बिहार में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने देश में संभवत: पहली बार अपनी तरह एक ऐसा फैसला सुनाया है जिसमें कानून की जगह मानवीय तथा सामाजिक पहलू का ख्याल रखा गया है.
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न्याय के साथ मानवीय हित को भी सर्वोपरि मानते हुए बिहारशरीफ किशोर न्यायालय परिषद ने एक ऐसा फैसला दिया है, जिसकी प्रशंसा भी हो रही है, किंतु इसने एक नई बहस को जन्म दिया है. अपने एक फैसले में अदालत ने 18 साल से कम उम्र की नाबालिग लड़की को शादी की नीयत से भगाकर ले जाने और बलात्कार करने जैसे अपराध से एक किशोर को दोषमुक्त कर दिया. साथ ही उत्पन्न परिस्थिति के मद्देनजर सामाजिक व मानवीय हित में नाबालिग की शादी को भी जायज करार दिया. ऐसे मामले में तीन से दस साल तक की सजा का प्रावधान है. हालांकि इससे पहले भी देश की विभिन्न अदालतों में मानवीय या अन्य कारणों से सजा कम करने के फैसले दिए गए हैं.
नाबालिग ने भाग कर की थी शादी
मामला अप्रैल 2019 का है. नूरसराय थाना क्षेत्र में 17 साल के एक किशोर तथा 16 साल की एक नाबालिग लड़की ने भागकर शादी कर ली. यह एक अंतरजातीय विवाह था. इस मामले में किशोरी के पिता ने किशोर के अलावा उसके माता-पिता और दो बहनों का आरोपित करते हुए नूरसराय में एफआइआर दर्ज कराई. इस केस के इन्वेस्टिगेटिंग आफिसर (आइओ) ने माता-पिता व बहन को निर्दोष बताते हुए केवल किशोर के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की.
मामला जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (जेजेबी) में भेजा गया. लड़की 23 अगस्त 2019 को किशोर न्याय परिषद में पेश हुई और बयान दर्ज कराते हुए कहा कि वह अपने प्रेमी के साथ स्वेच्छा से भागी थी. उसने यह भी बताया कि दोनों ने शादी भी कर ली है. लड़की ने यह भी कहा कि उसकी जान को उसके माता-पिता से खतरा है और वह अपने प्रेमी के साथ रहना चाहती है.
उसी दिन आरोपित किशोर भी कोर्ट में उपस्थित हुआ. अंतरजातीय विवाह को कारण बताते हुए किशोरी के माता-पिता ने भी उसे अपनाने से इंकार कर दिया. इस मामले में जेजेबी के प्रधान दंडाधिकारी मानवेंद्र मिश्रा तथा बोर्ड के सदस्य धर्मेंद्र कुमार व ऊषा कुमारी ने सभी अभिलेखों का अध्ययन किया.
बीते शुक्रवार को जेजेबी ने नाबालिग दंपति व उनके परिजनों की मौजूदगी में घंटों की गई सुनवाई के बाद अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया. लड़की अपनी चार माह की बच्ची के साथ पेश हुई थी. उसने रो-रोकर कोर्ट को बताया कि उसके मां-बाप उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं और अगर उसके पति को सजा दी जाती है, तो उसकी तथा उसकी बच्ची की जान संकट में पड़ जाएगी. लड़की ने ऑनर किलिंग का अंदेशा भी जताया. वर्तमान में लडके की उम्र 19 व लड़की की 18 साल है.
"लव जिहाद" पर राज्यों में सख्त से सख्त कानून बनाने की होड़!
अंतरधार्मिक शादियों के खिलाफ बीजेपी शासित राज्य सख्त से सख्त कानून बना रही हैं. उनका कहना है कि लड़की पर जबरन दबाव डालकर शादी कर ली जाती है और फिर उसका धर्म परिवर्तन करा दिया जाता है.
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"लव जिहाद" क्या वाकई होता है?
