पूर्व में जर्मनी के उपनिवेश रहे दुनिया के कई देशों के लोगों के कंकाल की खोपड़ी अब भी राजधानी बर्लिन में मौजूद है. अब इन्हें वापस लौटाने की मांग उठ रही है.
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पूर्वी अफ्रीका के 1,000 से भी ज्यादा लोगों की खोपड़ियां जर्मनी के औपनिवेशिक काल के दौरान राजधानी बर्लिन लाई गई थीं. इसका मकसद अलग अलग नस्ल के लोगों का "वैज्ञानिक" अध्ययन करना था. हाल के सालों में कई पूर्व उपनिवेश जर्मनी से उनके मूल निवासियों के अवशेष लौटाए जाने की मांग कर रहे हैं.
जर्मनी के सरकारी टीवी चैनल एआरडी ने बताया है कि उसे ऐसे इंसानी अवशेषों के बारे में एक सूची मिली है, जो अभी भी बर्लिन के सरकारी संग्रहालयों के अंतर्गत आने वाले प्रशियन कल्चरल हेरिटेज फाउंडेशन के पास है.
इस सूची से पता चलता है कि फाउंडेशन के पास रवांडा के लोगों की 1,000 से अधिक खोपड़ियां और तंजानियाई मूल के कम से कम 60 लोगों की खोपड़ी मौजूद है. यह दोनों देश 1885 से 1918 के बीच जर्मनी की ईस्ट अफ्रीका कॉलोनी में शामिल थे.
जर्मनी के जुल्म
बर्लिन में जर्मन हिस्टोरिकल म्यूजियम में एक प्रदर्शनी में दिखाया गया कि औपनिवेशिक दुनिया में जर्मनी ने किस किस तरह के जुल्म ढाए हैं. जर्मनी के औपनिवेशिक इतिहास के बारे में इस तरह पहली बार खुलकर बात हुई.
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जब पानी था भविष्य
चांसलर ओटो फोन बिसमार्क के दौर में जर्मनी का औपनिवेशिक साम्राज्य अफ्रीका में नामीबिया, कैमरून, टोगो, तंजानिया और केन्या तक फैला था. 1888 में ताजपोशी के बाद सम्राट विलहेल्म द्वीतीय ने कहा कि उपनिवेश बढ़ाओ. इसके लिए नई सेनाएं बनाई गईं और उन्हें अफ्रीका की ओर भेजा गया.
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जर्मन उपनिवेश
पैसिफिक में नॉर्थ न्यू गिनी, बिसमार्क आर्किपेलागो, मार्शल और सोलोमन द्वीप और समाओ के अलावा चीन में भी जर्मन उपनिवेश स्थापित किए गए. ब्रसेल्स में 1890 में हुई एक कॉन्फ्रेंस में यह तय हुआ कि रवांडा और बुरूंडी में जर्मन साम्राज्य स्थापित किए जाएंगे.
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असमानता की व्यवस्था
उपनिवेशों में गोरे लोग बहुत कम थे लेकिन उनका दर्जा बाकियों से कहीं ज्यादा था. 1914 में उपनिवेशों में 25 हजार जर्मन रह रहे थे जबकि 1.3 करोड़ मूल अफ्रीकी. लेकिन मूल लोगों को कोई अधिकार नहीं था.
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20वीं सदी का पहला नरसंहार
जर्मनी के आधीन दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका (नामीबिया) में हेरेरो और नामा में सदी का पहला नरसंहार हुआ था. यह जर्मन औपनिवेशिक इतिहास का सबसे जघन्य अपराध है. 60 हजार हेरेरो लोग प्यास से मर गए थे क्योंकि जर्मन सेना ने पानी का रास्ता रोक लिया था.
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जर्मन अपराध
नामीबिया में सिर्फ 16 हजार हेरेरो लोग बचे थे. उन्हें यातना शिविरों में ले जाया गया. वहां भी हजारों और लोग मारे गए जिनकी सटीक तादाद कभी पता नहीं चल सकी.
