साइबेरियाई इलाके में एक व्यक्ति को अपने बगीचे में सामूहिक कब्र मिली है. ये कब्र कम्युनिस्ट तानाशाह स्टालिन के दौर में मारे गए लोगों की हैं. रूस के लिए अपने क्रूर अतीत का सामना करना अब काफी मुश्किल है.
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कुछ महीने पुरानी बात है. विताली क्वाशा ने अपने घर का विस्तार करने की सोची. जब उन्होंने नींव के लिए खुदाई शुरू की तो उन्हें जमीन के अंदर जो मिला, उसे देखकर वह हक्के बक्के रह गए. उन्हें खोपड़ियां, बाजुओं और टांगों की हड्डियां और पसलियों के अस्थी पंजर मिले. उन्होंने और खुदाई की तो और अवशेष मिलते गए. अब उनके गार्डन में 10 बोरे रखे हैं जिनमें 60 से ज्यादा लोगों के अवशेष हैं. वह कहते हैं, "जब मैंने खोदा तो एक खोपड़ी मिली, उसके बाद दूसरी और फिर तो यह सिलसिला चलता ही रहा."
तुरत फुरत बुलाए गए सरकारी जांच समिति के विशेषज्ञों का कहना है कि क्वाशा के गार्डन के नीचे संभवतः 1930 के दशक की कोई सामूहिक कब्र है. 30 की उम्र को पार कर चुके क्वाशा अपने परिवार के साथ ब्लागोवेशचेंस्क में रहते हैं. यह जगह चीन की सीमा से लगने वाले रूस के सुदूर पूर्व इलाके में पड़ती है. रूस के बाकी इलाकों की तरह यहां भी जोसिफ स्टालिन के राज में सरकार विरोधियों को बड़े पैमाने पर गोलियों से उड़ाया गया था.
उधर, आठ हजार किलोमीटर दूर रूस की राजधानी मॉस्को में स्टालिन के आतंक का शिकार बने लोगों को याद किया जा रहा है. एक कार्यक्रम में रिमझिम बारिश में माइक पर उन लोगों के नाम पुकारे जा रहे हैं, जो आज से लगभग 80 साल पहले कत्ल कर दिए गए थे. यहां जमा होने वाले लोगों के पास अपने पिता, चाचा, मामा, दादा या फिर नाना से जुड़ी बहुत सारी कहानियां हैं. कहानी उन लोगों की है जो स्टालिन के दौर में 1936 से लेकर 1938 के बीच प्रताड़ित किए गए.
दक्षिण इस्राएल के एक कब्रिस्तान में खुदाई से मिले कंकाल सदियों पुरानी मान्यता को चुनौती दे रहे हैं. बाइबल में लिखा है कि प्राचीन फिलीस्तीन के लोग सभ्य नहीं थे जबकि फिलीस्तीनी कब्रिस्तान के कंकाल कुछ और ही कहानी कहते हैं.
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इस्राएल के ऐशकेलॉन शहर में मौजूद एक कब्रिस्तान में करीब 30 सालों के खुदाई के काम को अंजाम देने वाले रिसर्चर बताते हैं कि यहां की बलुई मिट्टी में मिले फिलीस्तीनी लोगों के कंकालों के पास गहने, वाइन और टेराकोटा की इत्र की बोतलें मिलीं हैं जो उनकी प्राचीन सभ्यता के सबूत हैं. और फिलीस्तीनियों को असभ्य माने जाने की धारणा पर सवाल खड़े करता है.
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बुक ऑफ सैमु्अल में प्राचीन फिलीस्तीन के गोलिएथ को एक "दैत्याकार योद्धा" बताया गया है, जिसे इस्राएल के यहूदी किंग डेविड ने मारा था. करीब तीन हजार साल पहले बेबिलोनिया का सेना के आक्रमण में फिलीस्तीन मिट गया था. अब तक फिलीस्तीनियों के बारे में केवल वही सब पता था जो ओल्ड टेस्टामेंट में उनके पड़ोसी और दुश्मनों यानि प्राचीन इस्राएलियों ने लिखा था.
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फिलीस्तीनी लोग आखिर थे कौन? पता चला है कि ये व्यापारी और समु्द्री यात्री थे और इंडो-यूरोपीयन मूल की भाषाएं बोलते थे. इनमें खतना नहीं होता था और ये सूअर से लेकर कुत्ते तक सब कुछ खाते थे. इसके सबूत ऐशकेलॉन के अलावा चार अन्य फिलीस्तीनी साइटों गाजा, गाथ, ऐशडोड और एकरॉन में मिले हैं. इनका जीवन कठिनाइयों में बीता.