4 फरवरी 2020 को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने लोकसभा को बताया कि "लव जिहाद" शब्द मौजूदा कानूनों के तहत परिभाषित नहीं है. साथ ही उन्होंने संसद को बताया कि इससे जुड़ा कोई भी मामला केंद्रीय एजेंसियों के संज्ञान में नहीं आया. रेड्डी ने कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 25 किसी भी धर्म को स्वीकारने, उसका पालन करने और उसका प्रचार-प्रसार करने की आजादी देता है.
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बीजेपी के एजेंडे पर "लव जिहाद"!
भले ही केंद्र सरकार कहे कि "लव जिहाद" कानून में परिभाषित नहीं है लेकिन बीजेपी के नेताओं, मंत्रियों और सरकारों ने अंतरधार्मिक प्रेम और शादियों के खिलाफ पिछले कुछ समय में कड़ा रुख अपनाया है. नेता बयान दे रहे हैं और उन पर समाज में नफरत का माहौल बनाने के आरोप लग रहे हैं. वहीं बीजेपी शासित राज्य सरकारें जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ सख्त कानून बना रही हैं.
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यूपी में कितना सख्त है कानून?
यूपी में धर्मांतरण रोधी कानून को लागू हुए एक महीना पूरा हो चुका है. 27 नवंबर 2020 को राज्यपाल ने "विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020" को मंजूरी दी थी जिसके बाद यह कानून बन गया. इस कानून में कड़े प्रावधान बनाए गए हैं. धर्म परिवर्तन के साथ अंतरधार्मिक शादी करने वाले को साबित करना होगा कि उसने इस कानून को नहीं तोड़ा है, लड़की का धर्म बदलकर की गई शादी को शादी नहीं माना जाएगा.
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यूपी में एक महीने में क्या हुआ?
यूपी में धर्मांतरण रोधी कानून को लागू होने के एक महीने के भीतर पुलिस ने प्रदेश में इसके तहत 14 मामले दर्ज किए. पुलिस ने 51 लोगों को गिरफ्तार किया जिनमें 49 लोग जेल में बंद किए गए. इन मामलों में 13 मामले कथित तौर पर हिंदू महिलाओं से जुड़े हैं और आरोप लगाया कि उन पर इस्लाम कबूल करने का दबाव बनाया गया. सिर्फ दो ही मामले में महिला खुद शिकायतकर्ता है.
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हाईकोर्ट का सहारा
यूपी में लागू कानून के आलोचकों का कहना है कि यह व्यक्तिगत आजादी, निजता और मानवीय गरिमा जैसे मौलिक अधिकारों का हनन है. इस कानून को चुनौती देने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई है. इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक विवाह वाले युवक युवती को साथ रहने की इजाजत दी थी. हाईकोर्ट ने कहा था, "महिला अपने पति के साथ रहना चाहती है और वह किसी भी तीसरे पक्ष के दखल के बिना रहने को आजाद है."
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मध्य प्रदेश में भी "लव जिहाद"?
मध्य प्रदेश की कैबिनेट ने मंगलवार 29 दिसंबर 2020 को "धर्म स्वातंत्र्य अध्यादेश 2020" को मंजूरी दी है. प्रदेश में जो कानून बनने जा रहा है उसके मुताबिक जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कर शादी करने वालों को अधिकतम 10 साल की सजा और एक लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान किया जाएगा.
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किस राज्य का कानून ज्यादा सख्त?
अध्यादेश के मुताबिक मध्य प्रदेश में प्रलोभन, धमकी, शादी या किसी अन्य कपट पूर्ण तरीके द्वारा धर्म परिवर्तन कराने वाले या फिर उसकी कोशिश या साजिश करने वाले को पांच साल के कारावास के दंड और 25,000 रुपये से कम जुर्माना नहीं होगा. वहीं यूपी ने इसके लिए 15,000 के जुर्माने का प्रावधान रखा है लेकिन वहां भी सजा का प्रावधान अधिकतम पांच साल तक है.
