स्थल है.
तस्वीर: Reuters/A. Awad
बातचीत पर जोर
पूरे येरुशलम पर इस्राएल का नियंत्रण है और यही से उसकी सरकार भी चलती है. लेकिन पूर्वी येरुशलम को अपने क्षेत्र में मिला लेने के इस्राएल के कदम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि येरुशलम का दर्जा बातचीत के जरिए तय होना चाहिए. हालांकि सभी दूतावास तेल अवीव में हैं.
तस्वीर: Reuters/A. Awad
इस्राएल की कोशिश
इस्राएल लंबे समय से येरुशलम को अपनी राजधानी के तौर पर मान्यता दिलाना की कोशिश कर रहा था. यहीं इस्राएली प्रधानमंत्री का निवास और कार्यालय है. इसके अलावा देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट भी यहीं से चलती है और दुनिया भर के नेताओं को भी इस्राएली अधिकारियों से मिलने येरुशलम ही जाना पड़ता है.
तस्वीर: Reuters/R. Zvulun
बाड़
येरुशलम के ज्यादातर हिस्से में यहूदी और फलस्तीनी बिना रोक टोक घूम सकते हैं. हालांकि एक दशक पहले इस्राएल ने शहर में कुछ अरब बस्तियों के बीच से गुजरने वाली एक बाड़ लगायी. इसके चलते हजारों फलस्तीनियों को शहर के मध्य तक पहुंचने के लिए भीड़ भाड़ वाले चेक पॉइंट से गुजरना पड़ता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
इस्राएली अमीर, फलीस्तीनी गरीब
शहर में रहने वाले इस्राएलियों और फलस्तीनियों के बीच आपस में बहुत कम संवाद होता है. यहूदी बस्तियां जहां बेहद संपन्न दिखती हैं, वहीं फलस्तीनी बस्तियों में गरीबी दिखायी देती है. शहर में रहने वाले तीन लाख से ज्यादा फलस्तीनियों के पास इस्राएल की नागरिकता नहीं है, वे सिर्फ 'निवासी' हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/O. Balilty
हिंसा का चक्र
इस्राएल और फलस्तीनियों के बीच बीते 20 वर्षों में हुई ज्यादातर हिंसा येरुशलम और वेस्ट बैंक में ही हुई है. 1996 में येरुशलम में दंगे हुए थे. 2000 में जब तत्कालीन इस्राएली प्रधानमंत्री एरिएल शेरोन टेंपल माउंट गये, तो भी हिंसा भड़क उठी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/J. Ashtiyeh
हालिया हिंसा
हाल के सालों में 2015 में एक के बाद एक चाकू से हमलों के मामले देखने को मिले. बताया जाता है कि टेंपल माउंट में आने वाले यहूदी लोगों की बढ़ती संख्या से नाराज चरमपंथियों ने इस हमलों को अंजाम दिया.
तस्वीर: Reuters/A.Awad
कैमरों पर तनातनी
2016 में उस वक्त बड़ा विवाद हुआ जब इस्राएल ने अल अक्सा मस्जिद के पास सिक्योरिटी कैमरे लगाने की कोशिश की. फलस्तीनी बंदूकधारियों के हमलें में दो इस्राएली पुलिस अफसरों की मौत के बाद कैमरे लगाने का प्रयास किया था.
तस्वीर: picture alliance/dpa/newscom/D. Hill
नेतान्याहू के लिए?
तमाम विरोध के बावजूद जहां ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर अपना चुनावी वादा निभाया है, वहीं शायद वह इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू को भी खुश करना चाहते थे. विश्व मंच पर नेतान्याहू ट्रंप के अहम समर्थक माने जाते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Zuma/M. Stern
कड़ा विरोध
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अमेरिकी दूतावास को येरुशलम ले जाने की ट्रंप की योजना का विरोध किया. फलस्तीनी प्रधिकरण ने कहा है कि अमेरिका येरुशलम को इस्राएली की राजधानी के तौर पर मान्यता देता तो इससे न सिर्फ शांति प्रक्रिया की रही सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी, बल्कि इससे हिंसा का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Momani
सऊदी अरब भी साथ नहीं
अमेरिका के अहम सहयोगी समझे जाने वाले सऊदी अरब ने भी ऐसे किसी कदम का विरोध किया है. वहीं 57 मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामी सहयोग संगठन ने इसे 'नग्न आक्रामकता' बताया है. अरब लीग ने भी इस पर अपना कड़ा विरोध जताया है. [रिपोर्ट: एके/ओएसजे (एपी)]
तस्वीर: Reuters/A. Abdallah Dalsh
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हर साल गर्मियों में हिज्बुल्लाह बच्चों के लिए समर कैंप भी लगाता है जहां उन्हें लड़ाई के कुछ तौर तरीकों के अलावा ईरान के क्रांतिकारी नेता अयातोल्लाह खमेनेई की विचारधारा के बारे में सिखाया जाता है. इसलिए ये बच्चे भी वही बोलते हैं जो हिज्बुल्लाह उनसे बुलवाना चाहता है. 14 साल का अब्बास कहता है, "मैं इस्राएल को अपने पैरों के तले कुचलना चाहता हूं." पिछली बार 2006 में जब इस्राएल और लेबनान की लड़ाई हुई थी तो अब्बास बहुत छोटा था. लेकिन अब वह एक हिज्बुल्लाह लड़ाका बनना चाहता है ताकि लेबनान को "इस्राएली आक्रमण से बचा सके." जब उससे पूछा गया कि वह लेबनान की सेना में भर्ती क्यों नहीं होना चाहता तो उसका जवाब था, "लेबनानी सेना ईसाई और सुन्नियों के लिए है. हिज्बुल्लाह ही लेबनान की असली सेना है और बहुत मजबूत है."
