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जर्मन चुनाव: अंगेला मैर्केल की विदेश नैतिक विरासत

क्रिस्टॉफ हासेलबाख
८ सितम्बर २०२१

अपने 16 सालों के कार्यकाल के दौरान अंगेला मैर्केल ने जर्मन विदेश नीति पर स्पष्ट छाप छोड़ी है. दुनियाभर के संकटों में जर्मनी की भूमिका तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन उसी रप्तार में चुनौतियां भी बढ़ी हैं.

अंगेला मैर्केल ने बार बार दिखाया कि वे विश्व मंच की प्रमुख नेता हैंतस्वीर: picture alliance / Christian Charisius/dpa

साल 2005 में जब अंगेला मैर्केल पहली बार चांसलर बनीं तो जर्मनी के बाहर मुश्किल से ही कोई जानता था कि वे कौन हैं. और शायद ही किसी ने सोचा था कि वे दुनिया की राजनीति को कितना बदल देंगी. हालांकि उन्होंने जल्द ही खुद को घरेलू और बाहरी मसलों में मजबूत किया. शुरुआत से ही वे विदेश मंत्री के जिम्मे काम छोड़ने के बजाए अपनी सरकार कr विदेश नीति की खुद ही देखरेख कर रही हैं.

2007 में बाल्टिक तट पर बने हाइलिगेनडाम रिसॉर्ट में आयोजित जी8 शिखर सम्मेलन की मेजबान के तौर पर वे शुरुआत से ही दुनिया के सबसे प्रमुख राष्ट्राध्यक्षों और सरकार के प्रमुखों के साथ आत्मविश्वास से काम कर रही हैं. उस दौर को पीछे मुड़कर देखें तो वहां दुनिया की एक मुकम्मल तस्वीर बनती है.

जर्मनी ने यूरो क्राइसिस के दौरान बढ़त बनाई

हालांकि चांसलर बनने के बाद उन्हें जल्द ही संकट मोड में जाना पड़ा था, जब 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट का दौर आया. यूरोपीय एकीकरण के सबसे मजबूत प्रतीकों में से एक यूरो पर दबाव बढ़ गया. मैर्केल ने चेतावनी दी, "अगर यूरो फेल होता है तो यूरोप भी फेल हो जाएगा." मैर्केल के कार्यकाल में यूरोपीय संघ में सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश (जर्मनी) ने अनिच्छा से यूरोप का नेतृत्व किया. एक तरफ जर्मन सरकार ने कर्ज से दबे देशों पर कड़े आत्मसंयम और सुधार उपाय लादे, जैसे ग्रीस पर. इस कदम की आज भी कुछ आलोचक द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी के कब्जे से तुलना करते हैं. वहीं दूसरी ओर मैर्केल ने इन यूरोपीय देशों की भारी मदद भी जारी रखी. जिससे अन्य देशों के कर्ज के लिए जर्मनी की देनदारी बड़े स्तर पर बढ़ी.

मैर्केल का अपने देश में पहला जी आठ सम्मेलन तस्वीर: Reuters

कुल मिलाकर बात यह है कि बाकी यूरोपीय संघ ने जर्मनी की नई नेतृत्व की भूमिका को स्वीकारा तो इसकी वजह भी मैर्केल का संवेदनशील व्यवहार रहा. जैसा कि हाले विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञानी जोहानेस वारविक ने डीडब्ल्यू से एक इंटरव्यू में कहा, "मैर्केल 'संयम की संस्कृति' को 'जिम्मेदारी की संस्कृति' के साथ जोड़ती हैं."

फ्रांस और जर्मनी: पड़ोसी और सहयोगी, थोड़े दूर-थोड़े पास

जर्मनी की बढ़ती भूमिका ने फ्रांस के साथ शक्ति असंतुलन भी पैदा किया. मैर्केल इस करीबी दोस्त के लिए स्पष्ट रूप से प्रतिबद्ध थीं. तत्कालीन राष्ट्रपति निकोला सारकोजी के साथ उनके अच्छे सहयोग को देखते हुए मीडिया ने दोनों के नाम मिलाकर एक नए शब्द 'मर्कोजी' की ईजाद कर दी. लेकिन बहुत बार उन्होंने कई अलग-अलग फ्रांसीसी राष्ट्रपतियों की मांग पर ध्यान भी नहीं दिया.

