यूरोपीय देश चेक रिपब्लिक में रोमा बंजारों की आबादी को काबू करने के लिए गुपचुप सैकड़ों महिलाओं की नसबंदी कर दी गई. वे सरकार से मुआवजा चाहती हैं और लंबे समय से कानूनी लड़ाई लड़ रही हैं. अब उनकी कोशिशें कामयाब हो रही हैं.
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इन महिलाओं को मुआवजा देने के एक विधेयक पर चेक रिपब्लिक की संसद में बहस हो रही है. इसके तहत हर महिला को तीन लाख चेक कोरुना यानी लगभग 14,100 डॉलर देने की बात कही गई है. ये नसबंदियां 1970 और 1980 के दशक में हुई थी. उस वक्त चेक रिपब्लिक चेकोस्लोवाकिया का हिस्सा था और देश में कम्युनिस्ट शासन था. लेकिन कई मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि इस सदी में भी ऐसा हुआ है.
चेक सरकार ने 2009 में इन नसबंदियों पर "अफसोस" जताया था लेकिन मुआवजे की पेशकश नहीं की. एलेना गोरोवा 15 साल से मुआवजे के लिए चल रही मुहिम से जुड़ी हैं. वह 21 साल की थीं, जब उनकी नसबंदी की गई. वह बताती हैं कि कुछ महिलाओं से कहा गया था कि नसबंदी कराने के लिए उन्हें पैसे मिलेंगे जबकि कुछ महिलाओं को धमकी भी दी गई कि अगर उनके और बच्चे हुए तो उनके मौजूदा बच्चे छीन लिए जाएंगे.
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भारत से निकल कर यूरोप तक पहुंचने वाले रोमा कौन हैं?
नेटफ्लिक्स की फिल्म रोमा ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरी हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि रोमा भारत से निकली बंजारा जाति है. जानिए इनके बारे में और.
दसवीं सदी में भारत से पलायन करने वाली रोमा बंजारा जाति को दुनिया भर में मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. आज भी ये समुदाय हाशिए पर जीने को मजबूर है.
तस्वीर: Dokumentations- und Kulturzentrum Deutscher Sinti und Roma
यूरोप भर में
यूरोप में मौजूद जातीय रूप से अल्पसंख्यकों में रोमा लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है. करीब सवा करोड़ रोमा यूरोप भर में फैले हुए हैं. अधिकतर मध्य और पूर्वी यूरोप में रहते हैं.
तस्वीर: Tomas Rafa
गरीबी रेखा के नीचे
2016 में यूरोपीय संघ के नौ सदस्य देशों में हुए एक सर्वे के अनुसार यूरोप में रहने वाले लगभग 80 प्रतिशत रोमा गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं.
तस्वीर: DW/M.Smajic
भेदभाव का सामना
एक रिपोर्ट के अनुसार हर चार में से एक रोमा व्यक्ति ने कहा कि उसे भेदभाव का सामना करना पड़ा है लेकिन इनमें से महज दस फीसदी लोगों ने ही इसके खिलाफ शिकायत दर्ज की.
तस्वीर: DW/J. Djukic Pejic
जिप्सियों से दूरी
एक अन्य शोध के अनुसार यूरोप के आधे से ज्यादा लोगों का कहना था कि वे अपने आसपड़ोस में "जिप्सी" लोगों को रहते नहीं देखना चाहते. नशा करने वालों और अपराधियों के अलावा लोगों को बस इन्हीं से दिक्कत थी.
तस्वीर: DW/J. Djukic Pejic
छोटा जीवन
आंकड़े दिखाते हैं कि यूरोप के बाकी लोगों की तुलना में रोमा लोग दस साल कम जीते हैं. साथ ही इनमें बाल मृत्यु दर भी यूरोप के औसत से ज्यादा है.
तस्वीर: DW/A. Feilcke
साक्षरता भी मुद्दा
यूरोप में रहने वाले लगभग बीस फीसदी रोमा लोग पढ़ लिख नहीं सकते. हर चार में से बमुश्किल एक ही रोमा व्यक्ति स्कूली शिक्षा पूरी करता है.
