कुछ हफ्तों के अंतराल के बाद एक बार फिर जर्मनी से अफगानी शरणार्थियों को लौटाये जाने का सिलसिला शुरु होने जा रहा है. वापसी एक हफ्ते में शुरु होने की संभावना है.
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काबुल में सिलसिलेवार हमलों के बाद जर्मनी से अफगान शरणार्थियों को लौटाये जाने का कार्यक्रम अस्थायी रूप से रोक दिया गया था. कुछ हफ्तों की रोक के बाद एक बार फिर जर्मन सरकार उन्हें लौटाये जाने की प्रक्रिया शुरु कर सकती है. एक हफ्ते के भीतर उन्हें जर्मनी से अफगानिस्तान भेजे जाने के लिए कई और विमानों का इंतजाम किया जा रहा है. यह ऐसे अफगानी नागरिक हैं जिसका जर्मनी में शरण का आवेदन अस्वीकार कर दिया गया है.
जून की शुरुआत में ही अफगानिस्तान की राजधानी में बहुत बड़ा आत्मघाती हमला हुआ था. इसके बाद जर्मनी की केंद्रीय और राज्य सरकारों ने निर्वासन की प्रक्रिया को स्थगित करने का फैसला किया था. तय किया गया था कि पहले जर्मन विदेश मंत्रालय अफगानिस्तान में सुरक्षा हालातों का मूल्यांकन करेगा और उसी के आधार पर फिर से प्रक्रिया शुरु करने का समय चुना जाएगा. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने कहा था कि यह प्रक्रिया जुलाई तक स्थगित रखी जा सकती है.
लेकिन जर्मनी की स्थानीय मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया है कि काबुल के लिए ऐसी पहली उड़ान सात दिन के भीतर भेजी जा सकती है. अभी तक इन खबरों की सरकार की ओर से पुष्टि नहीं की गयी है.
मैर्केल ने कहा था कि ऐसे अफगानियों को लौटाया जाना जारी रहेगा, जिन्होंने अपराध किया है, किसी तरह से सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं या जो अपनी सही पहचान जाहिर नहीं कर रहे हैं. कई जर्मन नेता मैर्केल सरकार की इस नीति की आलोचना करते आये हैं कि उन्होंने अफगानिस्तान में सुरक्षा कारणों का हवाला देकर उनके निर्वासन को क्यों रोका.
अफगानिस्तान में कट्टरपंथी इस्लामिक अभियान चलाने वाले ज्यादातर पश्तून मूल के निवासी हैं. उनका देश के चालीस फीसदी इलाके पर या तो कब्जा है या काफी प्रभाव है. करीब सोलह साल पहले अमेरिका के नेतृत्व में अफगानिस्तान पर हुए हमले के बावजूद वो इलाके में अपनी मजबूत स्थिति को बरकरार रखे हुए हैं. जर्मन साप्ताहिक अखबार डी वेल्ट अम सोनटाग ने केंद्रीय पुलिस के हवाले से आंकड़ा दिया है कि 2017 के पहले चार महीनों में जर्मनी ने 8,620 विफल अफगान शरणार्थी आवेदनकर्ताओं को लौटाया गया था. इसके अलावा अप्रैल तक ही 11,195 नाकाम शरणार्थी स्वेच्छा से देश वापस चले गये थे. बीते पूरे साल में 25,000 से भी अधिक अफगानी निर्वासित किये गये थे. इनके अलावा करीब 54,006 लोग खुद वापस लौट जाने के वॉलंटरी प्रोग्राम के तहत यात्रा का किराया लेकर अपने देश चले गये थे.
अलेस्टेयर वाल्श/आरपी
अफगानिस्तान का अंतहीन संघर्ष
अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण को 16 साल बीत गये हैं. युद्ध प्रभावित यह देश आज भी इस्लामी आतंक की चपेट में है. वहां लगातार आतंकी हमले होते रहते हैं.