हाल ही में ऐसा इमानुएल माक्रों के ईयू को मजबूत बनाने की मांग के साथ हुआ. उनकी मांग यूरोजोन का वित्त मंत्री बनाए जाने की थी, जो विफल रही. जर्मन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के हेनिंग हॉफ के मुताबिक, "यह 'एक चूका हुआ अवसर' रहा." राजनीति विज्ञानी वारविक ने डीडब्ल्यू को बताया कि फ्रांस से अलगाव बढ़ रहा है और यह भी जोड़ा कि यूरोपीय संघ को मजबूत करने के बारे में 'मैर्केल की कोई महान कल्पना' नहीं थी.

चीन पर मुग्ध

इसके अलावा चांसलर ने पहले की सरकारों की विदेश नीति को जारी रखा. जहां संभव हुआ सभी पक्षों के साथ उद्देश्यपूर्ण, व्यावसायिक, बिना बड़े कदम उठाए अच्छे समझौते किए गए, जिनमें हमेशा जर्मनी के विश्वव्यापी आर्थिक हितों पर ध्यान रहा.

इसका नतीजा भी मिला: व्यापार, खासकर चीन के साथ व्यापार तेजी से बढ़ा. मैर्केल ने कई बार चीन की यात्रा की और उससे प्रभावित लगीं. हॉफ उन्हें "विस्मय की हद तक चीनी आर्थिक शक्ति की प्रशंसा' करने वाला मानते हैं." उनकी ओर से मानवाधिकारों के सवाल भी बहुत सावधानी से ही उठाए गए.

वित्तीय संकट के दौरान ग्रीस में मैर्केल का भारी विरोधतस्वीर: picture-alliance/dpa/O. Panagiotou

उदार शरणार्थी नीति

साल 2015 के अगस्त और सितंबर में देश में आने वाले हजारों लाखों शरणार्थियों और प्रवासियों के लिए जर्मनी की सीमाओं को खोलने का उनका फैसला ऐसा कदम रहा, जिसने न सिर्फ उन्हें दुनियाभर में प्रसिद्धि दिलाई, बल्कि इसी फैसले ने जर्मनी और दुनिया में उनके प्रति लोगों की सोच का सबसे ज्यादा ध्रुवीकरण भी किया. उन्होंने इस कदम को ईसाई दानशीलता और साम्यवादी शासन वाले पूर्वी जर्मनी की अभेद्य सीमाओं में रहे एक नागरिक के तौर पर अपने अनुभव के आधार पर उचित ठहराया.

मैर्केल ने सीरियाई शरणार्थियों के साथ सेल्फी खिंचवाई. जर्मनी एक ऐसी जगह बन गई, जिसमें दुनियाभर के लोगों ने बेहतर जीवन की उम्मीद देखी. टाइम पत्रिका ने उन्हें 'पर्सन ऑफ द ईयर' चुना और 'आजाद दुनिया का चांसलर' कहा. अन्य, विशेष रूप से यूरोपीय संघ के पूर्वी देशों की सरकारें पूरे यूरोपीय संघ पर अपनी उदार शरण नीति थोपने के कोशिश के चलते उनसे नाराज हो गईं. तबसे यूरोप में दक्षिणपंथी पॉपुलिज्म में काफी बढ़ोतरी हुई है.

वॉशिंगटन के साथ ठंडे रहे संबंध

मैर्केल शुरु में ट्रांस-अटलांटिक संबंधों में निकटता लाने की प्रबल समर्थक थीं. एक विपक्षी राजनेता के तौर पर उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के इराक युद्ध का भी समर्थन किया था, जिसे उस समय जर्मन जनता ने भारी बहुमत से साथ खारिज कर दिया था.

लेकिन उनके ही कार्यकाल में अमेरिका से संबंध ठंडे रहे. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बुश और उनके उत्तराधिकारी बराक ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका का जोर एशिया के साथ संबंधों पर रहा. मैर्केल को अपनी सबसे खास विदेश नीति सहयोगी बताने वाले ओबामा के दौर में ही 2013 में यह पता चला कि अमेरिकी खुफिया सेवा ने सालों तक चांसलर की जासूसी की थी. मैर्केल नाराज हुईं, उन्होंने कहा, "दोस्तों के बीच जासूसी, यह अस्वीकार्य है."