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इस कब्रिस्तान की खुदाई का काम 1985 में लियॉन लेवी इक्सपीडिशन के तौर पर हार्वर्ड युनिवर्सिटी के सेमेटिक म्युजियम और कुछ अन्य संस्थानों के सहयोग से शुरु हुआ था. यहां मिले 145 शवों के अवशेषों से सिर्फ उस वक्त के अंतिम संस्कार के तरीकों का ही पता नहीं चलता बल्कि उनकी हड्डियों की जांच से उनके जीवन से भी पर्दा उठता है.
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कंकाल की हड्डियों की डीएनए, रेडियोकार्बन और अन्य एडवांस तरीकों की जांच हो रही है. ऐशकेलॉन में ऐसी पहली कब्र के बारे में 2013 में पता चला था. ऐशकेलॉन शहर प्राचीन फिलीस्तीनी बंदरगाह वाला शहर था, जहां कभी 13,000 लोग रहा करते थे. आज यह क्षेत्र दक्षिण इस्राएल के एक लोकप्रिय राष्ट्रीय पार्क में पड़ता है.
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इन लोगों के शवों के पास से मिले लाल और काले रंग के बर्तन देखकर पता चला है कि वे एजियन सी में प्राचीन यूनान और मध्यपूर्व के नगर और सभ्यताएं जब नष्ट हो रही थीं तो ये उस कांस्य युगीन सभ्यता से आये थे. सन 1200 से ईसा पूर्व 600 तक आज के गाजा इलाके से तेल अवीव के बीच की समुद्री पट्टी में इनके बसे होने के साक्ष्य मिले हैं.
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ऐशकेलॉन के इस 3,000 साल पुराने कब्रिस्तान में लगभग 200 लोगों की हड्डियां मिली हैं. फिलीस्तीनी लोगों के बारे में आज तक की सबसे सही जानकारी इन हड्डियों के रेडियोकार्बन डेटिंग और यहां मिले बर्तनों की जांच से ही मिलेगी. धार्मिक मान्यताओं और पौराणिक कहानियों के कई किरदारों और घटनाओं से पर्दा उठने का इंतजार जारी है.
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एक मानवाधिकार संस्था 'मेमोरियल' के लिए काम करने वाली नतालिया पेत्रोवा कहती हैं, "यह हमारा भयानक इतिहास है जिसे भुलाया नहीं जाना चाहिए." मारे गए लोगों की याद में होने वाले इस कार्यक्रम का नाम है "नामों की वापसी" और इसकी शुरुआत 12 साल पहले मेमोरियल ने की थी. तब से हर साल अक्टूबर में यह कार्यक्रम होता है.
पेत्रोवा कहती हैं, "मुझे इस बात की खुशी है कि बहुत सारे लोग सोवियत व्यवस्था के उस आतंकी दौर को याद करने के लिए जुटते हैं. इनमें बहुत सारे युवा भी शामिल है." खुद पेत्रोवा के दादा को उस दौर में कत्ल किया गया था. वह भी उनका नाम माइक्रोफोन में पुकारती हैं.
रूस में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के आलोचक फिर से तानाशाही दौर लौटने की आशंका जताते हैं क्योंकि सरकारी संस्थाएं लगातार ताकतवर हो रही हैं. सोवियत इतिहास में जो कुछ भयानक हुआ, उसे स्वीकार करने की इच्छा रूस में नहीं दिखती, बल्कि उसे लेकर एक असहजता है.
जो लोग उस दौर में हुए अपराधों को याद करते हैं, उन्हें परेशान किया जाता है. पेत्रोवा कहती हैं कि मेमोरियाल संस्था में उन्हें और उनके दूसरे साथियों को भी इस तरह के अनुभव हुए हैं. वह कहती हैं, "तीन साल पहले हमारे एनजीओ को तथाकथित विदेश एजेंट करार दे दिया गया. लेकिन हम लोग अब भी काम कर रहे हैं, क्योंकि बहुत सारे लोगों को हमारे काम की जरूरत है और यही सबसे महत्वपूर्ण बात है."
उधर ब्लागोवेशचेंस्क में विताली क्वाशा कहते हैं कि उन्होंने अधिकारियों को सूचित कर दिया है कि उनके बगीचे में क्या मिला है, लेकिन देश के इतिहास से जुड़े इन प्रमाणों के बारे में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. वह कहते हैं, "मैं एक साल से अधिकारियों से मदद मांग रहा हूं. उनका कहना है कि इसकी देखभाल करने के लिए ना उनके पास पैसे हैं और ना ही लोग. वह सिर्फ वादा करते रहते हैं कि उनके लोग आएंगे और इन अवशेषों को ले जाएंगे. लेकिन सारे अवशेष मुझे खुद ही खोद कर निकालने होंगे."