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हिमाचल प्रदेश
प्रदेश में 2007 से ही जबरन या फिर छल-कपट से धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून लागू है. कुछ दिनों पहले धर्मांतरण विरोधी कानून लागू किया गया था. इसके तहत किसी भी शख्स को धर्म परिवर्तन करने से पहले प्रशासन को इसकी सूचना देनी होगी. ऐसा ही कानून जब 2012 में कांग्रेस की सरकार लेकर आई थी तब हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक और मौलिक अधिकारों के हनन वाला बताया था.
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हर अपराध के लिए सजा देना न्याय नहीं
प्रधान दंडाधिकारी मानवेंद्र मिश्रा ने अपने फैसले में सुबूत रहते हुए भी नाबालिग बालिका को भगाकर शादी करने तथा शारीरिक संबंध बनाने के आरोप से किशोर को बरी करते हुए दोनों को साथ रहने का आदेश दिया. उन्होंने अपने फैसले में यह भी कहा कि इस जजमेंट को नजीर बनाकर कोई अन्य पक्षकार खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास नहीं कर सकेगा.
किशोर के माता-पिता को भी आदेश दिया गया कि वे दंपती के वयस्क होने तक उनकी तथा उनकी बच्ची की देखभाल व सुरक्षा करेंगे. कोर्ट ने स्थानीय बाल संरक्षण पदाधिकारी को भी किशोर, उसकी नाबालिग पत्नी व बच्चे की सतत निगरानी का निर्देश देते हुए कहा कि वे दो वर्ष तक प्रत्येक छह माह में उनके हालात की विस्तृत रिपोर्ट किशोर न्याय परिषद को देंगे.
फैसला सुनाते हुए प्रधान दंडाधिकारी ने कहा कि हर अपराध के लिए सजा देना न्याय नहीं है. यह बात सही है कि किशोर नाबालिग लड़की को भगा कर ले गया और उससे अवैध संबंध बनाया जिससे बच्ची पैदा हुई. यह वास्तव में अपराध है, किंतु अब जब बच्ची जन्म ले चुकी है और उसकी मां यानी नाबालिग लड़की को उसके मां-बाप अपनाने को तैयार नहीं हैं, तो ऐसे में आरोपित किशोर को दंडित कर तीन नाबालिगों की जान खतरे में नहीं डाली जा सकती है. ऐसे में तीन जिंदगियां बर्बाद हो जाएंगी. उन्होंने कहा, लड़का पत्नी व बच्चे को स्वीकार करते हुए उनकी देखभाल कर रहा है और आगे भी उनकी देखभाल करने का वचन कोर्ट को दिया है, ऐसे में यहां पर न्याय के साथ तीन लोगों का हित भी देखना जरूरी है.
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तीन जिंदगियों का था सवाल
किशोर न्याय परिषद के इस ऐतिहासिक फैसले को कानून के जरिए अलग-अलग नजरिए से देख रहे हैं. अधिवक्ता रोहित शेखर कहते हैं, ‘‘अगर नाबालिग दंपति को सजा दे दी जाती तो एक शिशु का जीवन तो प्रभावित होता ही, साथ ही तीन लोगों की जिंदगी भी प्रभावित हो जाती. अदालत की आशंका जायज थी कि लड़की की ऑनर किलिंग हो सकती थी और इससे बच्ची का जीवन भी संकट में पड़ सकता था. आखिर नाबालिग मां-बाप के गुनाहों की सजा चार माह की मासूम क्यों भुगते.''
वहीं अधिवक्ता राजेश सिंह इस फैसले से इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘‘यह सही है कि बच्ची के वेलफेयर को देखते हुए यह फैसला दिया गया है. ऑनर किलिंग की आशंका भी जायज है लेकिन जिस समय लड़की ने बयान दिया उस समय वह नाबालिग थी इसलिए उसके बयान का कोई मायने नहीं था. इस तरह से अगर फैसला दिया जाएगा, जिसके लिए 366-ए के तहत सजा का प्रावधान है, तो ऐसे कृत्यों को एक हद तक बढ़ावा ही मिलेगा. इसलिए ऐसे फैसले से बचना चाहिए था. सामाजिक नजरिए से यह फैसला जायज नहीं है. इसके लिए दूसरा तरीका भी अपनाया जा सकता था.''