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औपनिवेशिक युद्ध
1905 से 1907 के बीच जर्मन ईस्ट अफ्रीका के खिलाफ गुलाम लोगों ने बगावत की जिसका पूरी ताकत से दमन किया गया. माजी माजी की बगावत में एक लाख स्थानीय लोग मारे गए. तंजानिया में हुईं इन मौतों ने जर्मन इतिहास में काला अध्याय जोड़ा.
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1907 के सुधार
बगावतों और युद्धों के बाद प्रशासनिक सुधारों पर बात हुई. लोगों के लिए हालात बेहतर करने पर बात हुई. 1907 में बर्नहार्ड डर्नबर्ग को औपनिवेशिक मामलों का मंत्री नियुक्त किया गया.
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विज्ञान का प्रसार
डर्नबर्ग ने उपनिवेशों के लिए कई सुधार किए. वहां विज्ञान और तकनीक के प्रसार के लिए संस्थान स्थापित गए. जर्मन विश्वविद्यालयों में भी विभाग शुरू हुए.
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जर्मनी की हार
पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की हार का नतीजा उपनिवेशों पर भी पड़ा. शांति समझौते की एक शर्त यह थी कि जर्मनी अपने उपनिवेशों पर अधिकार छोड़ देगा.
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नई सरकार के मंसूबे
नाजी शासन के दौरान भी जर्मनी के औपनिवेशिक मंसूबे नजर आए. 'जनरलप्लान ओस्ट' के नाम से एक योजना तैयार की गई ताकि पूर्वी यूरोप में उपनिवेश स्थापित किए जा सकें. नाजी सरकार ने अफ्रीका में हाथ से निकल गए उपनिवेश वापस पाने की भी योजना बनाई थी.
तस्वीर: DW/J. Hitz
और आज की बात
इस वक्त हेरेरो और नामा नरसंहार के लिए मुआवजे पर बातचीत चल रही है. हालांकि हेरेरो समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र में शिकायत की है कि उसे बातचीत का हिस्सा नहीं बनाया गया है.
रिपोर्ट: यूलिया हित्स/वीके
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कुछ मानव अवशेषों के बारे में माना जाता है कि वे उन विद्रोहियों के हैं जिन्हें औपनिवेशिक काल के दौरान बगावत करने पर जर्मन सेनाओं ने मार डाला था. इन मानव कंकालों को "वैज्ञानिक" प्रयोगों के लिए अंतत: बर्लिन भेज दिया गया. फाउंडेशन के पास मानव अवशेषों का तथाकथित लुशान संग्रह है, जिसका हिस्सा गुलाम विद्रोहियों की ये खोपड़ियां भी हैं. इसमें जमा चीजों में 4,600 अन्य खोपड़ियां भी हैं, जिन्हें रिसर्चर फेलिक्स लुशान ने सन 1885 से 1920 के बीच इकट्ठा किया.
फाउंडेशन के प्रमुख हरमन पारजिंगर ने इन खोपड़ियों के बारे में एआरडी को बताया कि उनके संगठन को "इन चीजों को वापस लौटाने में कोई परेशानी नहीं." हालांकि फाउंडेशन का कहना है कि इसके पहले सूची में शामिल लोगों के अवशेषों को उस समय के जनसंख्या रिकॉर्ड से मिलाया जाना जरूरी है. पारजिंगर ने कहा कि इसकी वैज्ञानिक रूप से पुष्टि होने पर ही इन खोपड़ियों को लौटाने का कार्रवाई होनी चाहिए.
बर्लिन में रवांडा के राजदूत इगोर सीजर ने मांग की है कि संग्रह से खोपड़ियों को निकाल कर वापस किया जाना बहुत जरूरी है. जर्मनी की आर्थिक सहयोग और विकास मंत्री हाइडेमारी विजोरेक-सेउल ने भी इन मानव अवशेषों को वापस किए जाने की मांग का समर्थन किया है. उन्होंने कहा, "हमें चाहिए कि ऐसी सभी युनिवर्सिटीज और संस्थान इन अस्थियों को उनके देशों को गरिमा के साथ वापस लौटा दें."
