जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने पर्यावरण प्रेमियों की चिंता बढ़ाई है तो इससे जंगलों में रहने वाले आदिवासियों का विस्थापन भी बढ़ा है. आदिवासी समुदाय अपनी परंपराओं और संस्कृति के खत्म होने की चिंता कर रहा है.
विज्ञापन
जंगलों और नदियों के संरक्षण से ही प्रकृति का संतुलन बनता है किन्तु विकास की जिस परिभाषा का आज के दौर में सरकारें पालन कर रही हैं उससे आदिवासियों के जीवन में आमूल चूल परिवर्तन आ रहा है. कुछ परिवर्तन तो ऐसे हैं जो आदिवासी जन जातियों को जंगलों के साथ साथ उनकी अपनी संस्कृति से भी दूर कर रहे हैं.
समृद्ध जंगल के गरीब आदिवासी
भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी. देश के जंगलों की कीमत लगभग 1150 खरब रुपये आंकी गई है. ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मेक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है. इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाये खड़ी रहती हैं. आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है.
हाल ही में संसद से पारित हुए 'प्रतिपूर्ति वनीकरण निधि विधेयक' यानी कैम्पा बिल पर भी सवाल उठ रहे हैं. कांग्रेस सांसद जयराम रमेश का मानना है कि यह विधेयक आदिवासियों के हितों के खिलाफ है. उनका कहना है कि इस विधेयक में ‘वन अधिकार कानून, 2006' के प्रावधान को लागू करने के प्रावधान नहीं हैं. यह विधेयक राज्यों को धन पाने का जरिया उपलब्ध कराता है, लेकिन वे इस पैसे का उपयोग आदिवासियों के विकास के लिए नहीं बल्कि उनका दमन करने के लिए करेंगे.
कैम्पा फण्ड और आदिवासी
भारत के पास कुल 7 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल है. विभिन्न प्रकार के जंगलों की कीमत 10 लाख से लेकर 55 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर है. भारत सरकार ने 1980 के बाद से करीब 13 लाख हेक्टेयर जंगल को गैर जंगल उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत दी है. औद्योगिक समूह वन भूमि के इस्तेमाल के बदले मुआवजे के तौर पर कंपनेसेटरी अफॉरेस्टेशन फंड में पैसा जमा करते हैं. इसके लिए कैम्पा बनाया गया है. कानून के तहत सरकार कैम्पा को संवैधानिक दर्जा देगी जो फंड के इस्तेमाल का काम देखेगी. फंड का 90 प्रतिशत राज्यों के पास औऱ 10 प्रतिशत केंद्र के पास रहेगा.
अगर जंगल न हो
ग्लोबल वॉर्मिंग एक हकीकत है. और यह भी कि उसकी वजह इंसानी गतिविधियां हैं. इसका असर पूरी दुनिया पर हो रहा है. कहीं समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है तो कहीं सूखे की स्थिति पैदा हो रही है और कहीं मौसम बदल रहा है.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
ग्लोबल वॉर्मिंग
अमेरिका में हर कहीं जंगलों पर सूखे और ग्लोबल वॉर्मिंग का असर दिख रहा है. ड्यूक युनिवर्सिटी की एक स्टडी के अनुसार तापमान बढ़ने से जंगलों में सूखे की समस्या बढ़ रही है.
तस्वीर: Tonggie Siregar
जंगल में आग
सूखे की वजह से पेड़ों को जरूरी पानी नहीं मिलता. सूखा जंगलों में आग लगने का भी एक प्रमुख कारण है. अमेरिका ही नहीं दूसरे देशों में गर्मी के कारण जंगलों में आग लग रही है.
तस्वीर: picture alliance/dpa/Alaska State Troopers
जैव विविधता
लंबे सूखे का जंगल में आग लगने के अलावा दूसरा असर भी होता है. सूखे के कारण जंगलों में रहने वाले जीव जंतु भी इधर उधर चले जाते हैं. असर वहां की जैव विविधता पर होता है.
तस्वीर: NABU/ H. May
जंगल का महत्व
जंगल हमारे जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं. इसका राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं और लोगों के रोजमर्रा में भी बड़ा हिस्सा है. जहां भी आप लकड़ी देखते हैं वह जंगल से ही आता है.
