वायुमंडल में ओजोन परत के पतला होने की चिंता तो सबको है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह ओजोन जब धरती पर आती है तो कितनी खतरनाक बन जाती है.
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वर्ष 2005 में भारत में 60 लाख टन गेहूं, चावल, सोयाबीन और कपास की फसलों का नुकसान हुआ था. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर ने हाल ही के शोध में पाया कि 2012 से 2013 के बीच 90 लाख टन गेहूं और 26 लाख चावल की फसलें नष्ट हुई थी. नॉर्वे और अन्य देशों के शोधकर्ता भी खेतों के बढ़ते इस नुकसान की वजह जानने की कोशिश कर रहे हैं. इन सभी शोधों में फसलों को हुए नुकसान एक वजह सामने आई: जमीनी स्तर पर ओजोन.
ओजोन ऑक्सीजन तीन अणुओं से बनता है. जहां ऑक्सीजन के दो अणु ज्यादा स्थिर होते हैं और जीवन के अस्तित्व के लिए जरूरी हैं, वहीं ऑक्सीजन के तीन अणु जमीन पर जमा होकर इंसानों और पौधों की सांस घोंट सकते है.
यह ओजोन जमीन पर तब जमा होती है जब वाहनों, बिजली संयंत्र, रिफाइनरियों और अन्य स्रोतों से हुआ प्रदूषण सूर्य के प्रकाश के साथ मिलकर हानिकारक गैस बन जाता है. दिल्ली में सर्दियों के दौरान स्मॉग ऐसे ही बनता है. ओजोन ही स्मॉग का प्रमुख कारण है. वायु की गुणवत्ता संबंधी स्पष्ट नियमों की कमी के कारण ओजोन का स्तर जमीन पर बढ़ रहा है जो भारत के कई प्रदेशों के लिए समस्या बन रहा है.
ओजोन का असर
जब हवा में घुली ओजोन मनुष्यों के फेफड़ों में जाती है तो यह फेफड़ों के छोटे छेद यानी अल्वेलोइ को बंद करने की कोशिश करती है. ऐसे में, खांसी और छाती में दर्द की शिकायत हो सकती है. गंभीर मामलों में फेफड़े काम करना भी बंद कर सकते हैं.
पत्तियों में भी ओजोन कुछ ऐसा ही असर दिखाती है. पौधे स्टोमेटा नाम के जिन छेदों से फोटोसिंथेसिस करते है, उन्हें ओजोन बंद कर देती है. ओस्लो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ऐन वॉल्सनेस और फ्रॉड स्टोर्डल ने भी इस पर काम किया है. वॉल्सनेस का कहना है कि ओजोन के प्रभाव की तुलना अन्य कारक जैसे पौधों में कीट और रोग, गर्मी और सूखापन से भी की जाती है. उन्होंने बताया कि 2014 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हुए शोध में पाया गया कि भारत में फसलों के नुकसान का प्रमुख कारण जमीन पर मौजूद ओजोन है.
अंतरिक्ष में सूरज जैसे अरबों तारे हैं. लेकिन यदि सूरज न होता तो धरती पर जीवन संभव नहीं था. सूरज सैकड़ों सालों से रिसर्चरों को आकर्षित और रोमांचित कर रहा है. आइये जानें इसके बारे में कुछ खास तथ्य.
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आग का प्राचीन गोला
हमारा सूरज अरबों सालों से चमक रहा है, इंसान के अस्तित्व में आने से पहले से. उसका विकास 4.6 अरब साल पहले गैस के बादलों से हुआ. और अंदाजा है कि वह कम से कम 5 अरब सालों तक चमकता रहेगा, जब तक उसकी ऊर्जा का भंडार खत्म न हो जाए.
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रिसर्चरों के लिए आदर्श
सूरज दरअसल एक बड़ा परमाणु रिएक्टर है. उसके सत्व में तापमान और दबाव इतना ज्यादा है कि हाइड्रोजन परमाणु मिलकर हीलियम परमाणु बन जाते हैं. इस प्रक्रिया में बहुत सारी ऊर्जा पैदा होती है. सूरज के मैटीरियल की एक चुटकी इतनी ऊर्जा पैदा करती है जितना पाने के लिए हजारों मीट्रिक टन कोयला जलाना होगा.
