दक्षिण अफ्रीका जबरदस्त सूखे से जूझ रहा है. फल, सब्जियां और अनाज भी विदेशों से मंगाना पड़ रहा है. लेकिन इस बीच छत पर पानी के बेहद किफायती इस्तेमाल से खेती की जाने लगी हैं.
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जोहानेसबर्ग से जुड़ा हुआ इलाका हिलब्रो. ये दक्षिण अफ्रीका के सबसे घनी आबादी वाले इलाकों में से एक है. इमारतें भले ही अलग अलग ऊंचाई की हों, लेकिन एक बात सब में समान है और वो है छत पर बने फार्म.
जैसे कोट्जे स्ट्रीट के ऊपर. कैथरीन खाम्बुले और थांडी एन्गुबेनी की शिफ्ट शुरू हो रही है. ये दो महिलाएं कोट्जे रूफटॉप फूडगार्डन कोऑपरेटिव के पास ही रहती हैं. कैथरीन और थांडी शौकिया तौर पर बागवानी नहीं कर रही हैं. उन्होंने इसकी बाकायदा ट्रेनिंग ली है. अब वे हर हफ्ते 170 किलोग्राम पालक उपजा लेती हैं. कोऑपरेटिव सलाद, जड़ी बूटियां और गोभी भी उगाता है. ये चीजें स्थानीय बाजार और फूड सप्लायर्स खरीदते हैं.
कोऑपरेटिव सदस्य थांडी एन्गुबेनी कहती हैं, "हमें पता नहीं था कि हम छत पर पौधे उगा सकेंगे. ये चीजें असल में इन पाइपों के ऊपर हैं. हम उन्हें पाइप में डाल सकते हैं, फिर वे बढ़ती हैं और पानी रिसाइकिल होकर नीचे आ जाता है."
गार्डन हाइड्रोपॉनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करता है. पौधे बिना मिट्टी के उगाये जाते हैं. खास तत्वों वाला पानी अलग अलग पाइपों से सप्लाई होता है और पौधों का पोषण करता है. इसकी वजह से फसल जल्दी और साल भर तैयार होती रहती है. कैथरीन हर दिन पानी के सही पीएच लेवल और पोषक तत्वों के स्तर को चेक करती हैं.
स्मार्ट शहरों की स्मार्ट हरियाली
अर्बन स्काईफॉर्म का आइडिया 2014 में सामने आया. अब दक्षिण कोरिया में इस पर गंभीरता के काम हो रहा है. भविष्य के शहरों के लिए हरियाली भरा प्रोजेक्ट बन रहा है.
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सीमित जगह
शहरों के विस्तार का असर हरियाली पर पड़ा है. कई जगहों पर पार्क पार्किंग में बदल गए. लेकिन अब सीमित जगह के बेहतर इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. यही वजह है कि अब हरियाली को भी मंजिल दर मंजिल ऊपर उठाने की तैयारी हो रही है.
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स्थानीय स्तर पर उत्पादन
प्रदूषण और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए भविष्य के शहरों को कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा. साथ ही पेड़ पौधों की संख्या भी बढ़ानी होगी. ट्रांसपोर्टेशन की गुंजाइश को कम से कम करना होगा.
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ग्रीन टावर
एप्रिली अर्बन डिजायन स्टूडियो ने दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल के लिए स्काईफॉर्म का कॉन्सेप्ट तैयार किया है. तमान स्काई टावर का बगान शहर के लिए फेफड़ों का काम करेगा.
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प्राकृतिक डियाजन
स्काईफॉर्म का सबसे जरूरी हिस्सा हैं पेड़. प्रकृति की नकल कर डिजायन तैयार करने पर जोर दिया जा रहा है. मसलन पेड़ के आकार का ये गार्डन जगह कम लेगा और मजबूत भी होगा.
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स्वच्छ ऊर्जा
स्काईफॉर्म प्रोजेक्ट में ग्रीन एनर्जी पर जोर है. 3,200 वर्गमीटर में सोलर पैनल लगाए जाएंगे. ग्रीन टावरों पर पवनचक्कियां भी लगाई जाएंगी. इस बिजली का इस्तेमाल हीटिंग और रोशनी के लिए किया जाएगा.
