जर्मनी में मीट लगातार सस्ता हो रहा है. इससे ग्राहकों को तो फायदा हो रहा है लेकिन किसान और पर्यावरणविद सुपरमार्केट में मीट के कम दामों को लेकर परेशान हैं. सरकार अब किसान और रिटेलर, दोनों से बात कर रही है.
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जर्मनी की खाद्य और कृषि मंत्री यूलिया क्लोएक्नर कहती हैं, "जब किसान और रिटेलरों के बीच वार्ता की बात आती है तो स्थिति हाथी और चींटी जैसी है." पिछले कई महीनों से किसान नए पर्यावरण संरक्षण कानूनों और जर्मनी के बड़े रिटेलरों की किफायती कीमतें निर्धारित करने वाली नीतियों का विरोध कर रहे हैं. इस विरोध ने सत्ताधारी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन की नेता क्लोएक्नर का ध्यान खींचा है.
कृषि मंत्री का कहना है कि वह उन किसानों की मदद करना चाहती हैं जो आल्डी, लिडल, नेटो और पेनी जैसे सुपरमार्केट्स में मीट के घटते दामों के कारण लगातार दबाव का सामना कर रहे हैं. जर्मनी में यह समस्या नई नहीं है. ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब दूध से बनने वाले उत्पादों के दामों पर खींचतान राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में थी. उस वक्त दूध उत्पादक किसानों ने शिकायत की थी कि उनका मुनाफा इतना कम होता है कि कभी कभी तो लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है.
क्लोएक्नर ने यूरोपीय संघ के उन नियमों को लागू करने की धमकी दी है जो "अनुचित प्रतिद्वंद्विता" और कीमतों में बड़ी गिरावट को रोकने के लिए बनाए गए हैं. लेकिन सुपरमार्केट चेन इसका तीखा विरोध कर रहे हैं. सोमवार को रिटेल सेक्टर और खाद्य उद्योग के प्रतिनिधियों की बर्लिन में चांसलर ऑफिस में बैठक हुई. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने दोनों पक्षों की बात सुनने के लिए यह बैठक बुलाई थी.
सबसे ज्यादा मीट कहां खाया जाता है? चलिए जानते हैं संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के आंकड़े क्या कहते हैं. गौर करने वाली बात यह मांस में चिकन और रेड मीट को ही शामिल किया जाता है. मछली या अन्य सीफूड उसमें नहीं आते.
अमेरिका
सालाना प्रति व्यक्ति 120 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Colourbox
कुवैत
सालाना प्रति व्यक्ति 119.2 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Yasser Al-Zayyat/AFP/Getty Images
ऑस्ट्रेलिया
सालाना प्रति व्यक्ति 111.5 किलो मांस की खपत
तस्वीर: AFP/Getty Images
बाहमास
सालाना प्रति व्यक्ति 109.5 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Getty Images/AFP/G. De Cardenas
लग्जमबर्ग
सालाना प्रति व्यक्ति 107.9 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Reuters
न्यूजीलैंड
सालाना प्रति व्यक्ति 106.4 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Imago
ऑस्ट्रिया
सालाना प्रति व्यक्ति 102 किलो मांस की खपत
तस्वीर: AP
फ्रेंच पॉलिनेसिया
सालाना प्रति व्यक्ति 101.9 किलो मांस की खपत
तस्वीर: picture-alliance
बरमुडा
सालाना प्रति व्यक्ति 101.7 किलो मांस की खपत
तस्वीर: picture alliance/CTK/digifoodstock
अर्जेंटीना
सालाना प्रति व्यक्ति 98.3 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Nelson Almeida/AFP/Getty Images
स्पेन
सालाना प्रति व्यक्ति 97 किलो मांस की खपत
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel/T. Llabres
इस्राएल
सालाना प्रति व्यक्ति 96 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Reuters/A. Awad