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पृथ्वी का सौ गुना
धरती से देखने पर सूरज बहुत बड़ा नहीं लगता. वह आकाश में चमकदार स्पॉट की तरह दिखता है. लेकिन असल में उसका घेरा 700,000 किलोमीटर और उसके गर्भ का तापमान 1.5 करोड़ डिग्री सेल्सियस है. बाहर की आखिरी सतह पर भी उसका तापमान 5,500 डिग्री सेल्सियस रहता है.
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अरबों में एक
हमारे ब्रह्मांड में सितारे इसलिए चमकते हैं क्योंकि वे अपने गर्भ में ऊर्जा पैदा करते हैं. सूरज भी दूसरे अरबों सितारों की ही तरह है. दूसरे सितारों की तुलना में सूरज मध्यम आकार का है. कुछ तारे उससे भी 100 गुणा बड़े हैं तो कुछ उसके आकार का केवल एक दहाई.
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बाहर से अशांत
सूरज की बाहरी सतह खौलती उबलती दिखती है. गर्म और चमकदार तरल सूरज के अंदर से बाहर निकलता है, ठंडा होता जाता है और फिर से अंदर की ओर चला जाता है. सूरज धरती के इतना करीब है कि खगोलशास्त्री इस प्रक्रिया को विस्तार से देख सकते हैं.
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अद्भुत धब्बे
कभी कभी सूरज की सतह पर बड़े बड़े काले धब्बे दिखने लगते हैं और करीब महीने भर रहते हैं. ईसा के जन्म से भी पहले इंसान को इन धब्बों के बारे में पता था. काफी समय तक लोग इसके बारे में चकित रहते थे लेकिन अब पता है कि ये धब्बे तीव्र चुम्बकीय क्षेत्र के कारण दिखते हैं.
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खतरनाक तूफान
जब सूरज अत्यंत सक्रिय होता है तो भूचुम्बकीय तूफान पैदा हो जाते हैं. और सूरज बड़ी मात्रा में आवेशित अणुओं को अंतरिक्ष में फेंक देता है. ये अणु उपग्रहों से टकरा सकते हैं और उन्हें नष्ट कर सकते हैं. वे पृथ्वी पर बिजली के सब स्टेशनों के काम में भी बाधा डाल सकते हैं.
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चमकता आकाश
भूचुम्बकीय तूफानों का ही एक असर पोलर लाइट भी है. अरुणोदय की चमक. ये तब दिखता है जब आवेशित अणु धरती के वातावरण से टकराते हैं. ऐसा कितनी बार होगा यह सौर चक्र पर निर्भर करता है. ग्यारह साल में एक बार सूरज खास तौर पर सक्रिय होता है.
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यादगार पल
इसका ध्यान रखना चाहिए कि सूर्यग्रहण भले ही यादगार पल होते हैं लेकिन उन्हें कभी खुली आंखों से नहीं देखना चाहिए. चांद आंशिक रूप से सूरज को ढक ले, तब भी सूरज बहुत चमकीला होता है. आंखों को सूरज की किरणों से नहीं बचाया तो उन्हें नुकसान पहुंच सकता है.
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इस प्रभाव को समझने के लिए वाईसीएस स्कोर को जानना होगा. इस स्कोर में जीवित और मृत कारकों को ध्यान में रखते हुए उपज पर हुए प्रभाव को मापा जाता है. यह स्कोर 2 से 4 के बीच निकाला जाता है जहां 4 उच्चतम स्तर है. जितना ज्यादा स्कोर होगा, उतना ही ज्यादा फसल प्रभावित हुई है.
इस शोध में पता चला कि केवल ओजोन का वाईसीएस स्कोर बाकी कारकों से काफी अधिक है. दुनिया में ओजोन का सबसे अधिक वाईसीएस स्कोर पश्चिमोत्तर भारत, पाकिस्तान और दक्षिण अमेरिका के क्षेत्रों में पाया गया है.
भारत और बाकी देशों में क्या है नियम
2017 में जर्मनी के स्प्रिंगर प्रकाशन में छपे शोध के लेखक और आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर श्याम लाल गुप्ता ने कहा कि भारत में ओजोन से संबंधित कोई ठोस नीति नहीं हैं हालांकि अलग सरकारी शाखाएं वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही हैं.