गर्भपात को ले कर दुनिया में कहां क्या है कानून?
भारत में महिलाएं यह कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि "अनचाही" प्रेग्नेंसी से पीछा छुड़ाना चाहें और डॉक्टर कहे कि आपको बच्चा पैदा करना ही होगा क्योंकि गर्भपात का आपको कोई अधिकार नहीं. लेकिन बहुत से देशों में ऐसा होता है.
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पूरी तरह वर्जित
दुनिया में 26 देश ऐसे हैं जहां किसी भी हाल में गर्भपात की अनुमति नहीं है, फिर चाहे मां या बच्चे की जान पर ही खतरा क्यों ना हो. यानी यहां गर्भवती होने के बाद महिला का अपने शरीर पर कोई हक ही नहीं रह जाता. दुनिया की कुल पांच फीसदी यानी नौ करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं. इनमें इराक, मिस्र, सूरीनाम और फिलीपींस शामिल हैं.
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महिला को बचाने के लिए
ऐसे 39 देश हैं जहां गर्भपात केवल उसी हालत में किया जा सकता है जब गर्भवती महिला की जान को खतरा हो. ऐसे में गर्भपात का फैसला सिर्फ डॉक्टर ही ले सकते हैं, महिला खुद नहीं. दुनिया की 22 फीसदी यानी 35 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं. इनमें ब्राजील, मेक्सिको, ईरान, अफगानिस्तान और यूएई शामिल हैं.
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स्वास्थ्य से जुड़े कारणों से
56 देशों के कानून महिलाओं को गर्भपात की इजाजत देते हैं अगर वे साबित कर सकें कि गर्भावस्था उनकी सेहत के लिए बुरी है. इनमें 25 देश मानसिक स्वास्थ्य को भी अहमियत देते हैं. दुनिया की 14 फीसदी यानी 24 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं. इनमें पोलैंड, पाकिस्तान, सऊदी अरब और थाईलैंड शामिल हैं.
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आर्थिक या सामाजिक कारणों से
मात्र 14 देश ऐसे हैं जो महिला को अपनी स्थिति के अनुसार तय करने का अधिकार देते हैं कि वह बच्चे को जन्म देना चाहती है या नहीं. दुनिया की 23 फीसदी यानी 38 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं. इनमें भारत, ब्रिटेन, फिनलैंड और जापान शामिल हैं. अधिकतर मामलों में यहां वजह सिर्फ औपचारिकता पूरी करने के लिए ही पूछी जाती है.
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पहले 12 हफ्तों में
कुल 67 देशों में गर्भपात के लिए कोई वजह नहीं बतानी पड़ती. लेकिन बच्चे और मां के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए यहां गर्भपात के वक्त को सीमित किया गया है. अधिकतर मामलों में पहले तीन महीनों के अंदर ही गर्भपात की अनुमति दी जाती है. इसके बाद भ्रूण का विकास तेजी से होने लगता है. दुनिया की 36 फीसदी यानी 59 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं. इनमें अमेरिका, कनाडा, चीन और रूस शामिल हैं.
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अपने हक के लिए प्रदर्शन
पोलैंड में सरकार गर्भपात से जुड़े नियमों को और सख्त कर रही है. केवल बलात्कार, इनसेस्ट या फिर मां की जान को खतरे की हालत में ही इसकी इजाजत दी जाएगी. देश में महिलाएं इन नए नियमों के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन कर रही हैं. वहीं प्रधानमंत्री माटेउस मोरावीस्की का कहना है कि कोरोना काल में प्रदशन कर वे अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डाल रही हैं.