तस्वीर: picture alliance/Photoshot
'ग्रीन जोन'
काबुल के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले इलाके डिप्लोमैटिक क्वार्टर में घुसकर 31 मई को आतंकियों ने बड़ा धमाका किया. कम से कम 90 लोगों की जान गयी. जर्मन दूतावास को खासतौर पर नुकसान पहुंचा. इसकी जिम्मेदारी किसी ने भी नहीं ली है.
तस्वीर: REUTERS/O. Sobhani
हमलों की लंबी श्रृंखला
अफगान राजधानी पर पहले भी ऐसे हमले होते आये हैं. मई में इसके पहले भी आईएस के एक हमले में आठ विदेशी सैनिक मारे गये थे. मार्च में विद्रोहियों के एक हमले में अफगान सेना के अस्पताल में कम से कम 38 लोगों की जान गयी थी.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Hossaini
"ऑपरेशन मंसूर"
इसी साल अप्रैल में अफगान तालिबान ने प्रण लिया था कि वे अफगान सुरक्षा बलों और गठबंधन सेनाओं पर हमले तेज करेंगे. इसे वे सालाना वसंत आक्रमण कहते हैं, जिसे उन्होंने "ऑपरेशन मंसूर" नाम दिया. मंसूर तालिबानी नेता था, जो 2016 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया.
तस्वीर: Reuters
ट्रंप की अफगान नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अब तक इसकी घोषणा नहीं की है. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि उनकी नीति काफी हद तक पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा जैसी ही होगी. वे भी अफगान सरकार और तालिबान के बीच सुलह का रास्ता चाहेंगे.
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अफगान शांति प्रक्रिया
अफगानिस्तान पर्यवेक्षक कहते हैं कि आतंकी समूह इस समय शांति वार्ता में दिलचस्पी नहीं दिखाएगा क्योंकि फिलहाल वे अफगान सरकार पर भारी पड़ रहे हैं. 2001 के बाद से इस समय उनके कब्जे में सबसे ज्यादा अफगान जिले हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Shirzad
पाकिस्तानी मदद
पाकिस्तान पर आरोप लगते हैं कि वह तालिबान का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान में भारत का असर कम करना चाहता है. हाल ही में पाकिस्तान तालिबान के पूर्व प्रवक्ता एहसानुल्लाह एहसन (तस्वीर में) पकड़ा गया लेकिन फिर पाकिस्तान ने उसे माफ कर दिया जब उसने भारत पर तालिबान की मदद का आरोप लगाया.
तस्वीर: Getty Images/AFP/H. Muslim
वारलॉर्ड्स की भूमिका
तालिबान के अलावा अफगान वारलॉर्ड्स का आज भी देश में काफी प्रभाव है. 20 साल बाद हिज्बे इस्लामी के नेता गुलबुद्दीन हिकमत्यार राजनीति में कदम रखने के लिए काबुल लौटे. सितंबर 2016 में अफगान सरकार ने उनके साथ समझौता किया ताकि दूसरे वारलॉर्ड्स और आतंकी समूह अफगान सरकार के साथ काम करें.
तस्वीर: Reuters/O.Sobhani
जुड़े हैं रूस के हित
रूस ने अफगानिस्तान के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ करने पर ध्यान दिया है. कई सालों तक दूरी बनाये रखने के बाद अब रूस अफगानिस्तान पर "उदासीन" रवैया नहीं रखना चाहता. रूस ने अफगानिस्तान में कई वार्ताएं आयोजित कीं, जिसमें चीन, पाकिस्तान और ईरान को शामिल किया.
तस्वीर: picture-alliance/A. Druzhinin/RIA Novosti
अप्रभावी सरकार
राष्ट्रपति अशरफ गनी को व्यापक समर्थन हासिल नहीं है और अफगान सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं. देश में सत्ता हथियाने को लेकर एक अंतहीन सा दिखने वाला संघर्ष जारी है. (शामिल शम्स/आरपी)