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किफायती संसाधन
स्काईफॉर्म में बारिश के पानी को भी जमा किया जाएगा. उसे साफ किया जाएगा और पीने के ताजा पानी के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा. पानी का बेहतर प्रबंधन कर खेती में उसका इस्तेमाल किया जाएगा.
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सामाजिक स्पेस
स्काईफॉर्म के केंद्र में आम सामाजिक जगह होगी. ग्राउंड फ्लोर पर फूड मार्केट होगा. ऊपरी मंजिलों पर शहर के लोग चाहे तो क्यारियां किराये पर लेकर फल और सब्जियां उगा सकेंगे.
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फ्यूचर सोल्यूशंस
एप्रिली के मुताबिक, "अर्बन स्काईफॉर्म मिनी इकोसिस्टम बनाए जो शहरी समुदाय के लिए संतुलन का काम करेगा." वक्त के साथ डिजायन पुराना पड़ रहा है लेकिन फिलहाल यही सबसे सही विकल्प दिखाई पड़ता है.
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कोऑपरेटिव प्रमुख कैथरीन खाम्बुले सिस्टम की खूबी बताती हैं, "यहां पानी बर्बाद नहीं होता. इस सिस्टम में आप पानी की एक बूंद भी बर्बाद नहीं कर सकते. जो भी पानी आप डालते हैं और अंदर जाता है और फिर वापस आता है. पानी सतह तक नहीं जा सकता. आप बूंद नहीं टपका सकते हैं."
ऐसे वक्त में जब देश में सूखे के चलते कई किसानों की फसल बर्बाद हुई हो. तब पानी की ऐसी बचत वरदान जैसी है. जोहानेसबर्ग में पानी के इस्तेमाल के नियम हैं. फसल, मीट और सब्जियां दूसरे देशों से मंगाई जा रही है. इसके चलते 2016 की तुलना में खाना 10 फीसदी महंगा हो गया है. आने वाले सालों में सूखे के और गंभीर होने की आशंका है. लिहाजा अब छत पर फार्मिंग जैसे उपायों पर ध्यान दिया जा रहा है.
डॉनी फाकग्वायो और थोको एनह्लापो जोहानेसबर्ग की इमारतों में रूटटॉप फार्म्स विकसित कर रहे हैं. फिलहाल यहां वे एक साइट का सर्वे कर रहे हैं, जिसे जल्द ही एक और फूड गार्डन में बदला जाएगा. शहर प्रशासन, जगह के साथ साथ हाइड्रोपॉलिक ढांचा और उसके लिए जरूरी ट्रेनिंग मुहैया करा रहा है. पानी की बचत और स्थानीय बाजार में कम दाम में सब्जियां मुहैया कराने के साथ ही ऐसे फार्म नौकरी भी पैदा कर रहे हैं.
पेरिस में क्यों हो रही है मूत्र से पौधों की सिंचाई
दुनिया में प्यार के शहर के रूप में मशहूर पेरिस के कई कोनों में आने वाली बदबू से वहां के निवासी और पर्यटक परेशान थे. कोने में पेशाब करने के कारण आने वाली बदबू से निपटने के लिए एक अनोखा इकोफ्रेंडली तरीका निकला है, देखिए.
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लंबे समय से थी परेशानी
पेरिस के कई इलाकों में पैदल रास्तों और बस या ट्रेन स्टेशन के पास से गुजरना मुश्किल हो रहा था. पेशाब की बदबू से परेशान लोग उससे झुटकारा तो चाहते थे लेकिन शहर के प्रशासन को लंबे समय से इसका कोई अच्छा उपाय नहीं मिल रहा था.
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मुफ्त पब्लिक टॉयलेट
पेरिस में पहले से जगह जगह मुफ्त सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था है. यह पूरी तरह स्वचालित हैं जहां हर बार इस्तेमाल के बाद अपने आप उनकी सफाई भी हो जाती है. इसके बावजूद कुछ कोने ऐसे बन गए ते जहां लोग बार बार पेशाब करते रहते थे.
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निकाला इकोफ्रेंडली तरीका
एक रेलवे स्टेशन के पास दो तरह के अनोखे पब्लिक टॉयलेट के परीक्षण का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है.