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परिस्थितियों के मद्देनजर पहले भी सुनाया है फैसला
ऐसा नहीं है कि किशोर न्याय परिषद के प्रधान दंडाधिकारी मानवेंद्र मिश्र ने पहली बार लीक से हटकर फैसला सुनाया है. पिछले साल ही उन्होंने बिहारशरीफ के इस्लामपुर थाने के कांड संख्या 122/20 व जेजेबी 146/20 मामले में ऐसा फैसला सुनाया था, जो मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ पूरी व्यवस्था को झकझोरने के लिए पर्याप्त थी.
इस मामले में उन्होंने चोरी के आरोपित किशोर को न केवल बरी कर दिया, बल्कि उसकी विपन्नता को देखते हुए स्थानीय प्रशासन को उसके परिवार को तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ मुहैया कराने का निर्देश भी पारित किया. दरअसल, इस मामले में 16 वर्षीय एक दिव्यांग किशोर पर एक कपड़े की दुकान में एक महिला का पर्स चुराने का आरोप लगाया गया था. पकड़े जाने पर उसने कुबूल किया कि पर्स उसने ही चुराया था लेकिन उसमें कुछ नहीं मिलने पर पर्स को कहीं फेंक दिया था.
कोर्ट में पेश किए जाने पर उसने बताया कि उसके पिता की कई साल पहले मौत हो गई थी. इस सदमे में उसकी मां की मानसिक स्थिति बिगड़ गई. उसका एक छोटा भाई भी है. इन सभी की जिम्मेदारी उसके कंधों पर ही है. ऐसी स्थिति में अभावग्रस्त होने के कारण उसने लाचार होकर चोरी की. अनुसंधान के दौरान जेजेबी के निर्देश पर उसकी सोशल बैकग्राउंड रिपोर्ट (सीबीआर) की जांच करने टीम जब उसके घर पहुंची, तो उसके घर की हालत देख चौंक गई.
उसकी मां के तन पर इतने कपड़े भी नहीं थे कि उसकी एक फोटो ली जा सकती. कपड़े के नाम पर आधी फटी हुई साड़ी थी. उसे न तो विधवा पेंशन मिलता था और न ही किसी अन्य योजनाओं का लाभ. बिना दरवाजे का फूस का घर और बर्तन के नाम पर मात्र एक पतीला था. जज मिश्रा ने स्थानीय बीडीओ को उक्त किशोर को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने का निर्देश देते हुए उसे खाद्य सामग्री, वस्त्र व उसकी मां के लिए साड़ी भी दी.
इसी तरह नूरसराय थाने में एक छह वर्षीया बच्ची के साथ दुष्कर्म और अप्राकृतिक यौनाचार का मामला सामने आया था जिसमें महज नौ तिथियों पर सुनवाई के बाद फैसला देकर उन्होंने त्वरित न्याय देने की नजीर पेश की. इससे पहले मध्यप्रदेश के कटनी में किसी मामले में सात तिथियों पर सुनवाई कर फैसला दिया गया था.
50 रुपये जुर्माने वाला भारतीय कानून
भारत में जानवरों के प्रति क्रूरता को रोकने के लिए बने कानून के प्रावधानों को और कड़ा बनाने की मांग उठ रही है. जानिए कितना पुराना है ये कानून और क्या कमियां हैं इसमें.
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60 साल पुराना कानून
जानवरों के प्रति क्रूरता रोकथाम अधिनियम 1960 में बना था. तब से अभी तक इसके दंड संबंधी प्रावधानों में कोई संशोधन नहीं किया गया है.
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बढ़ती क्रूरता
जानवरों के प्रति क्रूरता के मामले चिंताजनक रूप से बढ़ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में दायर हुई एक याचिका के अनुसार सिर्फ 2012 से 2015 के बीच देश में 24,000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे. बड़ी संख्या में मामले दर्ज ही नहीं होते.
