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समाज

यौन उत्पीड़न के फैसले पर विवाद

२५ जनवरी २०२१

बिना स्पर्श यौन उत्पीड़न साबित नहीं हो सकता है, बॉम्बे हाई कोर्ट के इस फैसले पर विवाद छिड़ गया है. अदालत ने एक 12 साल की लड़की के यौन शोषण के आरोपी को एक महिला की मर्यादा को भंग करने का अपराधी माना है.

Indien jügendliche Protituierte gerettet in Bombay
तस्वीर: imago/UIG

मामला बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ का है, जहां आरोपी ने सेशंस कोर्ट द्वारा एक मामले में पॉक्सो और आईपीसी की धारा 354 के तहत अपराधी सिद्ध किए जाने को चुनौती देते हुए अपील की थी. हाई कोर्ट ने उसके अपराधी सिद्ध होने को तो सही बताया, लेकिन सिर्फ धारा 354 के तहत. पॉक्सो के आरोप से उसे बरी कर दिया गया.

पूरा मामला नागपुर में रहने वाली 12 साल की एक लड़की की शिकायत पर आधारित है. पीड़िता का आरोप था कि वो व्यक्ति उसे बरगला कर अपने घर ले गया और फिर वहां जबरन उसकी छाती पर हाथ रखा और उसके कपड़े उतारने की कोशिश की. ऐन मौके पर पीड़िता के माता-पिता वहां आ गए और वह व्यक्ति और कोई हरकत नहीं कर सका.

अपने फैसले में हाई कोर्ट की नागपुर पीठ की जज पुष्प गनेड़ीवाला ने कहा कि "स्तन को दबाना एक महिला/लड़की की मर्यादा को भंग करने के इरादे से आपराधिक तरीके से बल का इस्तेमाल हो सकता है," लेकिन इसे पॉक्सो के तहत यौन उत्पीड़न का मामला नहीं कहा जा सकता है.

विवाद अदालत की इस विवेचना पर है जिसके तहत जस्टिस गनेड़ीवाला ने कहा कि यौन उत्पीड़न साबित करने के लिए स्पर्श का होना जरूरी है, लेकिन इस मामले में पीड़िता के कपड़ों को उतार कर या उसके कपड़ों के अंदर हाथ डाल कर स्पर्श किए जाने की जानकारी विस्तार से उपलब्ध नहीं है. जज ने कहा कि क्योंकि पॉक्सो के तहत इस तरह के आरोप के लिए कड़ी सजा है, इसीलिए इस आरोप को सिद्ध करने के लिए और कड़े सबूत और और ज्यादा गंभीर आरोपों की आवश्यकता है.

महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर सेव द चिल्ड्रन एनजीओ का एक विज्ञापन अभियान.तस्वीर: Save The Children India

आईपीसी 354 बनाम पॉक्सो

दरअसल आईपीसी की धारा 354 के तहत किसी "महिला की मर्यादा को भंग करने" के अपराध की न्यूनतम सजा एक साल की जेल है, जबकि पॉक्सो के तहत "यौन उत्पीड़न" के अपराध के लिए न्यूनतम सजा तीन साल जेल है. पॉक्सो एक विशेष कानून है जिसे 2012 में विशेष रूप से बच्चों के खिलाफ होने वाली यौन उत्पीड़न के मामलों में सजा देने के लिए लाया गया था.

इस मामले में विवाद इस बिंदु पर है कि कपड़ों के ऊपर से भी गलत इरादे से छूने को यौन अपराध माना जाना चाहिए या नहीं और उसके लिए पॉक्सो के तहत कड़ी सजा दी जानी चाहिए या नहीं. जानकारों की राय इस पर बंटी हुई है. कई लोगों का कहना है कि जस्टिस गनेड़ीवाला का फैसला निराशाजनक है क्योंकि इससे महिलाओं और विशेष रूप से छोटे बच्चों के खिलाफ यौन अपराध करने वाले लोग हलकी सजा पा कर बच कर निकल जाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने वाली जानी मानी अधिवक्ता करुणा नंदी मानती हैं कि इस तरह के फैसले लड़कियों के खिलाफ होने वाले अपराधों में आरोपियों को बचाने में योगदान देते हैं. उन्होंने ट्विट्टर पर लिखा, "वो जज जो इस तरह के फैसले देते हैं जो स्थापित कानून के विरुद्ध होते हैं उन्हें अस्थायी रूप से निलंबित करनी देना चाहिए."

सांसद और शिव सेना की नेता प्रियंका चतुर्वेदी ने भी अदालत के फैसले की निंदा की है.

पत्रकार बरखा दत्त ने ट्विट्टर पर लिखा कि बाल यौन उत्पीड़न के पीड़ित अक्सर खुद को ही दोषी ठहराते हैं क्योंकि अपराधी उनका परिचित होता है.

न्यूनतम कड़ी सजा की कमजोरी

लेकिन जानी मानी अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर ने इस फैसले की बारीकी को समझने का आग्रह किया है. वृंदा ने डीडब्ल्यू से कहा कि वो अदालत की पॉक्सो कानून के सेक्शन सात की इस विवेचना से सहमत नहीं है कि कपड़ों के ऊपर से छूने से यौन उत्पीड़न साबित नहीं होता, लेकिन उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिलाया कि फैसले में नजर यह आ रहा है कि जज इसे यौन उत्पीड़न का मामला मान तो रही हैं लेकिन इस तरह के अपराध के लिए पॉक्सो कानून के तहत जो न्यूनतम तीन साल जेल की सजा का प्रावधान है वो अभियुक्त को देने से झिझक रही हैं.

वृंदा का कहना है कि यह फैसला पॉक्सो कानून के इस प्रावधान की समीक्षा की जरूरत को रेखांकित करता है क्योंकि तीन साल जेल की न्यूनतम सजा जुर्म को कम करने में सहायक सिद्ध होने की जगह उसमें अड़चन पैदा करती है. उन्होंने बताया कि अगर न्यूनतम सजा कम हो तो जज इस तरह आरोपियों को पॉक्सो के तहत अभियुक्त ठहराने में और सजा सुनाने में झिझकेंगे नहीं.

वृंदा ने यह भी कहा कि इसके बावजूद इस मामले में वो जज से इसलिए भी असहमत हैं क्योंकि इस फैसले में कपड़ों के ऊपर से भी इस तरह छुए जाने से किसी बच्ची को जो मानसिक आघात पहुंचेगा उसे नजरअंदाज कर दिया गया है.

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