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मुफ्त में बने कम्पोस्ट
तस्वीर में दिख रहे इस लाल टॉयलेट में आगे के हिस्से में पेशाब किया जा सकता है और पीछे के हिस्से में लगे पौधे तक मूत्र के अंदर पाए जाने वाले यूरिया को पहुंचाने की व्यवस्था है. नीचे लगे इस बॉक्स में फूस रखी जाती है.
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लोग भी खुश और पौधे भी
फूस में जाकर गिरने वाला मूत्र फूस के साथ मिल जाता है और पौधे के साथ मिलकर वह कम्पोस्ट खाद बन जाता है, जिसे पार्कों में इस्तेमाल किया जा सकता है. फूस में ज्यादा कार्बन होने के कारण मूत्र पड़ने पर बदबू भी कम आती है.
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दो तरह के टॉयलेट
फ्रेंच भाषा में 'यूरीत्रोतॉयर' कहे जाने वाले ये इनोवेटिव टॉयलेट दो आकारों में उपलब्ध हैं. इसका अर्थ होता है फुटपाथ का टॉयलेट. इसमें 600 लोगों तक के मूत्र को सोखने की क्षमता है. ऐसे हर टॉयलेट का दाम करीब 3,000 यूरो है.
जब भर जाए, तो..
इसमें इलेक्ट्रॉनिक मॉनिटरिंग सेंसर लगे हैं, जो टॉयलेट के भरने पर सिग्नल दे देते हैं. फिर सफाईकर्मी इन्हें खाली कर सकते हैं. इसे फालटाजी नाम की डिजाइन कंपनी में बनाया है.
और महिलाओं के लिए?
तस्वीर में दिख रहे 45 साल के इंजीनियर लोराँ लेबो और विक्टर मसिपा ने यह अनोखा टॉयलेट बनाया है. वे अब महिलाओं के लिए भी ऐसा उपाय निकालने के बारे में सोच रहे हैं. लेकिन उससे पहले इस परीक्षण के नतीजों का इंतजार है. (मेलानी हॉल/आरपी)
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फूड रेजेलिएंस के डायरेक्टर डॉनी फाकग्वायो के मुताबिक, "रूफटॉप गार्डन लोगों को सशक्त बनाने, उन्हें गरीबी से बाहर निकालने और परिवार का आय बढ़ाने का भी एक जरिया है. हम इन गार्डनों को शहर की सरकारी इमारतों में फैलाना चाहते हैं. आगे बढ़ने के लिए हम प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप का सहारा भी ले रहे हैं. कुछ जगहों पर हम इमारत के मालिकों के साथ पार्टनरशिप में हैं ताकि इस मॉडल को अच्छे से अपनाया जा सके."
शहर भर में फैले कोट्जे स्ट्रीट फूड गार्डन कोऑपेरिटव के जरिये कई आयहीन महिलाएं भी छत के गार्डन प्रोजेक्ट से जुड़ रही हैं. यह मुहिम शहर में हरियाली भी फैला रही है और लोगों की आमदनी भी हो रही है. कैथरीन खाम्बुले प्रोजेक्ट से गदगद हैं, "हमें उद्यमी शब्द से गर्व नहीं होता है. गर्व शायद यह जानकर होता है कि हम अपना ख्याल रखने में सक्षम हैं. आप खुद काम कर सकते हैं और किसी पर निर्भर नहीं हैं."
फिलहाल शहर में छह अलग अलग रूफटॉप फार्मिंग प्रोजेक्ट चल रहे हैं. कैथरीन और उनके साथी इसका विस्तार करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि इसके साथ ज्यादा लोग जुड़े और शहर खुशहाल और आत्मनिर्भर बने.
(कहां कहां हो रहे हैं पानी पर झगड़े)
कहां कहां हो रहे हैं पानी पर झगड़े
भारत में कावेरी जल विवाद हो या सतलुज यमुना लिंक का मुद्दा, पानी को लेकर अकसर खींचतान होती रही है. वैसे पानी को लेकर झगड़े दुनिया में और भी कई जगह हो रहे हैं. एक नजर बड़े जल विवादों पर.