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50 रुपये जुर्माना
1960 के इस इस कानून के तहत पहली बार जानवरों के प्रति क्रूरता के दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति के लिए न्यूनतम 10 रुपये से लेकर अधिकतम 50 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है.
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तीन महीने की जेल
अगर व्यक्ति पहले अपराध के तीन साल के अंदर फिर से क्रूरता का दोषी पाया जाता है तो उसके लिए न्यूनतम 25 रुपये और अधिकतम 100 रुपये जुर्माने का प्रावधान है. बार बार अपराध के दोषी पाए जाने पर तीन महीने तक की जेल भी हो सकती है.
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संशोधन लंबित
पशु कल्याण बोर्ड 2011 में एक पशु कल्याण अधिनियम लेकर आया था, जिसमें पशुओं के प्रति क्रूरता कीे रोकथाम के लिए कड़े प्रावधान लाए गए थे. 2014 में बोर्ड एक और नया मसौदा लेकर आया, लेकिन ये संसद से अभी तक पारित नहीं हुआ है.
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राज्यों में कानून
2017 में महाराष्ट्र और कर्नाटक ने सिर्फ जल्लिकट्ट कराने के लिए और उससे संबंधित अपराध रोकने के लिए 1960 के कानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन किए. लेकिन इनमें और किसी भी मामले में सजा के प्रावधानों को और कड़ा नहीं किया गया.
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दुनिया में सबसे पीछे
पशु संरक्षण सूचकांक 2020 में भारत को सबसे नीचे की श्रेणी वाले देशों में "सी" दर्जा मिला हुआ है. यह सूचकांक 20 देशों को उनके पशु कल्याण कानून और नीतियों के अनुसार रैंक करता है.
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50 रुपए जुर्माना
1960 के इस इस कानून के तहत पहली बार जानवरों के प्रति क्रूरता के दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति के लिए न्यूनतम 10 रुपए से लेकर अधिकतम 50 रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है.
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यातना गृह से कम नहीं रिमांड होम
दरअसल, नाबालिगों के मामले में अधिकतर अपराधों की जननी आवेश या गरीबी ही होती है. पत्रकार रवि शेखर कहते हैं, ‘‘सवाल यह है कि ऐसे गरीब परिवारों तक केंद्र या राज्य सरकार की योजनाएं क्यों नहीं पहुंच पातीं हैं. यह देखना जरूरी है कि ऐसे लोग किसी साजिश का तो शिकार होकर सरकारी सुविधाओं से वंचित नहीं हो जाते हैं.''
वहीं रिमांड होम या महिला आवास गृहों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है. सभी भली-भांति जानते हैं कि वहां सुधार की बजाय आपराधिक प्रवृति के विकसित होने की गुंजाइश ही अधिक है. शायद इसलिए भावावेश या फिर मजबूरी में किए गए अपराध के लिए उन्हें सजा देकर वहां भेजना समस्या का समाधान नहीं है. वैसे भी इन केंद्रों की स्थिति गाहे-बगाहे समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती ही रहती हैं.
मुजफ्फरपुर बालिका गृह में हो रहे कुकृत्य ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था जहां रह रही 42 बच्चियों में 34 से बलात्कार किया गया था. हाल ही में सीबीआई ने भागलपुर के रेशमनगर मोहल्ले में चल रहे बाल सुधार गृह में यौन शोषण व यातना के मामले में जो सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की है, वह किसी का भी दिल दहला देने को काफी है.
