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जमीन पर मौजूद ओजोन घोंट रही है दम

चेतना कृष्णा
२५ फ़रवरी २०२०

वायुमंडल में ओजोन परत के पतला होने की चिंता तो सबको है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह ओजोन जब धरती पर आती है तो कितनी खतरनाक बन जाती है.

England: Umweltbelastung und Luftverschmutzung in London
तस्वीर: Getty Images/AFP/C. de Souza

वर्ष 2005 में भारत में 60 लाख टन गेहूं, चावल, सोयाबीन और कपास की फसलों का नुकसान हुआ था. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर ने हाल ही के शोध में पाया कि 2012 से 2013 के बीच 90 लाख टन गेहूं और 26 लाख चावल की फसलें नष्ट हुई थी. नॉर्वे और अन्य देशों के शोधकर्ता भी खेतों के बढ़ते इस नुकसान की वजह जानने की कोशिश कर रहे हैं.  इन सभी शोधों में फसलों को हुए नुकसान एक वजह सामने आई: जमीनी स्तर पर ओजोन.

ओजोन ऑक्सीजन तीन अणुओं से बनता है. जहां ऑक्सीजन के दो अणु ज्यादा स्थिर होते हैं और जीवन के अस्तित्व के लिए जरूरी हैं, वहीं ऑक्सीजन के तीन अणु जमीन पर जमा होकर इंसानों और पौधों की सांस घोंट सकते है.

यह ओजोन जमीन पर तब जमा होती है जब वाहनों, बिजली संयंत्र, रिफाइनरियों और अन्य स्रोतों से हुआ प्रदूषण सूर्य के प्रकाश के साथ मिलकर हानिकारक गैस बन जाता है. दिल्ली में सर्दियों के दौरान स्मॉग ऐसे ही बनता है. ओजोन ही स्मॉग का प्रमुख कारण है. वायु की गुणवत्ता संबंधी स्पष्ट नियमों की कमी के कारण ओजोन का स्तर जमीन पर बढ़ रहा है जो भारत के कई प्रदेशों के लिए समस्या बन रहा है.

तस्वीर: imago/Science Photo Library

ओजोन का असर

जब हवा में घुली ओजोन मनुष्यों के फेफड़ों में जाती है तो यह फेफड़ों के छोटे छेद यानी अल्वेलोइ को बंद करने की कोशिश करती है. ऐसे में, खांसी और छाती में दर्द की शिकायत हो सकती है. गंभीर मामलों में फेफड़े काम करना भी बंद कर सकते हैं.

पत्तियों में भी ओजोन कुछ ऐसा ही असर दिखाती है. पौधे स्टोमेटा नाम के जिन छेदों से फोटोसिंथेसिस करते है, उन्हें ओजोन बंद कर देती है. ओस्लो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ऐन वॉल्सनेस और फ्रॉड स्टोर्डल ने भी इस पर काम किया है. वॉल्सनेस का कहना है कि ओजोन के प्रभाव की तुलना अन्य कारक जैसे पौधों में कीट और रोग, गर्मी और सूखापन से भी की जाती है. उन्होंने बताया कि 2014 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हुए शोध में पाया गया कि भारत में फसलों के नुकसान का प्रमुख कारण जमीन पर मौजूद ओजोन है.

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इस प्रभाव को समझने के लिए वाईसीएस स्कोर को जानना होगा. इस स्कोर में जीवित और मृत कारकों को ध्यान में रखते हुए उपज पर हुए प्रभाव को मापा जाता है. यह स्कोर 2 से 4 के बीच निकाला जाता है जहां 4 उच्चतम स्तर है. जितना ज्यादा स्कोर होगा, उतना ही ज्यादा फसल प्रभावित हुई है.

इस शोध में पता चला कि केवल ओजोन का वाईसीएस स्कोर बाकी कारकों से काफी अधिक है. दुनिया में ओजोन का सबसे अधिक वाईसीएस स्कोर पश्चिमोत्तर भारत, पाकिस्तान और दक्षिण अमेरिका के क्षेत्रों में पाया गया है.

भारत और बाकी देशों में क्या है नियम

2017 में जर्मनी के स्प्रिंगर प्रकाशन में छपे शोध के लेखक और आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर श्याम लाल गुप्ता ने कहा कि भारत में ओजोन से संबंधित कोई ठोस नीति नहीं हैं हालांकि अलग सरकारी शाखाएं वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही हैं.

ओस्लो के शोधकर्ताओं का कहना है कि जमीनी स्तर पर ओजोन का असर भारत और चीन जैसे देशों पर सबसे ज्यादा होगा, जहां बढ़ती जनसंख्या के साथ भोजन की भी जरूरत बढ़ रही है. नॉर्वे और आर्कटिक में भी जमीन पर ओजोन की समस्या गंभीर है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां गर्मियों के महीनों में 24 घंटे दिन होता है.

शिपिंग और वितरण से काफी वाष्प जमा हो जाती है. अभी तक जितने शोध हुए हैं, उनमें पहली बार किसी ने यह पता लगाया है कि कैसे दिन लंबे होने से जमीन पर ओजोन पौधों को प्रभावित करती है. शोधकर्ता स्टोर्डल और वॉल्सनेस ने क्लोवर नाम की घास को अलग अलग समय में तीन बार छह घंटे के लिए ओजोन में रखा. इसके प्रभाव से घास पर काले धब्बे दिखने लगे. यह तब देखा गया है जब घास को रोज कम से कम दस घंटे से अधिक सूरज की रोशनी में रखा गया.

नॉर्वे में ओजोन हाल के सालों में 150 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के करीब पहुंच गई है. नॉर्वे के प्रदूषण नियमों के मुताबिक इंसान 180 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक प्रदूषण सहन कर सकता है हालांकि दुनिया में वायुमंडल पर ओजोन परत के क्षय होने पर तो कई कानून मौजूद हैं लेकिन सतह पर मौजूद ओजोन पर कोई विशेष कानून नहीं है. इसकी तुलना बाकी के वायु प्रदूषण से की जाती है.

ओस्लो में क्लोवर घास पर हुए प्रयोग में ओजोन का खतरनाक प्रभाव देखा गया. ऐसा प्रभाव हम मानव शरीर पर नहीं देखना चाहेंगे. आने वाले समय में इस अदृश्य प्रदूषण को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा क्योंकि यह इंसान और पर्यावरण के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है.

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