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समाज

जर्मनी में पारिवारिक गिरोह चलाने वालों की खैर नहीं

४ फ़रवरी २०१९

जर्मन पुलिस ने देश के बड़े बड़े शहरों में सक्रिय आपराधिक गिरोहों पर शिकंजा कस दिया है. अपराधियों के ऐसे पारिवारिक गुटों में डर पैदा करने, उन्हें तोड़ने और लोगों को उससे बाहर निकालने पर जोर है.

Deutschland Razzia in Shisha-Bar in Bochum
तस्वीर: picture-alliance/dpa/B. Thissen

जर्मनी के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य नॉर्थ राइन-वेस्टफेलिया में करीब 1,300 पुलिसकर्मियों ने एक साथ कई जगहों पर छापे डाले. जनवरी के मध्य में हुई इस बड़ी कार्रवाई में पुलिस ने डॉर्टमुंड, एसेन, डुइसबुर्ग, रेक्लिंगहाउसेन और गेलसेनकिर्शेन शहरों के कई शीशा बार, जुए की दुकानों, कैफे और चायघरों पर धावा बोला. पुलिस को शक है कि इन अड्डों पर काले धन को सफेद करने, टैक्स से बचने और अपनी आय को छुपाने जैसे कई अपराध अंजाम दिए जाते हैं.

जर्मनी में अपराध से जुड़े ऐसे पारिवारिक गिरोहों के खिलाफ एक नई "जीरो टॉलरेंस" की नीति अपनाई गई है. पश्चिमी राज्य नॉर्थ राइन-वेस्टफेलिया के अलावा राजधानी बर्लिन, ब्रेमेन और लोअर सैक्सनी में भी पुलिस ने कई आपराधिक क्लैनों के खिलाफ कार्रवाई की है. पुलिस का मकसद ऐसे गुटों को असुरक्षा से भरना है जिससे वे गैरकानूनी वारदातों को अंजाम देने से दूर रहें.

सितंबर 2018 में गिरोहों पर दबिश के लिए बर्लिन में डाले गए थे छापे. तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Zinken

क्या यह आपराधिक क्लैन वाकई इस पुलिसिया कार्रवाई से डर गए हैं या फिर उन्हें लग रहा है कि ज्यादा दिन तक पुलिस ऐसे दबाव नहीं बनाए रख पाएगी. इस पर इस्लामी विद्वान और प्रवासी मामलों के विशेषज्ञ राल्फ घादबान  कहते हैं, "अभी ही वे (क्लैन) काफी हिल गए हैं, लेकिन उससे भी अहम राज्य का यह संदेश है कि वे सड़कों को वापस अपने कब्जे में ले रहे हैं. इससे आम जनता खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करेगी."

बर्लिन में पिछले दिनों ऐसे ही एक गिरोह के सदस्य अराफात अबू-चाकर को पहले गिरफ्तार किया गया लेकिन फिर गिरफ्तारी के आदेश के बदल जाने के कारण उसे छोड़ना पड़ा. इस पर बर्लिन पुलिस संघ के प्रमुख नोबर्ट सिओमा कहते हैं, "सबको पता था कि चाकर को अगर कोर्ट में पेश करते तब भी वो कस्टडी में नहीं रहता. लेकिन फिर भी उसे भीतर से जेल दिखाना जरूरी था." सिओमा कहते हैं कि उनके खिलाफ जांच बंद नहीं की जाएगी.

राल्फ घादबान, इस्लाम और प्रवासी मामलों के जानकार तस्वीर: DW

जर्मनी में हैं पांच लाख क्लैन सदस्य

कई दशकों से ऐसे पारिवारिक गिरोहों को लेकर पुलिस ने आंखें फेरी हुई थीं. यह चिंता भी थी कि कहीं इन परिवारों पर कार्रवाई करने के कारण पुलिस पर नस्लीय भेदभाव का आरोप ना लग जाए, लेकिन इतनी देर करने के कारण ऐसे गुट काफी फैल गए और मजबूत होते चले गए. घादबान बताते हैं, "इस समय जर्मनी में कोई पांच लाख लोग किसी ना किसी क्लैन से जुड़े हैं, हालांकि इनमें से सभी अपराधी नहीं हैं." कई देशों के लोग ऐसे गिरोह चला रहे हैं जैसे लेबनान, तुर्की, कुर्द, कोसोवा, अल्बेनिया और यहां तक की चेचेन लोग भी ऐसे कई गैरकानूनी कारोबार चलाते हैं.

हाल ही में सरकार से बेरोजगारी भत्ता लेने वाला एक ऐसा ही क्लैन सदस्य अपने जूतों में 60,000 यूरो की रकम छुपाए पकड़ा गया. हालांकि वह अब भी पुलिस की गिरफ्त में नहीं है. पुलिस प्रमुख बताते हैं, "जर्मनी में इटली जैसा कानून नहीं हैं. इसका मतलब कि हमें यह साबित करना पड़ेगा कि उसके जूतों में मिली रकम चोरी की संपत्ति है. बजाय इसके कि वह व्यक्ति साबित करे कि यह रकम उसने ईमानदारी से कमाई है."  वे न्यायप्रणाली को ऐसे मामलों में और सख्त होने की जरूरत पर बल देते हैं.

इस्लाम और कानून के जानकार माथियास रोहेतस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

क्लैन के पुनर्वास की योजना

पुलिसिया कार्रवाई तो अपनी जगह है लेकिन ऐसे गिरोहों में पूरे के पूरे परिवार और उनके संबंधी जुड़े होते हैं. उनमें से कई लोग शायद अपराध से निकलना भी चाहें तो उसके मौके होने चाहिए. घादबान बताते हैं, "करीब एक तिहाई सदस्य असल में ऐसी जिंदगी से बाहर निकलना चाहते हैं. सामान्य जीवन जीने की चाह रखने वाले भी क्लैन में फंसे हुए हैं." अब तक जर्मनी में ऐसे लोगों को बाहर निकालने की कोई योजना नहीं है.

बचाव और दबाव की नीति

विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे क्लैनों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने में जर्मनी असफल रहा है. इस्लाम और कानून के जानकार माथियास रोहे कहते हैं कि जर्मनी को अपनी पुरानी गलती से सीखना चाहिए. वे बताते हैं कि 1975 में लेबनान में गृहयुद्ध के शिकार लोग जब देश छोड़ कर जर्मनी पहुंचे थे तब एक तरह से उन्हें दिखा दिया गया था कि उन्हें यहां नहीं होना चाहिए. ना तो उन्हें शिक्षा और ना ही नौकरियों में शामिल किया गया. वे कहते है कि इस तरह उन प्रवासियों को उनके हाल पर छोड़ देने के कारण हमने उनके सामने पारिवारिक संबंधियों पर आश्रित रहने के अलावा कोई चारा ही नहीं छोड़ा. रोहे बताते हैं कि उन लोगों के सामने जीने के लिए केवल एक ही विकल्प बचा कि वे गिरोह में शामिल हो जाएं क्योंकि सरकार ने तो उनके साथ केवल भेदभाव ही किया.

ऐसे में मांग ऐसे पारिवारिक गिरोहों को समझने, उन पर दबाव बनाने और लोगों को उससे निकाल कर अपराध की दुनिया से बचाने की है. फिलहाल पुलिस अपना काम कर रही है लेकिन रोहे क्राइम क्लैन के सफाये की तुलना एक रेस से करते हुए कहते हैं कि "ये कोई 100-मीटर का स्प्रिंट नहीं बल्कि एक मैराथन दौड़ होगी."

ओलिवर पीपर/आरपी

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