जर्मनी में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जिन्हें रिटायरमेंट के बाद गरीबी की चिंता सता रही है. उन्हें लगता है कि वे बुढ़ापे में अपनी जरूरतें पूरी नहीं कर पाएंगे. एक स्टडी में यह बात सामने आई है.
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ऊर्जा के बढ़ते दाम और घटती ब्याज दरों को इस चिंता की वजह बताया जा रहा है. अर्न्स्ट एंड यंग कंसल्टिंग कंपनी ने यह अध्ययन कराया है, जिसके नतीजे जर्मन अखबार 'डी वेल्ट' ने अपनी एक रिपोर्ट में प्रकाशित किए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक आधे से ज्यादा जर्मन वृद्धावस्था में वित्तीय असुरक्षा को लेकर चिंतित हैं.
जर्मनी में बूढ़े लोगों की तादाद बढ़ रही है जिससे पेंशन सिस्टम पर दबाव है. इसके अलावा रहन सहन पर खर्च बढ़ रहा है जबकि ब्याज दरें कम हैं. अस्थायी और कम वेतन वाले रोजगारों के अवसर बढ़ रहे हैं. लेकिन इसका मतलब है कि बहुत लोगों के पास रिटायरमेंट के बाद कोई वित्तीय सुरक्षा ही नहीं होगी.
स्टडी रिपोर्ट के एक लेखक बैर्नहार्ड लोरेंत्स कहते हैं, "बहुत से जर्मन लोग नहीं समझते हैं कि उनकी पेंशन सुरक्षा है. राजनेताओं को इस तरह की चिंताओं को गंभीरता से लेना चाहिए." वह कहते हैं, "ब्याज दरें अभी बहुत कम हैं जिनके चलते मुनाफा कमाना और बुढ़ापे को सुरक्षित करना मुश्किल है."
बेघर, खाने पीने और बच्चों की जरूरत पूरी करने के लिए पैसों की कमी. आंकड़ों को देखें तो जर्मनी में हर तीसरा व्यक्ति गरीबी से प्रभावित है. लेकिन उनके लिए कई संस्थाएं काम कर रही हैं.
तस्वीर: DW/Shamsan Anders
डांवाडोल भविष्य
यह फोटो जर्मन शहर ब्रेमन के सबसे गरीब समझे जाने वाले इलाके की है. इस शहर में हर पांचवें व्यक्ति पर गरीबी की तलवार लटक रही है. जर्मनी में गरीब उसे समझा जाता है जिसकी मासिक आमदनी मध्य वर्ग के लोगों की औसत आमदनी से 60 फीसदी से भी कम हो.
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भूख के खिलाफ जंग
ब्रेमन में ऐसी 30 गैर सरकारी संस्थाएं सक्रिय हैं, जिन्होंने गरीबी और भूख के खिलाफ जंग छेड़ी है. ये संस्थाएं सुपरमार्केट और बेकरियों से बचा हुआ खाना लेकर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाती हैं. ऐसी ही एक संस्था रोज सवा सौ लोगों को खाना मुहैया कराती है.
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नस्लवाद नहीं
शहर एसेन में एक निजी संस्था ने विदेशी लोगों को मुफ्त में खाना ना देने का फैसला किया था, लेकिन कड़ी आलोचना के बाद फैसले को वापस ले लिया गया. वहीं ब्रेमन में काम करने वाली संस्थाओं का कहना है कि वे हर रंग और नस्ल के गरीब लोगों की मदद करते हैं.
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मदद को बढ़ते हाथ
अस्सी साल के वेर्नर डोजे वॉलेंटियर के तौर पर ब्रेमन टाफल नाम की संस्था के साथ काम करते हैं जो गरीबों को खाना मुहैया कराती है. कई लोग एक यूरो प्रति घंटा के हिसाब से काम करते हैं जबकि बहुत से छात्र गरीबी के खिलाफ इस जंग में वॉलेंटियर के तौर पर शामिल हैं.
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उजड़े घर
पूर्वी जर्मनी में कभी हाले शहर की रौनकें देखने वाली थीं लेकिन अब इस शहर के कई इलाके वीरान हो चुके हैं. शहर में बेरोजगारी दर बहुत ज्यादा है. ऐसे में रोजगार की तलाश यहां के लोगों को शहर छोड़ने पर मजबूर कर रही है.
