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जर्मनी में भी है निरक्षरता

७ अक्टूबर २०११

जर्मनी में निरक्षरों की संख्या अब तक अनुमान से कहीं ज्यादा है. हैम्बर्ग विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए एक अध्ययन का कहना है कि यह हाल तब है जब देश में साक्षरता कोर्सों की कमी नहीं है.

तस्वीर: picture alliance/dpa

फिर से लिखने पढ़ने सीखने की संभावना होने के बावजूद बहुत से लोग उसका उपयोग नहीं करते क्योंकि उन्हें अपनी कमजोरी स्वीकार करने में शर्म आती है. उन्हें लगता है कि लोग क्या कहेंगे. फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि अनिवार्य शिक्षा वाले जर्मनी में स्कूल पास करने वाले बहुत से छात्र पढ़ लिख क्यों नहीं सकते.

अक्षर तैरते हैं, झिलमिलाते हैं, एक दूसरे के ऊपर आते-जाते हैं. वे ऐसे घूमते फिरते हैं जैसे कागज के ऊपर कीड़े. बच्चा उसे रोकना चाहता है. एक दूसरे के साथ जोड़कर दोहा बनाना चाहता है, लेकिन अक्षर हाथ से ऐसे फिसल जाते हैं जैसे छोटी मछली. परेशान होकर बच्चा फिर से उन अक्षरों को साथ लाकर मायने देना चाहता है, लेकिन वे स्केचों का अर्थहीन ढेर बने रहते हैं. टिम-थीलो फेलमर को ऐसा ही महसूस होता था जब उसे स्कूल में लिखना या पढ़ना पड़ता था. उसकी गिनती पहले जर्मनी के फंक्शनल निरक्षरों में होती थी. ऐसे लोग एकाध वाक्य पढ़ सकते हैं या लिख सकते हैं, लेकिन उससे ज्यादा पढ़ने की हालत में नहीं होते. मसलन वॉशिंग मशीन या वैक्यूम क्लीनर के मैनुअल को.

तस्वीर: picture-alliance/ dpa

टिम फेलमर को दूसरी क्लास में ही डिसलेक्सिया की बीमारी का पता चला था. आज वे सफल लेखक हैं प्रकाशक हैं लेकिन स्कूल के दिनों की उन्हें बहुत याद नहीं है. वह कहते हैं, "उन दिनों मैं भारी बोझ में जीवन काट रहा था. एक ओर मुझे बहुत कुछ नहीं आता था तो दूसरी ओर मैं अपनी मुश्किलों को छुपाने की कोशिश करता था." उन्हें हमेशा यह डर लगा रहता था कि कहीं पकड़े न जाएं.

हैम्बर्ग विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार जर्मनी में 75 लाख लोग व्यावहारिक निरक्षर हैं. उनमें से 43 लाख की मातृभाषा जर्मन है. इस अध्ययन के हिसाब से जर्मनी में काम करने वाले लोगों का 14 फीसदी हिस्सा व्यावहारिक रूप से निरक्षर है. इसके बावजूद वे किसी तरह से काम चला रहे हैं.

जो लोग पढ़ लिख नहीं सकते वे रोजमर्रा के जीवन में पढ़ने या लिखने से बचने की कोशिश करते हैं. इसके लिए विभिन्न नुस्खों और बहानों का इस्तेमाल करते हैं. मसलन कोई फॉर्म भरना हो तो चश्मा न होने का बहाना करते हैं या फिर हाथ में चोट का. रोजाना के कामकाज में जरूरी टेक्स्ट को वे रट जाते हैं ताकि उसे उन्हें पढ़ना न पड़े.

इस तरह वे सालों तक अपनी कमजोरी को अपने सहकर्मियों, दोस्तों और परिजनों से भी छुपा ले जाते हैं. सामाजिक रूप से अलग थलग होने का डर उन्हें सताता है, इसलिए साक्षरता कोर्स में भाग लेने से भी डरते हैं. जर्मन साक्षरता और बेसिक शिक्षा संघ के संस्थापक पेटर हुबरटुस कहते हैं, "जर्मनी में दिक्कत यह है कि बहुत हिम्मती लोग नहीं हैं जो चल रहे कोर्स में भाग लें. इस समय बस 20 हजार लोग ऐसे कोर्स में भाग ले रहे हैं."

टिम फेलमर कामयाब रहे हैं. उन्होंने ऑटो मेकैनिक का प्रशिक्षण लेने के बाद कुछ दूसरे पेशों में हाथ आजमाया. लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली क्योंकि वे पढ़ लिख नहीं सकते थे. लेकिन समय बीतने के साथ इस समस्या से निबटने की इच्छा बढ़ती गई. उन्होंने 25 की उम्र में एक कोर्स शुरू किया और उसके बाद सालों तक सीखते रहे. बीच बीच में प्राइवेट टीचर से भी. वह बताते हैं, "इसके अलावा मैंने कंप्यूटर प्रोग्राम जैसे तकनीकी साधनों की मदद भी ली."
बहुत से निरक्षर लोग इसके लिए खुद को दोष देते हैं. लेकिन टिम फेलमर स्कूल व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं. ज्यादा बच्चों की क्लास शिक्षकों के लिए कमजोर बच्चों को प्रोत्साहन देने की गुंजाइश नहीं छोड़ती. टिम फेलमर को पढ़ना और लिखना सीखने में दस साल लग गए. लंबा समय, लेकिन उनके लिए फायदेमंद. वह कहते हैं, "मैं इस समस्या को झेल रहे लोगों से कहूंगा कि यह करना बहुत जरूरी है. भले ही यह लंबा और मुश्किल रास्ता हो, लेकिन इसका लाभ मिलता है."

रिपोर्टः मेहरनूश एंतेजारी/मझा

संपादनः वी कुमार

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