जर्मनी यूरोप के सबसे संपन्न देशों में शामिल है. फिर भी जर्मनी का हर पांचवां बच्चा गरीबी में पलने बढ़ने पर मजबूर है. जानकारों का मानना है कि कोरोना संकट इस स्थिति को और बिगाड़ सकता है.
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जर्मनी के बेर्टल्समन फाउंडेशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश में 28 लाख बच्चे अपना जीवन गरीबी में बिता रहे हैं. रिपोर्ट में कहा गया है, "सालों से बच्चों की गरीबी का मुद्दा जर्मनी के लिए सबसे बड़ी सामाजिक चुनौतियों में से एक रहा है." साल 2014 से इस मामले में बहुत ही कम सुधार देखा गया है. इस रिपोर्ट के अनुसार 18 साल से कम उम्र के कुल 21.3 फीसदी बच्चे फिलहाल गरीबी का शिकार हैं.
इस शोध के लिए बच्चों की जिंदगी से जुड़े कई कारकों पर ध्यान दिया गया है. जिन परिवारों के पास आय का कोई जरिया नहीं है और जो सरकार द्वारा दी जाने वाली सोशल सिक्यूरिटी पर निर्भर हैं, उनके अलावा ऐसे परिवारों पर भी ध्यान दिया गया जिनकी आमदनी देश की औसत आमदनी की 60 प्रतिशत या उससे कम है. जर्मनी में उसे गरीबी रेखा माना जाता है और औसत राष्ट्रीय आय के 60 प्रतिशत के करीब रहने वाले लोगों के गरीबी रेखा के नीचे जाने का खतरा लगातार बना रहता है.
बैर्टल्समन फाउंडेशन की रिपोर्ट ने पाया कि गरीबी में रह रहे दो तिहाई बच्चे कभी इससे बाहर नहीं आ पाते हैं. भारत की तुलना में जर्मनी में गरीबी पहचानने के पैमाने अलग हैं. यहां उन लोगों को गरीब माना गया है जिनके पास ना गाड़ी है और ना ही घर में इस्तेमाल होने वाला जरूरी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण. ये लोग बाकियों की तरह छुट्टी बिताने के लिए कहीं घूमने नहीं जा पाते हैं और ना ही सिनेमा इत्यादि का खर्च उठा सकते हैं.
दुनिया के बच्चों को क्या क्या हक है
दुनिया में हर बच्चे के कुछ अधिकार हैं. संयुक्त राष्ट्र की बाल अधिकार संधि (1989) ने बच्चों के लिए राजनीतिक, आर्थिक, सेहत से जुड़े, सामाजिक और सांस्कृतिक 54 अधिकार तय किए हैं. यहां देखिए इनमें से कुछ प्रमुख अधिकारों को.
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नाम का हक
हर बच्चे का हक है कि उसके जन्म होते ही उसको रजिस्टर किया जाए, नाम और राष्ट्रीयता दी जाए, और अपने माता-पिता को जानने और उनकी परवरिश में रहने का मौका दिया जाए.
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मां बाप का साथ
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि कोई भी बच्चा अपने माता-पिता से उसकी मर्जी के खिलाफ अलग ना किया जाए. बच्चे को उसके मां बाप से तभी अलग किया जाए जब उस बच्चे के लिए यह नुकसानदेह हो गया हो.
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अपने हितों पर राय देना
हर बच्चे को हक है कि वो उनसे जुड़ी बातों पर वो अपनी राय जता सकते हैं. इसका मतलब है कि अगर कोई निर्णय कोर्ट कचहरी तक पहुंच जाए, तो उसमें बच्चे का पक्ष सुनना जरूरी है. उनकी राय को कितना महत्व दिया जाएगा यह उम्र और परिपक्वता पर निर्भर करता है.
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जनसंचार तक पहुंच
जनसंचार के माध्यम की भूमिका सभ्य समाज में अविवादित है. देशी और विदेशी संचार माध्यमों तक सभी बच्चों की पहुंच होनी चाहिए.