ओस्लो के शोधकर्ताओं का कहना है कि जमीनी स्तर पर ओजोन का असर भारत और चीन जैसे देशों पर सबसे ज्यादा होगा, जहां बढ़ती जनसंख्या के साथ भोजन की भी जरूरत बढ़ रही है. नॉर्वे और आर्कटिक में भी जमीन पर ओजोन की समस्या गंभीर है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां गर्मियों के महीनों में 24 घंटे दिन होता है.
शिपिंग और वितरण से काफी वाष्प जमा हो जाती है. अभी तक जितने शोध हुए हैं, उनमें पहली बार किसी ने यह पता लगाया है कि कैसे दिन लंबे होने से जमीन पर ओजोन पौधों को प्रभावित करती है. शोधकर्ता स्टोर्डल और वॉल्सनेस ने क्लोवर नाम की घास को अलग अलग समय में तीन बार छह घंटे के लिए ओजोन में रखा. इसके प्रभाव से घास पर काले धब्बे दिखने लगे. यह तब देखा गया है जब घास को रोज कम से कम दस घंटे से अधिक सूरज की रोशनी में रखा गया.
नॉर्वे में ओजोन हाल के सालों में 150 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के करीब पहुंच गई है. नॉर्वे के प्रदूषण नियमों के मुताबिक इंसान 180 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक प्रदूषण सहन कर सकता है हालांकि दुनिया में वायुमंडल पर ओजोन परत के क्षय होने पर तो कई कानून मौजूद हैं लेकिन सतह पर मौजूद ओजोन पर कोई विशेष कानून नहीं है. इसकी तुलना बाकी के वायु प्रदूषण से की जाती है.
ओस्लो में क्लोवर घास पर हुए प्रयोग में ओजोन का खतरनाक प्रभाव देखा गया. ऐसा प्रभाव हम मानव शरीर पर नहीं देखना चाहेंगे. आने वाले समय में इस अदृश्य प्रदूषण को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा क्योंकि यह इंसान और पर्यावरण के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है.
अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत का विशाल छेद धीरे धीरे सिमट रहा है. क्लोरोफ्लोरोकार्बन की मात्रा में भारी कमी से जीवनरक्षक परत सेहतमंद हो रही है.
अच्छे नतीजों का सबूत
अमेरिका के मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों के मुताबिक बीते 16 साल में ओजोन परत काफी सेहतमंद हुई है. ओजोन परत का विशाल छेद भी सिकुड़कर छोटा हुआ है.
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40,00,000 वर्ग किलोमीटर
वैज्ञानिकों का दावा है कि सन 2000 से अब तक ओजोन परत का छेद 40 लाख वर्गकिलोमीटर छोटा हुआ है. वातावरण वैज्ञानिक सुजैन सोलोमोन इसे बड़ा आश्चर्य मान रही हैं. साइंस पत्रिका से उन्होंने कहा, "मैंने नहीं सोचा था कि यह इतनी जल्दी होगा."
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बदलाव का असर
बीते दिनों में क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) जैसे तत्वों की मांग में भारी कमी आई है. तीन दशक पहले तक CFC का इस्तेमाल ड्रायक्लीन, फ्रिज और स्प्रे जैसे प्रोडक्ट्स में खूब होता रहा. 1987 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत ज्यादातर देशों ने CFC पर प्रतिबंध लगा दिया. इसका अच्छा असर अब ओजोन परत पर दिखाई पड़ रहा है.
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चेतावनी के चार दशक
1970 के दशक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि पृथ्वी के ऊपर मौजूद ओजोन परत लगातार पतली होती जा रही है. CFC क्लोरीन गैस में बदलकर ओजोन को रासायनिक रूप से तोड़ रहा है.
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क्या है ओजोन
ऑक्सीजन के तीन अणु मिलकर ओजोन बनाते हैं. ओजोन की परत धरती से 10 किलोमीटर की ऊंचाई पर शुरू हो जाती है और 50 किलोमीटर ऊपर तक मौजूद रहती है और सूर्य की घातक किरणों से धरती की रक्षा करती है.
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जीवनरक्षक ओजोन
ओजोन की परत इंसानों में कैंसर पैदा करने वाली सूरज की पराबैंगनी किरणों को रोकती है. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ओजोन परत इस सदी के मध्य तक ही पूरी तरह ठीक हो सकेगी.