तस्वीर: DW/S. Kljajic
कहां की राष्ट्रीयता?
2016 की संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि केवल इटली में ही 15 हजार बच्चों पर स्टेटलेस यानी किसी भी देश की नागरिकता ना होने का खतरा है.
तस्वीर: DW/M.Smajic
मान्यता भी नहीं
लातिन अमेरिका में केवल कोलंबिया और ब्राजील ही रोमा को अल्पसंख्यक जाति का दर्जा देते हैं. बाकी देशों में इन्हें कोई मान्यता प्राप्त नहीं है.
तस्वीर: picture-alliance/AA/A. Paduano
बुरा जीवनस्तर
रोमा लोग अधिकतर ऐसे घरों में रहते हैं जहां जीवनस्तर बेहद बुरा होता है. साथ ही इन्हें पुलिस की कार्रवाई का डर भी रहता है. इटली और बुल्गारिया में कई रोमा लोगों को जबरन घर से निकाला गया है.
तस्वीर: DW/A. Burakow
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गरीबी और भेदभाव
यूरोप की मानवाधिकार संस्था ने चेक सांसदों से कहा है कि बिल को पास कर दिया जाए क्योंकि यह इंसाफ करने का आखिरी मौका है. कुछ पीड़ित महिलाओं की तो मौत भी हो चुकी है. बहुत सी महिलाओं की तरह गोरोलोवा की नसबंदी भी ऑपरेशन से बच्चे पैदा करने के दौरान की गई. कई महिलाओं से नसंबदी के समय कहा गया कि यह सिर्फ कुछ समय के लिए है. उसके बाद फिर से उनके बच्चे पैदा हो सकते हैं.
पिछले साल चेक संसद को लिखे गए यूरोपीय मानवाधिकार परिषद की आयुक्त दुनिया मिजातोविच के पत्र में कहा गया, "इस अवसर को गंवाना नहीं चाहिए. हालांकि पीड़ितों को शारीरिक और मानसिक तौर पर जो नुकसान हुआ है, उसे पलटा नहीं जा सकता... मुआवजे की व्यवस्था कर इन महिलाओं को कुछ न्याय दिया जा सकता है जो उन्हें बहुत समय से नहीं मिला."
रोमा यूरोप में रहने वाला सबसे गरीब समुदाय है. चेक रिपब्लिक में लगभग 2.4 लाख रोमा लोग रहते हैं. चेक सरकार के अनुसार देश की आबादी रोमा लोगों की हिस्सेदारी दो प्रतिशत है. बहुत से रोमा लोग गरीबी में रहते हैं. वे अपने साथ शिक्षा, रोजगार और निवास संबंधी भेदभाव का आरोप लगाते हैं.
मजबूत होंगी कोशिशें
यह कोई नहीं जानता है कि कितनी रोमा महिलाओं की नसबंदी की गई, लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि सैकड़ों महिलाएं मुआवजे की हकदार हैं. ऐसा आखिरी मामला 2007 में प्रकाश में आया था. गोरोलोवा कहती हैं, "इसका हम सब पर बहुत ही बुरा असर पड़ा है." 1990 में उनके दूसरे बेटे की पैदाइश के समय उनकी नसबंदी की गई थी. उन्होंने बताया, "जब डॉक्टर ने मुझे बताया... तो मैं तो सदमे में आ गई. मैं रोने लगी. मैं चाहती थी कि मेरी एक छोटी सी बेटी भी हो, मेरे पति की भी यही इच्छा थी."
गोरोलोवा अपने जैसी लगभग 200 महिलाओं के संपर्क में हैं. वह बताती हैं कि नसबंदी के बाद कुछ महिलाओं की शादी टूट गई जबकि अन्य महिलाओं को जीवनभर के लिए बीमारियां मिल गईं.