काले बादल

वैश्विक राजनीतिक स्थिति बदली, रूस ने 2014 में यूक्रेनी प्रायद्वीप क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. ब्रिटेन ने 2016 के जनमत संग्रह में यूरोपीय संघ छोड़ने के लिए मतदान किया. कुछ ही समय बाद डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने. 'अमेरिका फर्स्ट' के नारे के साथ उन्होंने बहुपक्षवाद की सोच को उलट-पुलट कर दिया. अमेरिका से निराश मैर्केल ने 2017 में कहा, "वह समय जब हम पूरी तरह से दूसरों पर भरोसा कर सकते थे, एक हद तक खत्म हो चुका है."

राष्ट्रपति ट्रंप से मैर्केल के रिश्ते अत्यंत खराब रहेतस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

हॉफ उनकी "यूरोप और पश्चिम को एक साथ लाने और विरोधी दलों में बातचीत कराने की असाधारण क्षमता" पर भी मुहर लगाते हैं. उन्होंने यूक्रेन-रूस संघर्ष के दौरान भी बार-बार ऐसा करने की कोशिश की लेकिन अंतत: असफल ही रहीं. हालांकि इस क्षमता का प्रदर्शन तब किया गया, जब उन्होंने जर्मन-रूसी प्राकृतिक गैस परियोजना नॉर्ड स्ट्रीम 2 के लिए जमकर कोशिश की, जिसका अमेरिका और यूरोपीय संघ के पूर्वी देश विरोध कर रहे थे. उनकी चांसलरशिप के अंत में अगस्त के मध्य में, बर्लिन और वॉशिंगटन को चौंकाने वाला, अमेरिका और मैर्केल के गलत फैसलों का एक नतीजा भी देखने को मिला. पश्चिमी सैनिकों की वापसी के कुछ ही समय बाद, तालिबान ने बिजली की गति से पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया.

जर्मनी ने नागरिकों के लिए वहां जो कुछ हासिल करने की कोशिश की, अब उसे खोने का खतरा है. जर्मन सरकार ने बहुत देर से प्रतिक्रिया दी और तालिबान के खूनी बदले से डर रहे स्थानीय अफगान कर्मचारियों को कब और कैसे लाया जाए इस पर भी बहस की. इस शिकस्त को भी मैर्केल के शासन के एक बुरे दौर के तौर पर गिने जाने की संभावना है.

कोई बात हल्के में नहीं ली जा सकती

मैर्केल कभी भी एक उत्साही वक्ता नहीं रही हैं. वह शायद ही कभी उत्साह दिखाती हैं. लेकिन खास तौर से संकट के समय में वे खुद को ऐसे व्यक्त करती हैं, जिसे वारविक के शब्दों में कहें तो वह "व्यावहारिकता, मुखरता और व्यक्तिगत मजबूती का मिश्रण होता है." हॉफ भी उन्हें एक "कभी न थकने वाली क्राइसिस मैनेजर" के रूप में देखते हैं, "जिन्होंने बहुत कुछ हासिल किया है."

संकटमोचक की छवितस्वीर: Wolfgang Rattay/AFP/Getty Images

हालांकि मैर्केल हमेशा मुख्य रूप से यथास्थिति बनाए रखने के लिए चिंतित रही हैं. उन्होंने "बहुत कम ही संकट की स्थितियों का इस्तेमाल नई शुरुआत और मौलिक बदलावों के लिए किया." उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ में अधिक एकीकरण की दिशा में कदम न बढ़ाना. वारविक विदेश नीति के प्रति मैर्केल के दृष्टिकोण का सार इस तरह बताते हैं, वह समझ चुकी हैं कि "जर्मनी के वैश्विक हित हैं और एक ओर जर्मनी खुद सारे लक्ष्य पाने के लिए बहुत छोटा है. दूसरी ओर, यूरोप में इसके आकार और भूमिका के चलते यह नेतृत्व करने के लिए अभिशप्त है." 

ऐसी हालत में मैर्केल खुद अपनी विदेश नीति का सार कैसे सामने रखती हैं? 2019 में अमेरिका स्थित हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की 16वीं मानद उपाधि पाने के बाद की गई उनकी टिप्पणी शायद इसके बारे में कुछ बता सके, "किसी भी बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता. हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को हल्के में नहीं लिया जा सकता, लोकतंत्र को हल्के में नहीं लिया जा सकता, न ही शांति और समृद्धि के साथ ऐसा किया जा सकता है." 

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