तस्वीर: DW/J. Carlos
जानकारी की जरूरत
अर्थव्यवस्था में जंगल के महत्व को देखते हुए यह जानना जरूरी है कि जंगलों की हालत अभी क्या है, आने वाले समय में क्या होगी और इन परिवर्तनों से देश या समाज कैसे निबटेगा.
तस्वीर: Tonggie Siregar
पीढ़ीगत विरासत
जंगल हमें विरासत में मिले हैं. उन्हें अगली पीढ़ियों के लिए बचाकर रखना हमारी जिम्मेदारी है. लेकिन बहुत से देशों में जंगल लगाने के बदले पुराने जंगलों को अबाध काटा जा रहा है.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
जागरुकता जरूरी
जंगलों को अपने हाल पर छोड़ देने के बदले उनकी रक्षा जरूरी है. संसाधनों पर बढ़ते बोझ के बीच लोगों में जागरुकता जरूरी है ताकि उसके अंधाधुंध दोहन के बदले टिकाउ इस्तेमाल हो.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
7 तस्वीरें1 | 7
फंड का इस्तेमाल नये जंगल लगाने और वन्य जीवों को बसाने, फॉरेस्ट इकोसिस्टम को सुधारने के अलावा वन संरक्षण ढांचा बनाने के लिए होगा. भारत सरकार ने देश के जंगलों को मौजूदा 21 प्रतिशत से बढ़ाकर कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत करने का फैसला लिया है. कैम्पा के 420 अरब रुपये के कोष पर ग्राम सभाओं और स्थानीय प्रतिनिधियों का कोई सीधा अधिकार नहीं होने से नौकरशाही और वन विभाग द्वारा धन का दुरूपयोग होने की आशंका जतायी जा रही है.
जड़ से दूर होने का दर्द
जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है. आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है. विस्थापन और पलायन ने आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार को बहुत हद तक प्रभावित किया है. गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चलते आज का विस्थापित आदिवासी समाज, खासतौर पर उसकी नई पीढ़ी, अपनी संस्कृति से लगातार दूर होती जा रही है.
आधुनिक शहरी संस्कृति के संपर्क ने आदिवासी युवाओं को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही पूरी तरह मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं. समाजशास्त्री डॉ साहिब लाल कहते हैं कि जंगल को अपना घर समझने वाले जनजातियों के विस्थापन के दर्द को किसी मुआवजे से दूर नहीं किया जा सकता. उनके अनुसार आदिवासी, अपने जीवन, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. जंगलों से दूर होते ही विस्थापित आदिवासी समुदाय कई अन्य समस्याओं की गिरफ्त में आ जाता है.
छत्तीसगढ़ के आदिवासी विभाग के मंत्री केदार कश्यप का कहना है कि अपनी संस्कृति को बचाने के लिए आदिवासी समाज को एक साथ पहल करनी होगी. न्यूजीलैंड की माओरी जनजाति की मिसाल देते हुए वे कहते हैं कि अपनी संस्कृति से दूर होने के कारण माओरी जनजाति आज न्यूजीलैंड में केवल कथा और कथानक के रूप में जीवित रह गई है. ऐसा भारत में न हो, इसके लिए मिलकर प्रयास करना होगा.
यूरोप के प्रेरणास्पद जंगल
24 मई यूरोपीय पार्क दिवस के रूप में मनाया जाता है. वन संरक्षण का एक अहम हिस्सा हैं यूरोप के संरक्षित इलाके, जहां प्रकृति के अजूबों को संभाल कर रखा जाता है.
तस्वीर: imago/blickwinkel
ट्रीग्लाव: ऑर्किड और एडेलवाइस
माउंट ट्रीग्लाव के नाम पर ही स्लोवेनिया के एकलौते राष्ट्रीय उद्यान का नाम पड़ा है. ट्रीग्लाव शब्द का अर्थ है तीन सिरों वाला. ये नाम कैसे पड़ा इसको लेकर कई कहानियां हैं. कुछ लोग मानते हैं कि किसी ओर से भी देखने पर इस पहाड़ी में तीन चोटियां दिखाई देती हैं. कई दूसरे मानते हैं कि एक स्वालिक देवी के नाम पर ही पहाड़ी का यह नाम पड़ा, जिनका सिंहासन पहाड़ की चोटी पर है.