यूरोपीय मानवाधिकार परिषद की आयुक्त मिजातोविच कहती हैं कि एक सरकारी जांच में पता चला कि चेकोस्लोवाकिया में रोमा महिलाओं की नसबंदी की नीति थी. 1993 में यह देश दो हिस्सों में बंट गया, चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया. मिजातोविच का कहना है कि अब चेक रिपब्लिक में मुआवजे के जिस बिल को तैयार किया गया है, उसे सभी पार्टियों का समर्थन प्राप्त है. इससे स्लोवाकिया में ऐसी कोशिशों को बल मिलेगा.
इसी तरह जबरन नसबंदी के मामले हंगरी, स्विटजरलैंड, स्वीडन और नॉर्वे में भी सामने आए थे. मिजातोविच कहती हैं कि ऐसी नीतियों का मकसद समाज के सबसे निचले तबके के लोगों को प्रताड़ित करना था.
भारत में सदियों से बंजारे खानाबदोश जिंदगी जी रहे हैं. लेकिन आज भी वे समाज के हाशिए पड़ा ऐसा समुदाय है जो आधुनिकता की दौड़ में बहुत पीछे है. एक झलक इन लोगों की जिंदगी में.
तस्वीर: Murali Krishnan/DW
पीठ पर परंपरा
पारंपरिक रूप से बंजारे काम धंधे और कारोबार की तलाश में एक जगह से दूसरी जगहों पर जाने वाले लोग हैं. अब वे पूरे देश में फैले हैं लेकिन उनकी जड़ें राजस्थान से बताई जाती हैं. अलग अलग जगहों पर उनके नाम भी अलग हैं. जैसे आंध्र प्रदेश में उन्हें लंबाडा या लंबाडी कहते हैं जबकि कर्नाटक में लंबनी और राजस्थान में गवार या गवारिया.
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पुराने मुसाफिर और कारोबारी
अतीत में बंजारा लोगों के जरिए बहुत से इलाकों में नमक और दूसरी जरूरी चीजें पहुंचा करती थीं. उन्हें बढ़िया कारोबारी माना जाता था. बंजारा शब्द "वनज" यानी व्यापार और "जारा" यानी यात्रा से बना है. उनकी भाषा गारबोली है, जो बहुत सारी भारतीय बोलियों के शब्दों से बनी है. अलग अलग इलाकों में गारबोली भी अलग अलग होती है.
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अलग पहनावा और गहने
बंजारा समुदाय की महिलाएं अपने पहनावे और गहनों के कारण दूर से ही पहचान में आती हैं. वे सिक्कों या फिर स्टील और अन्य धातुओं से बने गहने पहनती हैं. उनके पास सोने का सिर्फ एक गहना दिखता है, वो है नाक की लौंग. उनके कपड़े भी बहुत रंग बिरंगे होते हैं. आम तौर पर बंजारा महिलाएं अपने कपड़े और गहने खुद ही बनाती हैं.
तस्वीर: Murali Krishnan/DW
भेदभाव के शिकार
भारत में बंजारों को अलग अलग जगहों पर अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा या फिर गैर पत्रित जनजाति जैसी श्रेणियों में रखा गया है. बंजारा समुदाय आज भी समाज में हाशिए पर जिंदगी गुजारने को मजबूर है. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यूरोप के खानाबदोश रोमा लोग भी भारतीय बंजारों के वंशज हैं.
तस्वीर: Murali Krishnan/DW
बदलाव की लहर
राजस्थान के बिंसूर गांव में रह रहे बंजारा समुदाय के लोगों के बीच बदलाव का अहसास भी होता है. अब समुदाय के कुछ पुरुष एक जगह रहकर काम करने लगे हैं और अपने बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं, ताकि उनका भविष्य बेहतर हो सकें. हालांकि बहुत से बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और आखिरकार पशुओं को चराने के काम में लग जाते हैं.
तस्वीर: Murali Krishnan/DW
डिजिटल लहर
कुछ साल पहले बंजारा समुदाय में महिलाओं की माहवारी और साफ सफाई से जुड़े विषयों पर कोई बात नहीं होती थी. लेकिन अब बंजारा समुदाय की महिलाओं के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. कुछ एनजीओ तो उन्हें कंप्यूटर भी सिखा रहे हैं, ताकि वे भी इस जमाने से खुद को जोड़ पाएं.