पूछताछ में रिमांड होम में रह रहे एक बच्चे ने सीबीआई को बताया था कि एक बार उसका हाथ कट गया तो वहां की संचालिका रूपम मैडम ने कटने की जगह पर दूसरे बच्चों से नमक-मिर्च लगवा दिया. वहां वार्डेन के रूप में रह रहा प्रवेश दास नाम का व्यक्ति चार बच्चों के साथ रात में अप्राकृतिक यौनाचार करता था और जो उसकी बात नहीं मानता था उससे वह थूक चटवाता था. देवचंद्र सिंह नाम का एक व्यक्ति तो गुस्सा होने पर बच्चों की जांघ पर खड़ा हो जाता था. खाना मांगने पर रूपम द्वारा बच्चों को पीटा जाना तो आम बात थी.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस की रिपोर्ट के बाद प्राथमिकी दर्ज होने पर छह अगस्त 2018 को इस रिमांड होम के संचालन का एग्रीमेंट राज्य सरकार ने रद कर दिया था. वहीं सीबीआई की जांच अभी जारी है. शायद इन्हीं वजहों से ऐसे फैसले सामने आते हैं जिनमें अपराध के बिंदु से अलग हटकर सामाजिक या मानवीय पहलू को तवज्जो दी जाती है.
दुनियाभर में लाखों बच्चे बाल मजदूरी करते हैं. भारत में भी 44 लाख बच्चे काम करते हैं. हालांकि बच्चों से काम कराना कानूनी तौर पर प्रतिबंधित हैं. एक नजर डालते हैं, भारत में बाल मजदूरी पर.
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खेत में काम
कृषि क्षेत्र में बच्चे अपने मजदूर माता-पिता की मदद के लिए काम करते हैं. जितनी देर माता-पिता मेहनत करते हैं उतनी ही देर बच्चे भी काम करते हैं.
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फैक्ट्री में काम
कई बार मजबूरी में माता-पिता अपने बच्चों को काम पर भेज देते हैं. बच्चों से फैक्ट्रियों में जोखिम भरा काम भी लिया जाता है. हालांकि कानूनी सख्ती के बाद यह चलन अब आम नहीं है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A.Abdullah
पत्थर तोड़ने का काम
मां-बाप का हाथ बंटाने के लिए बच्चे पत्थर तोड़ने का काम करते हैं. यह काम बहुत मेहनत भरा होता है और इसमें शारीरिक थकावट भी होती है. छोटे बच्चो द्वारा यह काम कराना भी गैर कानूनी है.
तस्वीर: terre de hommes/N. Singh Chhikara
कार वर्कशॉप में
अगली बार आप किसी कार वर्कशॉप में जाएं तो इस बात का ध्यान रखिएगा कहीं मैकेनिक किसी बच्चे से काम तो नहीं करा रहा है. भारत में कम उम्र से ही बच्चों को स्कूटर और कार की मरम्मत का काम सिखाया जाने लगता है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Mao
रेलवे स्टेशन पर कचरा इकट्ठा करना
ट्रेन से यात्रा के दौरान आपने कई बार यह देखा होगा कि स्टेशन आते ही बच्चे कचरा उठाने ट्रेन के भीतर आ जाते हैं. यह भी काम बच्चों से जबरन कराया जाता है. कई बार ऐसी जगहों पर रहने वाले बच्चों का यौन शोषण भी होता है.
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/A. Nath
सिगरेट और गुटखा बेचते बच्चे
सड़क के किनारे कम उम्र के बच्चे सिगरेट और गुटखा बेचते दिखना भी आम बात है. शिक्षा पाने की जगह उनसे इस तरह के काम कराए जाते हैं. जब तक उन्हें यह बात समझ में आती है उनका बचपना निकल जाता है.
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कूड़ा बीनना
कूड़ा बीनने के लिए भी बच्चों का इस्तेमाल होता है. रिसाइक्लिंग की चीजों को कूड़े की ढेर से अलग करने के लिए बच्चों को काम पर लगाया जाता है. यह काम बेहद खतरनाक होता है क्योंकि कई बार कूड़े की ढेर में कई तरह के केमिकल होते हैं.
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फल बेचना
बच्चों को फल और सब्जी बेचने के काम के लिए भी लगाया जाता है. अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन का अनुमान है कि भारत में 5 से लेकर 14 साल की उम्र के करीब 44 लाख बाल मजदूर हैं. दुनिया भर में 15 करोड़ बच्चे मजदूरी करने को मजबूर हैं.