डेनमार्क
सालाना प्रति व्यक्ति 95.2 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Nils Meilvang//AFP/Getty Images
कनाडा
सालाना प्रति व्यक्ति 94.4 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Reuters/M. Rehle
सेंट लुसिया
सालाना प्रति व्यक्ति 93.6 किलो मांस की खपत
तस्वीर: picture alliance/Food and Drink Photos/C. Bozzard-Hill
पुर्तगाल
सालाना प्रति व्यक्ति 93.4 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Imago/Peter Widmann
सेंट विंसेंट एंड द ग्रेनाडिनेंस
सालाना प्रति व्यक्ति 91.4 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Jenifoto - Fotolia
नीदरलैंड्स एनटाइल्स
सालाना प्रति व्यक्ति 91 किलो मांस की खपत
तस्वीर: Fotolia/anna liebiedieva
इटली
सालाना प्रति व्यक्ति 90.7 किलो मांस की खपत
स्लोवेनिया
सालाना प्रति व्यक्ति 88.3 किलो मांस की खपत
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जर्मन सरकार की चुनौती ये है कि "जर्मन बाजार में उच्च गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों के पर्याप्त दाम कैसे निर्धारित किए जाएं." किसानों की शिकायत ये है कि एक तो उन्हें उनके उत्पादों के लिए पर्याप्त कीमत नहीं मिल रही है, दूसरी ओर उन पर पर्यावरण शर्तों को लागू करने के लिए दबाव डाला जा रहा है जो उनकी लागत को और बढ़ाते हैं. सुपरमार्केट चेनों की दलील ये है कि खाद्य पदार्थों की किफायती कीमतें देश के गरीब लोगों को खाद्य सुरक्षा देने के लिए बहुत जरूरी है.
बड़ा सवाल यह है कि कि किसानों और सुपरमार्केटों के हितों के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए. जर्मनी में चार सबसे बड़े सुपरमार्केट चेन्स का बाजार पर दबदबा है. बाजार के 85 फीसदी हिस्से पर उनका कब्जा है और उनके स्टोरों में बेचे जाने वाला 70 फीसदी मीट रियायती दामों पर बेचा जाता है, जिससे मीट उत्पादकों पर ज्यादा बोझ पड़ रहा है. फिलहाल सुपरमार्केट चेनों ने इलाके की खाद्य सामग्रियों का हिस्सा बढ़ाने का वचन दिया है. अनुचित कारोबारी बर्ताव की शिकायत करने के लिए एक संस्था बनाई गई है. अब सप्लायर्स को पैसा पाने के लिए महीनों का इंतजार नहीं करना होगा.
2018 में जर्मनी के सबसे बड़े मीट उत्पादकों ने लगभग 27 अरब यूरो के उत्पाद बेचे. लेकिन इस दौरान भी ब्रीडर और बूचड़खानों में काम करने वाले लोग कम वेतन की समस्या से जूझ रहे थे. पर्यावरणविद जानवरों को मीट फैक्ट्रियों में काटे जाने से पहले बहुत ही छोटी जगहों में रखे जाने की शिकायतें भी करते हैं. जर्मनी में शाकाहारी और वेगन खाने का चलन बढ़ रहा है. फिर भी मीट को लेकर प्रेम बरकरार है.
2019 के पहले छह महीने में जर्मनी में मीट के लिए तीन करोड़ सूअरों, गायों, भेड़ों और बकरियों को काटा गया. जर्मन लोगों को सस्ते दामों में मीट खरीदने की आदत रही है. वे पड़ोसी यूरोपीय देशों के मुकाबले ज्यादा खाना इस्तेमाल करते हैं लेकिन पैसा उनके मुकाबले कम चुकाते हैं.
जर्मनी के शहरों में बेकरियां और मीट शॉप बंद हो रही हैं. अधिकारी परेशान हैं. ये जर्मनी की शहर संस्कृति का हिस्सा हैं. पान और चाय की दुकानों की तरह यहां लोग मिलते हैं, इन दुकानों के बंद होने से सामाजिक जीवन खत्म हो जाएगा.
तस्वीर: DW/K. Palme
दस साल में एक तिहाई बंद
जर्मनी में बेकरियां खत्म हो रही है. सदियों से ये पारिवारिक कारोबार का प्रतीक रही हैं. लेकिन अब ये धीरे धीरे मर रही हैं. पिछले दस सालों में करीब एक तिहाई बेकरियां और कसाईखाने बंद हो गए हैं.