तस्वीर: Triglav National Park
बियालोवीत्सा: यूरोप के सबसे पुराने जंगल
यह राष्ट्रीय पार्क कई शताब्दियों तक पोलिश और फिर रूसी सम्राटों के लिए आरक्षित शिकारगाह रहा. बियालोवीत्सा नेशनल पार्क अब यूरोप का अंतिम बचा आदिम तराई वाला जंगल है. यहां पाए जाने वाले बाइसन के अंधाधुंध शिकार के कारण 20वीं सदी के प्रारंभ में ही वे विलुप्त हो गए. इन इलाकों में उन्हें दुबारा लाकर बसाया गया है.
तस्वीर: Mateusz Szymura
सैक्सन स्विट्जरलैंड: जर्मन रूमानियत
जर्मनी और चेक गणराज्य की सीमा पर स्थित है सैक्सन स्विट्जरलैंड नेशनल पार्क. अगर आप भी सृजनात्मक प्रेरणा की तलाश में हों, तो निकल पड़िए उसी पग पर जिसे पहले कई मशहूर चित्रकार तय कर चुके हैं. इसे "मालरवेग" यानि चित्रकारों का रास्ता कहा जाता है, जो करीब 112 किलोमीटर लंबा बेहद खूबसूरत मार्ग है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
एटना: राक्षस वाले पहाड़
ग्रीक पौराणिक कथाओं में टाइफोन नाम के एक शैतान का जिक्र आता है जिसने देवताओं के राजा जियुस से युद्ध किया था. जियुस ने इस राक्षस को माउंट एटना में ही कैद कर दिया. यह आज भी एक सक्रिय ज्वालामुखी है, जिससे जब जब लावा फूटता है लोग टाइफोन के गुस्से को याद करते हैं. मगर असल में लावे के कारण आसपास की धरती काफी उपजाऊ हो गई है और यहां खूबसूरत लैंडस्केप हैं.
तस्वीर: Reuters
प्लिटवीत्से झील: विनेटू फिल्मों की पृष्ठभूमि
हर साल दस लाख से भी अधिक सैलानी क्रोएशिया की इस प्लिटवीत्से नेशनल पार्क को देखने पहुंचते हैं. यहां 16 झीलों का एक जाल सा बिछा है और इसमें चूना पत्थर की प्राकृतिक सीढ़ियां बन गई हैं. यहां काऊब्वॉय की कहानियों वाली कई विनेटू फिल्मों की शूटिंग की गई है. ऐसी ज्यादातर फिल्में प्रसिद्ध जर्मन लेखक कार्ल माय की किताबों पर आधारित हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/H. Schröder
टाट्रा: जहां भालू करते हैं जंगल का पीछा
टाट्रा पर्वत श्रृंखला का विस्तार पोलैंड से लेकर स्कोवाकिया के नेशनल पार्कों तक है. यहां के घने जंगल और अल्पाइन घास के मैदान ब्राउन बीयर, लिंक्स, भेड़िये, मारमोट और भी कई तरह के जीवों का निवास स्थान है. यहां पाए जाने वाले स्पॉटेड गरुड़ पक्षी अपनी ऊंची उड़ानों में इलाके का सबसे शानदार नजारा देख पाते होंगे.
कवि वॉल्टर स्कॉट ने ट्रोसाख्स में ही अपनी मशहूर कविता "लेडी इन द लेक" लिखी थी. लॉख लोमॉन्ड और दि ट्रोसाख्स नेशनल पार्क ऐसे कई महाकाव्यों के लिए प्रेरणा बने हैं. स्कॉटलैंड के भूले बिसरे अतीत की कितनी ही झलकियां यहां आज भी देखने को मिलती हैं.
तस्वीर: Loch Lomond & The Trossachs National Park Authority
ग्रान पाराडिसो: अल्पाइन आईबैक्स का स्वर्ग
1920 में अल्पाइन आईबैक्स को बचाने के मकसद से इटली का पहला नेशनल पार्क ग्रान पाराडिसो बनाया गया. तब खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी सींग वाली बकरियों जैसे आईबैक्स आज किसी भी सैलानी को आसानी से दिख जाएंगे. 100 साल पहले यहां से गायब हो चुके दाढ़ी वाले गिद्धों को भी दुबारा यहां बसाया जा रहा है.