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जर्मन मैनेजरों की भारत में मांग

२० सितम्बर २०१०

भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में विदेशी मैनेजरों की मांग तेजी से बढ़ रही है. प्रमुख पदों पर ज्यादा से ज्यादा लोग जर्मनी या ऑस्ट्रिया से देखे जा रहे हैं. यहां तक कि रतन टाटा की कुर्सी के दावेदार भी विदेशी ही हैं.

ड्राइविंग सीट पर मैनेजरतस्वीर: AP

2012 में रतन टाटा 75 की उम्र में रिटायरमेंट ले लेंगे. उनके बाद टाटा ग्रुप का नेतृत्व कौन करेगा इसकी खोज अभी से शुरू हो गई है. माना जा रहा है कि अब कोई विदेशी टाटा ग्रुप का भार अपने कंधों पर संभालेगा. टाटा की तरह ज्यादा से ज्यादा भारतीय कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि महत्वपूर्ण पदों के लिए पश्चिमी देशों से अनुभवी लोगों को बुलाया जाए.

तस्वीर: AP

टाटा मोटर्स, जेट एयरवेज और ताज जैसी बड़ी कंपनियों में अहम ओहदों पर विदेशियों को देखा जा सकता है. इनमें ज्यादतर जर्मनी और ऑस्ट्रिया से हैं. जहां एक तरफ कंपनियां इन लोगों के अनुभव को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैं वहीं भारतीय कंपनियों से मिलने वाली मोटी रकम इसकी अहम वजह हो सकती है. इस साल की शुरुआत में यूरोप में जनरल मोटर्स के पूर्व प्रमुख कार्ल पीटर फोरस्टर को भारतीय उद्योगपति रतन टाटा ने अपनी टीम में शामिल किया.

फोरस्टर अब भारत में टाटा मोटर्स का पूरा काम संभाल रहे हैं. सीईओ के तौर पर भारत में टाटा की लैंड रोवर और जगुआर की जिम्मेदारी जर्मनी के लिंडे ग्रुप के राल्फ ष्पेथ की है. मुंबई के ताज महल होटल की उपाध्यक्ष बिरगिट त्सौर्निगर भी जर्मनी की ही हैं. और सिर्फ निजी ही नहीं, सरकारी कंपनियां भी इस दौड़ में शामिल हैं.

इस साल ऑस्ट्रिया के गुस्ताव बाल्दाउफ ने एयर इंडिया के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर का पद संभाला. ऑस्ट्रियन एयरलाइंस के उपाध्यक्ष रह चुके बाल्दाउफ इस से पहले भारत की जेट एयरवेज़ के लिए भी काम कर चुके हैं.

तस्वीर: AP

मुंबई में इंडो-जर्मन चेंबर ऑफ कॉमर्स के प्रबंधक बर्नहार्ड ष्टाइनरियुके का कहना है, "ऑटोमोबाइल और स्टील जैसे उद्योगों में जर्मनी सबसे ऊपर है और भारत वर्ल्ड क्लास चीजें बनाने की चाह में यहां से लोगों को अपने पास बुला रहा है. ऐसा कर के भारतीय कम्पनियां अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपना सिक्का चलाना चाहती हैं."

भारत में ज्यादतर लोग जो महंगी पढाई का खर्चा उठा सकते हैं, वो अमेरिका जाते हैं. इन लोगों की इस समय बहुत मांग है क्योंकि वे अमेरिकी बाज़ार का ढेर सारा ज्ञान अपने साथ वापस लाते हैं. लेकिन बहुत कम लोग हैं जो यूरोप के देशों में पढाई करने जाते हैं. इसलिए ऐसे लोगों की जरूरत है जो यूरोपीय बाजार को भी ठीक तरह से समझ सकें.

जब जर्मन कम्पनियां भारत या और किसी विकासशील देश में अपना कारोबार शुरू करती हैं तो जर्मन जानने वाले लोगों के लिए दरवाजे अपने आप ही खुल जाते हैं. यही वजह है कि यह लोग जर्मनी या ऑस्ट्रिया के होते हैं क्योंकि दोनों ही देशों में जर्मन बोली जाती है.

जर्मनी में कीनबाउम कंसल्टेंट के प्रबंध संचालक ष्टेफान फिशहुबर का कहना है कि आने वाले समय में इस प्रचलन में और बढोतरी देखी जाएगी. "जब कोई कंपनी ग्लोबल होती है तो उसे ग्लोबल मैनेजर की भी ज़रुरत पड़ती है. लेकिन यह आसान नहीं होता क्योंकि दोनों ही जगहों के काम करने के तरीकों में जमीन आसमान का फर्क है. इसीलिए बहुत सी दिक्कतें भी आती हैं. "

रिपोर्ट: एजेंसियां/ईशा भाटिया

संपादन एस गौड़

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