जंगल बचाने का जर्मन फॉर्मूला
१३ सितम्बर २०१३कोलोन शहर के एक पार्क के बीचों बीच कुछ पेड़ गिराए जा रहे हैं. ऐसे पेड़ जो या तो सूख गए हैं या फिर बेहद कमजोर हैं. वे लोगों के लिए खतरा हैं. उनमें खास निशान लगाया जा रहा है. अब इन्हें काटा जाएगा. लकड़ी ठिकाने लगाने के लिए पार्क में ट्रैक्टर के बजाए घोड़ों का इस्तेमाल किया जाता है. ट्रैक्टर या कार के टायरों से जमीन को ज्यादा नुकसान पहुंचता है और जंगल में रहने वाले छोटे जीवों और कीटों को भी. कर्मचारी केवल बीमार या मर चुके पेड़ों को साफ करते हैं, जंगल को नुकसान से बचाने की कोशिश करते हैं. इस तरह पिछले 40 सालों में जर्मनी में 10 लाख हेक्टेयर जंगल ज्यादा हो गया है.
कोलोन वन प्रशासन के अधिकारी मार्कुस बाउमन इसकी वजह बताते हैं, "जर्मनी में खास बात यहहै कि यहां सुरक्षा के नियम बहुत कड़े हैं. पर्यावरण कानून बढ़िया हैं जो भविष्य को ध्यान में रखते हैं. मिसाल के तौर पर जिन जगहों पर जंगल बेशकीमती हैं, वहां और ज्यादा जंगल लगाया जाता है."
कड़े नियम
जर्मनी में हर कोई जंगल रख सकता है, केंद्र या प्रांतीय सरकार, शहर प्रशासन या निजी लोग, लेकिन कड़े नियमों के साथ. जंगल किसी का भी हो, सब पर कड़ा पर्यावरण कानून लागू होता है. बाउमन बताते हैं, "जर्मनी में जंगलों को लेकर बहुत कड़े कानून हैं. संघीय और प्रांतीय कानूनों में साफ साफ तय है कि निजी मालिक क्या कर सकता है. वह जंगल की अंधाधुंध कटाई नहीं कर सकता. इसका मतलब है कि निजी मालिक एक ही बार में जंगल काट नहीं सकता, उसकी सीमा है. उसे टिकाऊ खेती भी करनी होगी, वह उतना ही जंगल काट सकता है, जितना फिर से उगता है.
जर्मनी में आधे से ज्यादा जंगल निजी हाथों में हैं. कई जंगल तो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलते हैं. जंगल का एक हिस्सा खरीदना भी यहां मुमकिन है. कई लोग इसे कारोबार की तरह करते हैं. एक वन संरक्षण संघ के अधिकारी क्रिस्टॉफ रुलमन कहते हैं कि अक्सर नगरपालिकाएं छोटा टुकड़ा होने पर, अपने जंगल को बेचने का फैसला करती हैं. जंगल का आकार ऐसा होना चाहिए कि उसका आर्थिक रूप से फायदेमंद तरीके से रखरखाव किया जा सके. अगर मेरे पास बहुत छोटा जंगल है तो इसे बेचना ही अच्छा होगा क्योंकि रखरखाव बहुत मुश्किल होगा और मुनाफा भी नहीं होगा."
जंगल का टिकाऊ रखरखाव जरूरी है. यह हर जीव जंतु की आने वाली पीढ़ियों के लिए भी जरूरी है.
रिपोर्टः राफाएल ओलिवर गोएपफर्ट/महेश झा
संपादनः ईशा भाटिया