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हिंसा से बचाव
किसी भी प्रकार की मार पिटाई या उपेक्षा से बच्चों को बचाने की जिम्मेदारी माता-पिता, उनके शिक्षकों या अभिभावकों की है. इसे रोकने के लिए सरकार को कानूनी, प्रशासनिक नियम बनाने चाहिए और लोगों को इस बारे में जागरूक करना चाहिए.
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मुख्यधारा में रहने का अधिकार
दिमाग या शरीर से विकलांग बच्चों की जिंदगी भरपूर और अच्छी होनी चाहिए जिससे कि वो समाज का सक्रिय हिस्सा बन सकें.
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अच्छा स्वास्थ्य और सेवा
सरकार का फर्ज है कि बच्चें सबसे बेहतरीन व्यवस्थाओं में बड़े हों और उनके लिए स्वास्थ सेवा की कमी ना हो.
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शिक्षा का अधिकार
हर बच्चे को पढ़ने लिखने का हक है. इसके लिए प्राथमिक विद्यालयों में कोई फीस नहीं होनी चाहिए. बच्चों की हाजिरी यहां अनिवार्य है.
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सामुदायिक पहचान का हक
अगर कोई बच्चा अल्पसंख्यक या आदिवासी समूह से आता है, तो उसके धर्म, भाषा और संस्कारों का पूरी तरह से सम्मान होना चाहिए.
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खेलकूद और आराम
बच्चों को यह हक है कि उनकी दिनचर्या में आराम, खेल और मौज के लिए पर्याप्त समय और सुविधा हो. जितना संभव है इसके लिए बच्चों को बढ़ावा देना चाहिए.
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उत्पीड़न से सुरक्षा
कोई बच्चा अपहरण, व्यापार और यौन उत्पीड़न का शिकार ना बने यह सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है. चाहे यह उत्पीड़न मानसिक हो या फिर शारीरिक और भले ही इसमें परिवार के लोग शामिल हों या नहीं.
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मौत की सजा नहीं
अगर बच्चों से बड़ी गलतियां या अपराध हो जाएं तो भी उन्हें मौत की सजा या उम्रकैद नहीं दी जा सकती है.
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ताजा रिपोर्ट में कहा गया है, "बच्चों में गरीबी एक ऐसी समस्या है जिसे सुलझाया नहीं जा पा रहा है और जिसका बच्चों के भविष्य पर, उनके कल्याण और शिक्षा पर बुरा असर हो रहा है." रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि कोरोना संकट इस स्थिति को बदतर कर सकता है. दरअसल गरीबी में बच्चों को पाल रहे ज्यादातर लोग वे हैं जो किसी तरह की पार्ट टाइम नौकरियां करते हैं. कोरोना संकट के दौरान ऐसे लोगों की आमदनी पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है.
बेर्टल्समन फाउंडेशन के अध्यक्ष यॉर्ग ड्रेगर का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा दी जाने वाली कई सेवाएं भी लोगों तक नहीं पहुंच सकी. ऐसे में गरीबी में जी रहे इन बच्चों पर काफी असर पड़ा. इन बच्चों के लिए घर पर रह कर पढ़ाई करना भी मुश्किल था क्योंकि स्कूल ऑनलाइन क्लास चला रहे थे और इन बच्चों के परिवारों के पास ऑनलाइन पढ़ाई के सभी जरूरी साधन नहीं थे. रिपोर्ट के अनुसार सोशल सिक्यूरिटी पाने वाले परिवारों में 24 फीसदी बच्चों के पास कंप्यूटर और इंटरनेट नहीं था. ड्रेगर का आरोप है कि सरकार इस समस्या से निपटने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है. उन्होंने कहा, "बच्चों को गरीबी से बाहर निकालना राजनीतिक प्राथमिकता होनी चाहिए, खास कर कोरोना के इस दौर में."