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जर्मनी में भी महिलाओं पर सियासत

१८ अक्टूबर २०११

जर्मनी की 30 कंपनियों ने शीर्ष पदों पर महिलाओं को ज्यादा जगह देने की योजना पेश कर दी है. लेकिन महिला चांसलर अंगेला मैर्केल की अगुवाई वाली जर्मन सरकार इसे मानती नजर नहीं आ रही है. जर्मनी में भी महिलाओं के साथ भेदभाव है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

देश की महिला विकास मंत्री क्रिस्टिना श्रोएडर की पहल पर जर्मनी की 30 सबसे बड़ी कंपनियों ने अपने यहां महिलाओं को ज्यादा अधिकार देने और उच्च पदों पर नियुक्ति का वादा किया था. उन्होंने इसी वादे के तहत अपनी योजना पेश की है. हालांकि भारत की तरह यहां भी इस महत्वपूर्ण मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश की जा रही है और अमल किए जाने की बजाय सियासत हो रही है.

तस्वीर: dapd

जर्मनी में उच्च पदों पर महिलाओं के साथ खासा भेदभाव होता है और समानता बनाने की कोशिश के तहत ही ऐसा किया जा रहा है. कुछ लोगों का मानना है कि महिलाओं को आरक्षण देकर इस समस्या का निदान किया जा सकता है, जबकि दूसरे लोग रिजर्वेशन के खिलाफ हैं.

महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली कुछ संस्थाओं का कहना है कि बिजनस में महिलाओं के लिए कोटा निर्धारित करना कोई नई बात नहीं है और ऐसा किया जा सकता है. जबकि आलोचकों का कहना है कि अगर सिर्फ कोटे के आधार पर महिलाओं को टॉप पोस्ट दिया जाता है, तो यह एक तरह से महिलाओं का सांकेतिक प्रतिनिधित्व होगा, असल नहीं.

तस्वीर: Kurhan/pressmaster/Fotolia.com/DW

मर्द भी कोटे में

लेकिन बिजनस एंड प्रोफेशनल वीमेन जर्मनी (बीपीडब्ल्यू) की सिमोन डेंजलर का कहना है कि 98 प्रतिशत मैनेजमेंट पदों पर तो खुद मर्द बैठे हैं. ऐसे में क्या उनका कोटा नहीं हो गया है, "क्या मर्द खुद को सांकेतिक पद पर बिठाने से डरते हैं. वे सब भी तो कोटा भरने वाले लोग ही हैं." डेंजलर का मानना है कि लिंग भेद दूर करने के लिए कानून की जरूरत है.

जर्मनी की महिला अधिकारों की मंत्री क्रिस्टीना श्रोएडर और श्रम मंत्री उर्सुला फॉन डर लेयन भी ऐसा ही मानती हैं. श्रोएडर का कहना है कि वह चाहती हैं कि उन कंपनियों पर जुर्माना लगाया जाए, जो महिलाओं को उनका अधिकार देने में ना नुकुर कर रहे हों. फॉन डर लेयन का कहना है, "अगर टॉप कंपनियों के शीर्ष स्तर पर अभी भी बदलाव नहीं हो रहा है तो हमें कानून की सख्त जरूरत है."

हो सकता है जुर्माना

श्रोएडर भी कुछ ऐसा ही कानून चाहती हैं, "मैं चाहती हूं कि कंपनियों में लचीला कोटा हो, जिसके आधार पर कंपनियों को अपने हित में फैसला करने का अधिकार सुरक्षित रहे लेकिन कानूनी बाध्यता भी बनी रहे." श्रोएडर के प्रस्ताव को अगर मान लिया गया, तो कंपनियों पर उच्च पदों पर महिलाओं को तैनात करने की बाध्यता होगी और महिला पुरुष अनुपात ठीक नहीं होने पर 25,000 यूरो (लगभग 17 लाख रुपये) का जुर्माना लग सकता है.

तस्वीर: dapd

हालांकि इस बात पर सहमति नहीं बन पा रही है कि औरतों का अनुपात क्या होगा. आलियांस, बायर, कॉमर्सबैंक और डॉयचे टेलीकॉम जैसी कंपनियां कहती हैं कि वे 2015 तक उच्च पदों पर 30 प्रतिशत महिलाओं की हिस्सेदारी चाहती हैं.

कहीं हां, कहीं ना

डायमलर (मर्सिडीज कार बनाने वाली कंपनी) और बीएमडब्ल्यू जैसी दूसरी कंपनियां इस हिस्सेदारी को 20 प्रतिशत पर सीमित करने के पक्ष में दिखती हैं, जबकि कई कंपनियां अभी भी कोटे की जगह योग्यता की बात कर रही हैं. धातु उद्योग कर्मचारी संगठन गेजाम्टमेटाल की गाब्रियेले जॉन्स कहती हैं, "मुझे लगता है कि कोटा की बात बकवास है. जॉब योग्यता के आधार पर दिया जाना चाहिए, लिंग के आधार पर नहीं."

फॉन डर लेयन ऐसी आलोचनाओं से परेशान नहीं हैं. उनका कहना है कि उनका मंत्रालय हर कंपनी पर नजर रखेगा, "एक ऐसे कानून की जरूरत है, जो पक्के लक्ष्य को दिखाए और एक समयसीमा निर्धारित करे. यह इस बात को भी बताए कि अगर लक्ष्य पूरा नहीं किया गया, तो क्या परिणाम होगा." उन्हें उम्मीद है कि अगले साल जुलाई तक ऐसा कानून आ जाएगा.

लेकिन इसके लिए उन्हें देश की मुखिया चांसलर अंगेला मैर्केल को संतुष्ट करना होगा. उन्होंने इस साल के शुरू में भी ऐसे कानून की कोशिश की थी लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.

रास्ते में राजनीति

जर्मनी के इकोनॉमी मंत्री और उप चांसलर फिलिप रोएसलर भी कोटे के खिलाफ हैं, उनका कहना है कि इसमें किसी कोटे की जरूरत नहीं है.

भारत में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला है, जब महिला आरक्षण बिल संसद में पेश किया गया है. 1996 में पहली बार इस बिल को पेश किया गया लेकिन 15 साल बाद भी यह कानून का रूप नहीं ले पाया है. कई बार फाड़े जाने और नकार दिए जाने के बाद पिछले साल भारतीय संसद में राज्यसभा ने इस बिल को पास कर दिया लेकिन लोकसभा में यह अभी भी पास नहीं हो पाया है. इसके तहत भारत में महिलाओं को संसद और राज्य विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण मिल सकेगा.

कुछ इसी तरह की राजनीति जर्मनी में भी होती दिख रही है और कंपनियों में महिलाओं को अधिकार मिलने का रास्ता इतना आसान नहीं है.

रिपोर्टः टोबियास ओएलमायर (ए जमाल)

संपादनः ए कुमार

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