कभी स्वास्थ्य कारणों से तो कभी सेना में जरूरत के लिए रोबोटिक कंकालों पर शोध होता है. बीते दशक में इंसान के शरीर की ही तरह हरकतें करने में सक्षम रोबोटिक हाथ, पैर और कई तरह के बाहरी कंकाल विकसित किए जा चुके हैं.
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पूरी तरह रोबोटिक
आइला नाम की यह मादा रोबोट दिखाती है कि एक्सो-स्केलेटन यानि बाहरी कंकाल को कैसे काम करना चाहिए. जब किसी व्यक्ति ने इसे पहना होता है तो आइला उसे दूर से ही नियंत्रित कर सकती है. आइला को केवल उद्योग-धंधों में ही नहीं अंतरिक्ष में भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
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हाथों से शुरु
जर्मनी में एक्सो-स्केलेटन पर काम करने वाला डीएफकेआई नाम का आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस रिसर्च सेंटर 2007 में शुरू हुआ. शुरुआत में यहां वैज्ञानिक रोबोटिक हाथ और उसका रिमोट कंट्रोल सिस्टम बनाने की ओर काम कर रहे थे. तस्वीर में है उसका पहला आधुनिक प्रोटोटाइप.
तस्वीर: DFKI / Studio Banck
बेहद सटीक
डीएफकेआई ने 2011 से दो हाथों वाले एक्सो-स्केलेटन पर काम शुरू किया. दो साल तक चले इस प्रोजेक्ट में रिसर्चरों ने इंसानी शरीर के ऊपरी हिस्से की कई बारीक हरकतों की अच्छी नकल कर पाने में कामयाबी पाई और इसे एक्सो-स्केलेटन में भी डाल सके.
तस्वीर: DFKI / Annemarie Hirth
रूस का रिमोट कंट्रोल
केवल जर्मन ही नहीं, रूसी रिसर्चर भी रिमोट कंट्रोल सिस्टम वाले एक्सो-स्केलेटन बना चुके हैं. डीएफकेआई ब्रेमन के रिसर्चरों को 2013 में रूसी रोबोट को देखने का अवसर मिला. इसके अलावा रूसी साइंटिस्ट भी आइला रोबोट पर अपना हाथ आजमा चुके हैं.
दुनिया की दूसरी जगहों पर विकसित किए गए सिस्टम्स के मुकाबले डीएफकेआई के कृत्रिम एक्सो-स्केलेटन के सेंसर ना केवल हथेली पर लगे हैं बल्कि बाजू के ऊपरी और निचले हिस्सों पर भी. नतीजतन रोबोटिक हाथ का संचालन बेहद सटीक और असली सा लगता है. इसमें काफी जटिल इलेक्ट्रॉनिक्स इस्तेमाल होता है.
तस्वीर: DFKI/David Schikora
भार ढोएंगे रोबोटिक पैर
डीएफकेआई 2017 से रोबोटिक हाथों के साथ साथ पैरों का एक्सो-स्केलेटन भी पेश करेगा. यह इंसान की लगभग सभी शारीरिक हरकतों की नकल कर सकेगा. अब तक एक्सो-स्केलेटन को पीठ पर लादना पड़ता था, लेकिन भविष्य में रोबोट के पैर पूरा बोझ उठा सकेंगे.
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लकवे के मरीजों की मदद
इन एक्सो-स्केलेटनों का इस्तेमाल लकवे के मरीजों की सहायता के लिए हो रहा है. ब्राजील में हुए 2014 फुटबॉल विश्व कप के उद्घाटन समारोह में वैज्ञानिकों ने इस तकनीकी उपलब्धि को पेश किया था. आगे चलकर इन एक्सो-स्केलेटन में बैटरियां लगी होंगी और इन्हें काफी हल्के पदार्थ से बनाया जाएगा.
तस्वीर: cotesys.org
अंतरिक्ष में रोबोट
फिलहाल इन एक्सो-स्केलेटन की अंतरिक्ष में काम करने की क्षमता का परीक्षण त्रिआयामी सिमुलेशन के द्वारा किया जा रहा है. इन्हें लेकर एक महात्वाकांक्षी सपना ये है कि ऐसे रोबोटों को दूर दूर के ग्रहों पर रखा जाए और उनका नियंत्रण धरती के रिमोट से किया जा सके. भविष्य में खतरनाक मिशनों पर अंतरिक्षयात्रियों की जगह रोबोटों को भेजा जा सकता है.