जर्मनी की कॉलोनी, टोगो
घाना से लगा हुआ पश्चिमी अफ्रीकी देश टोगो कभी जर्मनी का उपनिवेश हुआ करता था. सौ साल बाद भी यहां जर्मनी की झलक दिखती है.
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कैथीड्रल
टोगो 1884 से 1914 तक जर्मनी की कॉलोनी रहा. उस दौरान की नियोगोथिक वास्तुशिल्पकला आज भी यहां के चर्च में दिखती है.
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नया रूप
राजधानी लोम में सेक्रेड हार्ट कैथीड्रल की मरम्मत की गयी और वह भी जर्मनी की मदद से. नई कांच की खिड़कियां जर्मनी के न्यूरेमबर्ग से मंगवाई गयीं.
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महल का बगीचा
ताड़ के पेड़ों के बीच जर्मनी ने एक महल बनवाया. यह 1898 से 1905 के बीच बनाया गया. लंबे समय तक यह गवर्नर का निवास रहा.
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खंडर
आज इस महल में कोई नहीं रहता. टोगो की सरकार के पास इसकी मरम्मत करने के पैसे नहीं हैं. लेकिन आज भी बाहर सिपाही पहरा देते हैं.
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सोने के लिए
यह जिला अधिकारी का पुराना दफ्तर है. यह भी आज खाली है. लोम के टैक्सी ड्राइवर और रेड़ी वाले दोपहर में यहां सोने के लिए आते हैं.
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समुद्र किनारे
यह बंदरगाह 1904 में बनाया गया था. लेकिन बाद में समझ आया कि यह जहाजों के लिए बहुत छोटा है. अब यहां मछुआरे ही आते हैं.
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छुक छुक
टोगो की रेल सेवा को भी मरम्मत की जरूरत है. 300 किलोमीटर लंबे रेल नेटवर्क पर अधिकतर मालगाड़ियां ही चलती हैं.
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राजधानी के बाहर
सिर्फ लोम में ही नहीं, वहां से 120 किलोमीटर दूर कपालीम में भी जर्मन स्टाइल के चर्च देखने को मिलते हैं. उस समय के आर्किटेक्ट ने ज्यादातर चर्चों पर ही छाप छोड़ी है.
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पहाड़ों में
1890 के बाद से टोगो के पहाड़ों में सेना की छावनी बनाई गयी ताकि व्यापार के रास्तों को सुरक्षित रखा जा सके. इस छावनी की छत गिर चुकी है, फिर भी इसमें कई परिवार रहते हैं.
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कब्रिस्तान
जर्मनी से आए लोग यहां बहुत लंबा जीवन नहीं बिता पाए. कब्रों पर लिखी तारीख बताती है कि दफनाए गए लोगों की उम्र 35 साल से ज्यादा नहीं थी.
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ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि जर्मनी से दूसरे देशों से लाए गए मानव अवशेषों को लौटाने की मांग की गई हो. बीते पांच सालों में ही जर्मनी ने अपने एन्थ्रोपोलॉजिकल संग्रह में से ऑस्ट्रेलिया, पैराग्वे और अपनी पुरानी कॉलोनी नामीबिया को उसके अवशेष वापस किए हैं.
जर्मनी ने नामीबिया के मूल निवासियों की 20 खोपड़ियां लौटाई हैं. माना जाता है कि यह लोग जर्मन सेना के हाथों मारे गए उन 300 लोगों में शामिल थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह किया था. एआरडी ने 2008 में रिपोर्ट दिखाई थी कि बर्लिन के मेडिकल हिस्ट्री म्युजियम और फ्राइबुर्ग युनिवर्सिटी में कंकाल रखे हैं, जिसके बाद ही नामीबिया ने उन्हें वापस लेने की मांग रखी.