तस्वीर: AFP/Getty Images
ब्रह्मपुत्र नदी विवाद
2900 किलोमीटर लंबी ब्रह्मपुत्र नदी चीन के तिब्बत से निकलती है. अरुणाचल प्रदेश और असम से होते हुए ये बांग्लादेश में गंगा में मिल जाती है. उर्जा के भूखे चीन के लिए जहां इस नदी का पनबिजली परियोजनाओं के लिए महत्व है, वहीं भारत और बांग्लादेश के बड़े भूभाग को ये नदी सींचती है. भारत और चीन के बीच इसके पानी के इस्तेमाल के लिए कोई द्विपक्षीय संधि नहीं है लेकिन दोनों सरकारों ने हाल में कुछ कदम उठाए हैं.
तस्वीर: DW/B. Das
ग्रांड रेनेसॉ बांध और नील नदी
2011 में अफ्रीकी देश इथियोपिया ने ग्रांड इथियोपियन रेनेसॉ बांध बनाने की घोषणा की. सूडान की सीमा के नजदीक ब्लू नील पर बनने वाले इस बांध से छह हजार मेगावॉट बिजली बन सकेगी. बांध बनाने का विरोध सूडान भी कर रहा है लेकिन मिस्र में तो इससे पानी की आपूर्ति प्रभावित होने का खतरा है. 1929 और 1959 में संधियां हुई हैं. लेकिन इथियोपिया किसी बात की परवाह किए बिना बांध बना रहा है जो 2017 तक पूरा हो सकता है.
तस्वीर: CC BY-SA 2.0/Islam Hassan
इलिसु बांध और तिगरिस नदी
तुर्की सीरियाई सरहद के पास तिगरिस नदी पर इलिसु बांध बना रहा है. इस महत्वाकांक्षी परियोजना के से सिर्फ तिगरिस बल्कि यूफ्रेटस की हाइड्रोइलेक्ट्रिक क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल किया जाना है. तुर्की अपनी अनातोलियन परियोजना के तहत तिगरिस-यूफ्रेटस के बेसिन में कई और बांध और हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट लगाना चाहता है. लेकिन इससे सबसे बड़ा घाटा इराक का होगा जिसे अब तक इन नदियों का सबसे ज्यादा पानी मिलता था.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
सिंधु जल संधि विवाद
पानी के बंटवारे के लिए विश्व बैंक ने 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच एक संधि कराई जिसे सिंधु जल संधि के नाम से जाना जाता है. इसके तहत ब्यास, रावी और सतलज नदियों का नियंत्रण भारत को सौंपा गया जबकि सिंधु, चेनाब और झेलम का नियंत्रण पाकिस्तान को. पानी का बंटवारा कैसे हो, इसे लेकर विवाद रहा है. चूंकि पाकिस्तान के नियंत्रण वाली नदियां भारत से होकर जाती है, भारत इसका इस्तेमाल सिंचाई के लिए कर सकता है.
तस्वीर: Asif Hassan/AFP/Getty Images
शायाबुरी बांध
दक्षिण पूर्व एशियाई देश लाओस मेकॉन्ग नदी पर शायाबुरी बांध बना रहा है जिसका उसके पड़ोसी देश और पर्यावरणविद् विरोध कर रहे हैं. बांध के बाद ये नदी कंबोडिया और वियतनाम से गुजरती है. उनका कहना है कि बांध के कारण उनके मछली भंडार और लाखों लोगों की जिंदगियां प्रभावित होंगी. गरीब लाओस शायाबुरी बांध को अपनी आमदनी का जरिया बनाना चाहता है. उसकी योजना इससे बनने वाली बिजली को पड़ोसी देशों को बेचना है.
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पानी पर सियासत
मध्य पूर्व में जॉर्डन नदी का बेसिन इस्राएल और अन्य देशों के बीच सियासत का एक अहम मुद्दा है. मध्य पूर्व में पानी के स्रोतों की कमी होने की वजह इस्राएल, पश्चिमी तट, लेबनान, सीरिया और जॉर्डन के बीच अकसर खींचतान होती रहती है. 1960 के दशक में पानी के बंटवारे को लेकर इस्राएल और अरब देशों के बीच तीन साल तक चले गंभीर विवाद को जल युद्ध का नाम दिया जाता है.