हिज्बुल्लाह को अमेरिका भले ही एक आतंकवादी गुट मानते हो लेकिन लेबनान में वह बहुत ताकतवर है. हिज्बुल्लाह का मतलब अल्लाह का पक्ष होता है. लेबनान में रहने वाले बहुत से लोगों के लिए, खास कर शिया लोगों के लिए हिज्बुल्लाह ना सिर्फ उन्हें इस्राएल से बचाता है बल्कि "इस्लामिक स्टेट" और अल कायदा जैसे सुन्नी जिहादी गुटों से भी बचाता है.
वैसे अब्बास को यह पता नहीं है कि 1980 के दशक में दक्षिणी लेबनान में शियाओं को फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) से बचाने के लिए जब इस्राएल आगे आया तो हिज्बुल्लाह ने उसका स्वागत किया था. पीएलओ एक सुन्नी संगठन है और वह शियाओं से लड़ रहा था. अब्बास को यह भी नहीं पता है कि अमेरिका मुर्दाबाद का नारा हिज्बुल्लाह के जरिए ईरान से लेबनान पहुंचा है. हिज्बुल्लाह भले ही "लेबनान के लिए" लड़ने की बात कहे, लेकिन आखिरकार पर वह ईरान के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा है.
लेबनान में 16 साल तक चले गृह युद्ध में शामिल रहे लोग मानते हैं कि अब्बास जैसे बच्चे एक जाल में फंस रहे हैं. जियाद 12 साल के थे जब उन्होंने 1970 के दशक में बंदूक उठाई. वह बच्चों का ब्रेनवॉश करने को एक अपराध मानते हैं क्योंकि इसके जरिए उन्हें एक तरह से लड़ाई में धकेला जा रहा है. वह कहते हैं, "हिज्बुल्लाह हो, इस्राएली हो या फिर अमेरिकी, वे बच्चों को छोटी सी उम्र में किलिंग मशीन बना रहे हैं."
एक बाल सैनिक रहे जियाद कहते हैं कि यह देख कर उन्हें बहुत दुख होता है कि बच्चों को सियासत के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. उनके मुताबिक, "अगर अल्लाह मुझसे कहे कि कोई एक ख्वाहिश बताओ तो मैं कहूंगा कि वे मुझे मेरा बचपन और किशोरावस्था के साल लौटा दे." वह अब अलग अलग जगहों पर व्याख्यान देते हैं ताकि नई पीढ़ी अतीत से कुछ सबक ले सके.
आंचल वोहरा (बेरुत)
200 साल बाद खुला ईसा मसीह का मकबरा
येरुशलम इन दिनों एक ऐतिहासिक पल का गवाह बन रहा है. दो सौ साल बाद उस जगह को फिर से खोला गया है जिसे ईसा मसीह का मकबरा कहा जा जाता है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/G. Tibbon
200 साल में पहली बार
येरुशलम में ईसा मसीह का मकबरा कही जाने वाली जगह को कम से कम दो सदियों में पहली बार खोला गया है.
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यीशु का मकबरा
येरुशलम के 'चर्च ऑफ द हॉली सेपव्क्र' में ये मकबरा है, जो दुनिया भर के ईसाइयों के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक है.
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पवित्र चट्टान
कहा जाता है इसी चर्च में वो चट्टान है जिस पर 33 ईसवी में यीशु को दफन करने के लिए रखा गया था.
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मरम्मत
चर्च की मरम्मत के लिए हो रही काम के दौरान इस मकबरे को खोला गया है.
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कब हुई आखिरी मरम्मत
बताया जाता है कि यहां आखिरी बार मरम्मत का काम 1810 में हुआ था. उस समय यहां लगी आग के बाद मरम्मत का काम हुआ था.
तस्वीर: Getty Images/AFP/G. Tibbon
संगमरमर की पट्टियां
ये जगह संगमरमर की पट्टियों से घिरी है, जिन्हें हटाया जा रहा है ताकि वहां मरम्मत का काम हो सके.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Schalit
फिल्मांकन
ग्रीक विशेषज्ञों की एक टीम इस मरम्मत के काम को कर रही है और नेशनल जियोग्राफिक इस पूरी प्रक्रिया को फिल्मा रहा है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Schalit
शोध के लिए अहम
इस स्थल का खुलना शोधकर्ताओं के लिए भी अहम है क्योंकि इससे उन्हें अहम जानकारी मिल सकती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Hollander
चर्च
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार फिर से जीवित होने से पहले ईसा मसीह को इसी गुफा में दफनाया गया था. 19वीं सदी में इस जगह पर एक चर्च बनाया गया था.
तस्वीर: N. Asfour
यीशु का चित्र
इस जगह पर ईसा मसीह का एक चित्र भी है. उम्मीद है कि मार्च 2017 में ये मरम्मत का काम पूरा हो जाएगा.
तस्वीर: AP
मुश्किल सहमति
पवित्र स्थलों की मरम्मत के काम की अनुमति मिलना अकसर बहुत मुश्किल माना जाता है. इसके लिए चर्च के विभिन्न संरक्षकों के बीच सहमति कायम करनी पड़ती है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/G. Tibbon
60 घंटे
मुख्य ईसाई समुदायों ने सिर्फ आंतरिक गर्भगृह की मरम्मत के लिए 60 घंटे का समय विशेषज्ञों को दिया है.