किसी भी इंसान की मेहनत के बदले मिलने वाली पगार की न्यूनतम सीमा तय कर दी गई है. उम्मीद की जा रही है कि इससे समाज में अमीर और गरीब लोगों के बीच की खाई कुछ हद तक पट सकेगी.
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जर्मनी की चांसलर अंगेला मेर्केल ने निर्णय लिया है कि 2015 से देश में किसी को भी एक घंटे के काम के लिए साढ़े आठ यूरो से कम तनख्वाह नहीं दी जा सकती. जर्मनी में इससे करीब 37 लाख लोगों को फायदा मिलने की उम्मीद है. इस मुद्दे पर सत्ताधारी एसपीडी और सीडीयू पार्टी में दिसंबर से विचार विमर्श चल रहा था. मेर्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी के कई कानूनविद् लंबे समय से इसके विरुद्ध रहे. इस मुद्दे पर मतभेद के चलते देश में दो खेमे बन गए. एक पक्ष का मानना है कि इससे श्रम बाजार ज्यादा न्यायोचित बनेगा, वहीं दूसरा पक्ष कई नौकरियां खोने का डर जताता रहा है. कई दूसरे यूरोपीय देशों की तरह ही जर्मनी अब तक कोई न्यूनतम मजदूरी तय करने के खिलाफ रहा था.
अभी भी न्यूनतम वेतन को कई शर्तों के साथ स्वीकृति मिली है. कई श्रम संगठनों का कहना है कि इन शर्तों के कारण कई जरूरतमंद लोग न्यूनतम मजदूरी के दायरे से बाहर रह जाएंगे. अब तक देश में वेतन तय करने से जुड़े फैसले ट्रेड यूनियनों और कर्मचारियों के बीच ही तय होते आए हैं. जर्मनी की एक बड़ी ट्रेड यूनियन 'वेर्डी' के प्रमुख फ्रांक बेसिर्स्के ने बताया, "इतने सारे अपवाद बनाके तो संगठन ने बड़े ही क्रूर तरीके से न्यूनतम मजदूरी को अपंग बना दिया है." यह शर्तें कुछ ऐसी हैं कि कम अवधि के लिए कहीं काम करने वाले इंटर्न, 18 साल से कम उम्र के ट्रेनी या फिर लंबे समय से बेरोजगार लोगों को इस न्यूनतम सीमा से कम पगार दी जा सकेगी. इसके अलावा कई सेक्टरों में इस नियम को लागू करने के पहले कंपनियां दो साल तक का समय ले सकती है.
मशीनों पर हमले से न्यूनतम वेतन तक
मजदूर आंदोलनों और उनके संगठनों ने पिछले 150 साल में बहुत कुछ हालिस किया. उनकी जड़ें औद्योगिक काल के उन आंदोलनों में है जब मजदूरों ने कारखानों के मालिकों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया था.
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फायदे और नुकसान
18वीं सदी में ब्रिटेन में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति दुनिया के लिए तकनीकी प्रगति लेकर आई लेकिन साथ सामाजिक समस्याएं भी. मजदूर औद्योगिक उत्पादन की रीढ़ थे, लेकिन वे मालिकों के शोषण का विरोध कर रहे थे. ब्रिटेन में उन्होंने रोजगार खाते मशीनों को तोड़ना शुरू कर दिया.
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कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो
उद्योगों में काम करने वाले लोगों की भी हालत खराब थी. उन्हें घंटों काम करना पड़ता, बहुत कम तनख्वाह मिलती और शायद ही अधिकार थे. उन्होंने संगठित होना शुरू किया. कार्ल मार्क्स और फ्रीडरिष एंगेल्स ने शोषित वर्ग को एक कार्यक्रम दिया और एकजुट होने की अपील की.
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राजनीतिक हुआ मजदूर आंदोलन
मजदूरों के कई संगठनों ने मिल कर 1864 में फर्स्ट इंटरनेशनल बनाया. साथ ही विल्हेल्म लीबक्नेष्ट और ऑगुस्ट वेबेल के नेतृत्व में जर्मन लेबर ऑर्गेनाइजेशन और सोशल डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी जैसे दलों का गठन हुआ. इन दोनों पार्टियों से आज की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी बनी.
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सोशल डेमोक्रैट बनाम कम्युनिस्ट
जर्मन सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी दूसरे देशों के लिए आदर्श बनी. मजदूरों के लिए उसका संघर्ष विचारधारा से प्रेरित था. पहले विश्व युद्ध के बाद बहुत से यूरोपीय देशों में मजदूर आंदोलन सोशल डेमोक्रैटों और कम्युनिस्टों में बंट गया. लेनिन ने कम्युनिस्ट क्रांति के बाद सोवियत संघ का गठन किया.
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नाजियों ने लगाया प्रतिबंध
विभाजन के बावजूद 1920 के दशक में मजदूर आंदोलन चरम पर था. ट्रेड यूनियनों में सदस्यों का रिकॉर्ड बन गया. जर्मनी में नाजियों के सत्ता में आने पर इस पर रोक लग गई. आजाद ट्रेड यूनियनों को भंग कर दिया गया, नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ को फांसी दे दी गई.
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जीडीआर में विद्रोह
दूसरे विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों की निगरानी में ट्रेड यूनियनों को फिर से जायज करार दिया गया. जीडीआर में ट्रेड यूनियन महासंघ बना. 17 जून 1953 को लाखों कामगारों ने राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह किया. सोवियत सैनिकों ने विद्रोह को कुचल दिया. ट्रेड यूनियन सरकार के साथ रहा.
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मजदूर बिन मजदूर आंदोलन
लोकतांत्रिक देशों में 1945 के बाद से ट्रेड यूनियनों का महत्व गिरता गया है. कभी मजदूर आंदोलनों की नींव रखने वाले औद्योगिक कामगारों की तादाद लगातार गिरती जा रही है. इसके अलावा 60 और 70 के दशक से महिला और पर्यावरण आंदोलनों ने उसे पीछे धकेल दिया है.
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मजदूर नेता से राष्ट्रपति
राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर धूम मचाने वाला एक ट्रेड यूनियन है पोलेंड का सोलिदारनोस्क. 1980 में स्थापना के कुछ ही समय बाद वह जनांदोलन बन गया. उसने 10 साल बाद देश में राजनीतिक बदलाव में अहम भूमिका निभाई. उसके पहले नेता लेख वालेंसा 1990 में राष्ट्रपति बने.
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मौजूदा स्थिति
इन दिनों ट्रेड यूनियन और वामपंथी पार्टियां काम और जीवन की परिस्थितियों में बेहतरी के लिए संघर्ष करती हैं. मसलन वेतन की डंपिंग, दफ्तर में भेदभाव की समाप्ति और पर्याप्त पेंशन के लिए.
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अगले दो दशक में भारत में करीब 20 करोड़ लोग कामकाज करने की उम्र में होंगे. इतनी बड़ी आबादी को न्यायोचित वेतन मिले इसके लिए भारत में भी श्रम कानूनों में बड़े बदलावों की जरूरत है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन कानूनों में बदलाव करने के संकेत दिए हैं जो ब्रिटिश काल से चले आ रहे हैं. भारत के श्रम कानून बेहद जटिल हैं. वर्ल्ड बैंक ने 2014 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत का बाजार दुनिया के कुछ सबसे कम लचीले बाजारों में से एक है. इसकी वजह से मजदूरों और उन्हें काम देने वालों दोनों को समस्या होती है. जर्मनी की तर्ज पर ही भारत में भी श्रमिकों और कामगारों की स्थिति में सुधार के लिए कदम उठाने की सख्त जरूरत है.