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भूटान से सीख लेता जर्मनी

१४ जून २०१३

जर्मनी की एक संसदीय जांच समिति ने कहा है कि सिर्फ देश की आर्थिक उपलब्धियों के आधार पर जीवन की गुणवत्ता का आकलन नहीं किया जा सकता. सवाल यह उठता है कि और क्या चाहिए...

तस्वीर: Fotolia/yanlev

यदि अर्थव्यवस्था अच्छी हो, शेयर बाजार चढ़ रहा हो और लोग धनी हो रहे हों तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि देश की हालत अच्छी है. खासकर यूरो जोन में शुरू हुए कर्ज संकट के बाद कुछ यूरोपीय इस सिद्धांत पर फिर से सोच विचार करने लगे हैं कि भौतिक समृद्धि का मतलब अच्छा जीवन स्तर भी होता है. लेकिन दूसरी ओर यह बताना बहुत ही मुश्किल है कि कौन सी चीजें जीवन के लिए सचमुच जरूरी हैं.

दो साल तक जर्मनी के 17 सांसदों और 17 वैज्ञानिकों ने इस पहेली को सुलझाने की कोशिश की. अब उन्होंने अपनी जांच के नतीजों का सार संक्षेप प्रकाशित किया है. इसमें इस विचार को पूरी तरह ठुकरा दिया गया है कि सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी देश के सम्यक विकास का सही पैमाना होता है. जीडीपी को बहुत से देशों में परंपरागत रूप से विकास का पैमाना समझा जाता है.

रिश्ता या दौलत

जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल का भी मानना है कि सिर्फ देश के जीडीपी को देखना गलत नतीजों की ओर ले जा सकता है. आयोग के नतीजों पर विचार करने के लिए इकट्ठा हुए 100 विशेषज्ञों को संबोधित करते हुए उन्होंने पूछा, "आपकी देखभाल कौन करेगा यदि एक दिन आप कमजोर और बीमार हो जाएंगे?" उन्होंने यह भी पूछा, "आप सचमुच कितने लोगों को जानते हैं जिन्हें आपके लिए ऐसा करके खुशी होगी?" उन्होंने कहा कि जीवन की क्वालिटी धन दौलत से ज्यादा है.

लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स के प्रोफेसर रिचर्ड लेयार्ड मैर्केल की बातों से सहमत हैं. वे कहते हैं कि लोगों के लिए रिश्तों की क्वालिटी बहुत ही अहम होती है, दूसरे शब्दों में उनके परिवारों की हालत, दफ्तर का माहौल और स्थानीय समुदाय. परिवार, हॉबी और मनोरंजन के लिए समय आज के आर्थिक माहौल में सबसे कीमती सामान हो गया है. इसलिए भूटान के कर्मा शीटीम जर्मनी को जीडीपी के बदले भूटान की तरह सकल राष्ट्रीय खुशी नापने की वैकल्पिक नीति का सलाह देते हैं.

खुशी नापने के पैमाने में नौ तरह के पहलू शामिल किए गए हैं. इसमें जीवन स्तर, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, राजनीतिक नेतृत्व और पर्यावरण शामिल है. शीटीम कहते हैं, "लेकिन हमारे चार और पहलू हैं जो एक तरह से नए हैं, मनोवैज्ञानिक तंदरुश्ती, सामुदायिक उत्साह, सांस्कृतिक बहुलता, लचीलापन और समय का उपयोग." भूटान का मैजिक फॉर्मूला है, तीन गुने आठ यानि आठ घंटे काम, आठ घंटे फुर्सत और आठ घंटे सोना. नया कानून बनाते समय सरकार इसका ख्याल रखती है. स्कूलों में रोज दो मिनट चिंतन और ध्यान किया जाता है ताकि लोग रोजाना दो मिनट की शांति महसूस कर सकें.

सुख के स्रोत

अमेरिका के सिटीजन थिंक टैंक के वेन वार्नर का मानना है कि कोई सरकार यह तय नहीं कर सकती है कि लोगों के लिए क्या अच्छा है. 1985 से उनका संगठन जेसीसीआई जैक्सनविल शहर के लिए सालाना क्वालिटी ऑफ लाइफ प्रोग्रेस रिपोर्ट जारी कर रहा है. इसके आंकड़े सिर्फ सरकारी स्रोतों से ही नहीं आते बल्कि स्थानीय निवासी भी उन्हें इकट्ठा करते हैं. वार्नर का कहना है कि जेसीसीआई चाहता है कि लोग खुद फैसला लें कि उनके लिए क्या अच्छा है. इसलिए कोई भी प्रोग्रेस रिपोर्ट लोगों की भागीदारी के बिना पूरी नहीं हो सकती.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

जर्मनी में हुई जांच इस हिसाब से उतनी जमीन से जुड़ी नहीं है. आयोग खुशी के अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों के साथ इस बात पर सहमत है कि सरकारों को भविष्य में बहुत से कारकों पर ध्यान देना होगा. आयोग के सदस्य प्रोफेसर क्रिस्टॉफ श्मिट कहते हैं, "जिंदगी की जटिलता को समझना और साथ ही सबको खुश रखने वाली एक चीज से उसका प्रतिनिधित्व करने की उम्मीद रखना संभव नहीं है." उनका कहना है कि सिर्फ आर्थिक प्रदर्शन को बेहतर बनाने पर ध्यान देने के बदले भविष्य में विकास नापते समय पर्यावरण और सामाजिक पहलुओं पर ध्यान देना होगा. आयोग ने इसे डब्ल्यू 3 का नाम दिया है.

श्मिट कहते हैं, "हमारे पास आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण कोटि में दस कारक हैं. हमारा समस्याओं पर ध्यान देने का भी तरीका है." अब जीवन के स्तर पर समाज में बहस शुरू करने तथा जीवन स्तर, आय और काम पर दबाव तथा खुशहाली पर विस्तार से आंकड़े जुटाने की तैयारी हो रही है. इसके बाद जो नतीजे निकलेंगे उन्हें लागू करने के लिए एक सरकारी संस्था बनाने की भी योजना है. इस बीच अंगेला मैर्केल ने वादा किया है कि वे खुशियों पर शोध को प्रोत्साहन देती रहेंगी.

रिपोर्ट: रिचार्ड फुक्स/एमजे

संपादन: आभा मोंढे

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