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जरूरतमंदों की मदद
हाले में गरीब लोगों को कम कीमत पर खाने की चीजें और कपड़े मुहैया कराए जाते हैं. इन 'सोशल मार्केट्स' में सबसे गरीब तबके के बच्चों और लोगों को प्राथमिकता के आधार पर चीजें दी जाती हैं. लेकिन समस्या यह है कि शहर में ऐसे लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है.
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ज्यादातर विदेशी खरीदार
कई ऐसे स्टोर हैं जहां घर की चीजें सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं. स्टोर चलाने वालों का कहना है कि उनके यहां खरीदारी करने वाले लोगों में सबसे ज्यादा विदेशी और शरणार्थी हैं. उनके मुताबिक, जर्मन लोग इस्तेमाल की हुई चीजों को खरीदने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते.
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गरीबी में बचपन
जर्मनी में करीब दस लाख बच्चे गरीबी का शिकार हैं. ऐसे बच्चे ना तो अपना बर्थडे मनाते हैं और न ही स्पोर्ट्स क्लबों में दाखिल होते हैं. आंकड़े बताते हैं कि जर्मनी में हर सातवां बच्चा सरकार की तरफ से दी जाने वाली सरकारी सहायता का मोहताज है.
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कोई बच्चा भूखा ना रहे
शिनटे ओस्ट नाम की एक संस्था छह से 15 साल के पचास बच्चों को स्कूल के बाद खाना मुहैया कराती है. संस्था की निदेशक बेटिना शापर कहती हैं कि कई बच्चे ऐसे हैं जिन्हें एक वक्त का भी गरम खाना नसीब नहीं होता. यह संस्था चाहती है कि कोई भी बच्चा भूखा ना रहे.
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हम एक परिवार हैं
बेटिना शापर कहती हैं कि जरूरतमंद बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनमें शरणार्थी बच्चों की बड़ी संख्या है. उनकी संस्था बच्चों को खाना मुहैया कराने के अलावा उन्हें होमवर्क और दूसरे कामों में भी मदद करती है. बच्चों को दांत साफ करने का सही तरीका भी सिखाया जाता है.
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बढ़ता अकेलापन
एक आंकड़े के मुताबिक जर्मनी की राजधानी बर्लिन में लगभग छह हजार लोग सड़कों पर सोने को मजबूर हैं. बर्लिन के बेघरों में 60 फीसदी विदेशी लोग हैं और इनमें से ज्यातार पूर्वी यूरोप के देशों से संबंध रखते हैं.
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सपने चकनाचूर
एक हादसे में अपनी एक टांग गंवाने वाले योर्ग छह साल से बेघर हैं. वह कहते हैं कि बर्लिन में बेघरों की तादाद बढ़ने के साथ साथ उनमें आपस में टकराव भी बढ़ रहा है. निर्माण के क्षेत्र में काम कर चुके योर्ग की तमन्ना है कि वह फिर से ड्रम बजाने के काबिल हो पाएं.
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लगातार दूसरे साल वृद्धावस्था को लेकर जर्मन लोगों की चिंता में इजाफा दर्ज किया गया है. स्टडी में शामिल ऐसे लोगों की तादाद लगभग 56 प्रतिशत रही जो चिंता के शिकार हैं. 2017 के मुकाबले 2018 में ऐसे सोचने वालों की संख्या में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
बहरहाल, जर्मन लोग जिन बातों को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं, उनमें रिटायरमेंट के बाद आर्थिक असुरक्षा सबसे ऊपर नहीं है. बल्कि इससे ज्यादा लोग बीमारी, प्रदूषण और यूरोप में 'शरणार्थी संकट' को लेकर चिंतित हैं.
लगभग 69 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे ऊर्जा बढ़ते दामों को लेकर फिक्रमंद हैं. 2017 के मुकाबले ऐसे लोगों की संख्या 17 फीसदी बढ़ी है. वहीं एक साल पहले के मुकाबले 16 प्रतिशत वृद्धि के साथ 71 प्रतिशत लोग रहन सहन पर बढ़ने वाले खर्च को लेकर चिंतित हैं. इस अध्ययन में एक हजार लोगों को शामिल किया गया, जिनसे नवंबर के आखिर में टेलीफोन पर बातचीत कर उनकी राय ली गई.