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पांच हजार से ज्यादा दुकानें बंद
जर्मनी में 2008 में 15, 337 बेकरियां रजिस्टर्ड थीं. 2018 के अंत में सिर्फ 10,926 बच गईं. इसी तरह 18,320 मीट की दुकानें थीं, जो पिछले साल के अंत में सिर्फ 12,897 रह गईं. और दुकानों के बंद होने का ट्रेंड जारी है.
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जीवन का केंद्र
शहर हो या देहात, बेकरी और मीट की दुकान, दोनों ही सामाजिक जीवन के केंद्र में होती थीं. यहां से लोग सुबह के नाश्ते के लिए ब्रेड खरीदते थे, शाम के नाश्ते के लिए केक और रात के खाने के लिए रोटियां. और खाने में मीट वाला हिस्सा मीट की दुकान से आता था.
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बंद होने की वजहें
इन दुकानों के बंद होने की एक नहीं, कई वजहें हैं. सबसे प्रमुख वजह बड़े सुपर बाजारों से मिली प्रतिस्पर्धा है. बेकरी की दुकानें छोटे कारोबार वाली दुकानें थीं. सुपर बाजारों में बड़े पैमाने पर बेकरी के उत्पाद मिलने लगे जो काफी किफायती होते थे.
तस्वीर: DW/E. Schumacher
क्वालिटी पर समझौता नहीं
ये प्रतिस्पर्धा एकमात्र कारण नहीं. सुपर बाजार कितना ही सस्ता ब्रेड बेच सकते हों, उसमें वो स्वाद नहीं जो पड़ोस के बेकर मास्टर के बनाए ब्रेड का होता था. लेकिन परिवार में दुकान को आगे बढ़ाने वाले कोई न हो तो क्या करें.
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रोजगार की संभावनाएं
जर्मनी की ज्यादातर बेकरियां 200 से 300 सालों से पारिवारिक मिल्कियत में चल रही है. पहले लोग पेशे से प्यार के कारण या और कोई संभावना ना होने के कारण इसी पेशे में रहते थे. लेकिन अब रोजगार की दूसरी ज्यादा धन देने वाले मौके हैं.
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आबादी का असर
इन दुकानों के बंद होने का एक कारण उत्तराधिकारियों का अभाव भी है. पिछले सालों में बहुत से विदेशियों को इस पेशे में आकर्षित करने की कोशिश हुई है. कामगारों की कमी पिछले सालों में आए आप्रवासियों से भी पूरी की जा रही है.
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कामगारों की कमी
इस बीच प्रतिस्पर्धा सिर्फ कारोबार में ही नहीं है बल्कि कर्मचारियों की भर्ती में भी है. सभी उद्यम और कारोबार नए कर्मचारियों या व्यवसायिक प्रशिक्षण पाने वालों की तलाश में हैं. जर्मन व्यवसायिक प्रशिक्षण संस्थान के अनुसार पिछले साल ट्रेनिंग की 906 सीटें खाली रहीं.
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मीट की दुकानें
यही हाल मीट वाले उद्यमों का भी रहा. जर्मनी में मीट के दुकानों की भी परंपरा रही है. छोटे इलाकों में मीट की दुकानें स्थानीय समृद्धि के साथ जुड़ी रही हैं. जैसे जैसे पैसा आता गया लोगों का खानपान भी बेहतर होता गया..
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मीट उद्योग भी परेशान
लेकिन मीट उद्योग में भी युवा कर्मियों की समस्या रही. वहां भी 894 सीटों पर नए प्रशिक्षुओं की भर्ती नहीं हो पाई. कामगार नहीं मिलने के अलावा बहुत से लोग पैकेजिंग संबंधी नए कानूनों जैसी नौकरशाही बाधाओं के कारण भी दुकान बंद कर रहे हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
बड़े हो रहे हैं उद्यम
छोटी दुकानें बंद हो रही हैं और उनकी जगह दुकानों का आकार बड़ा हो रहा है. मांस उद्योग के अधिकारी हैर्बर्ट डोरमन बताते हैं कि 1970 में हर उद्यम में 6 कर्मचारी होते थे जबकि 2018 में हर उद्यम में 11.7 कर्मचारी काम करते थे.