भारत में बंगाल की खाड़ी को जलवायु परिवर्तन के लिहाज से दुनिया का सबसे संवेदनशील डेल्टा माना जाता है. कोलकाता और इसके आसपास के देहाती इलाकों के अलावा सुंदरबन का इलाका जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से जूझ रहा है.
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दो साल पहले आयी एक अध्ययन रिपोर्ट में देश के 25 शहरों में कार्बन उत्सर्जन के मामले में कोलकाता शीर्ष पर था. दस हजार वर्ग किलोमीटर में फैले सुंदरबन इलाके में तो पर्यावरण के शरणार्थियों की तादाद लगातार बढ़ रही है. इस खतरे से निपटने के लिए अब इलाके में मैंग्रोव जंगल को बचाने की परियोजना के साथ ही सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने की योजना शुरू की गयी है. मैंग्रोव जंगलों के घटने की वजह से सुंदरबन के कई द्वीपों पर समुद्र में डूबने का खतरा मंडरा रहा है.
जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों को कम करने के लिए हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने के प्रयास भी चल रहे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि इन प्रयासों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देना जरूरी है. इस बीच, आईआईटी खड़गपुर ने जलवायु परिवर्तन और इसके असर के विभिन्न पहलुओं पर शोध के लिए एक सेंटर फॉर एक्सीलेंस स्थापित करने का फैसला किया है. कुछ साल पहले कोलकाता में कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए कोलकाता नगर निगम और ब्रिटिश डिप्टी हाईकमीशन ने यूके एड की सहायता से एक ब्लूप्रिंट तैयार किया था. इसके तहत सुझाये 12 बिंदुओं पर काम करने के लिए निगम को 12 लाख अमेरिकी डालर की सहायता भी मिली थी. लेकिन अब तक इस योजना पर खास प्रगति नहीं हो सकी है.
जलवायु परिवर्तन पर दुनिया का रुख रहा सुस्त
ब्रिटेन की साइंस पत्रिका लैंसेट में छपी एक रिपोर्ट मुताबिक जलवायु परिवर्तन का साल 2000 के बाद से मानव स्वास्थ्य पर बेहद ही बुरा असर पड़ा है. गर्म हवायें और बीमारियों में वृद्धि हुई है और फसलों पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है.
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सुस्त कदम
रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 25 सालों में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए बेहद ही सुस्त कदम उठाये गये जिसने मानवीय जीवन और आजीविका को खतरे में डाल दिया है.
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स्पष्ट प्रभाव
स्टडी के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव स्पष्ट हैं और ये नहीं बदलते हैं. साइंस पत्रिका में छपी इस रिपोर्ट को कई विश्वविद्यालयों समेत विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन(डब्ल्यूएचओ) ने मिलकर तैयार किया है.
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अमेरिका बाहर
हालांकि अब दुनिया के कई देश पेरिस जलवायु समझौते के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अमेरिका जैसा बड़ा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश अब इस समझौते से बाहर चला गया है.
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बुजुर्गों पर खतरा
रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 से 2016 के दौरान दुनिया के तकरीबन 12.5 करोड़ लोग हर साल गर्म हवाओं के संपर्क में आते रहे, इसमें बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर विशेष रूप से जोखिम बना रहा और इनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा.
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डेंगू के मामले
जलवायु और स्वास्थ्य से जुड़े 40 मानकों के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया में डेंगू के मामले बढ़े हैं जिसके चलते सालाना 10 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं.
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क्षमता घटी
कृषि मजदूरों की उत्पादकता में साल 2000 के बाद से तकरीबन 5.3 फीसदी की कमी आई है, भारत और ब्राजील जैसे देशों में गर्मी बढ़ने के चलते मजदूरों और श्रमिकों की कार्य क्षमता घटी है.
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कुपोषण
जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रभाव कुपोषण के रूप में सामने आया है. रिपोर्ट मुताबिक अफ्रीका और एशिया के करीब 30 देशों में कुपोषण के मामले बढ़े हैं, साल 1990 में कुपोषण से जुड़े मामलों की संख्या 39.8 करोड़ थी जो साल 2016 में 42.2 करोड़ तक पहुंच गई.
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प्राकृतिक आपदायें
तूफान और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में भी साल 2000 के बाद से 46 फीसदी की वृद्धि हुई है. हालांकि इसमें जान जाने के मामलों में वृद्धि नहीं हुई है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रशासन ने प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए कदम उठाये हैं.
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आगे भी असर
स्टडी में जलवायु परिवर्तन के चलते अब तक कितनी जानें गयी हैं इसका तो कोई आंकड़ा पेश नहीं किया गया है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने एक अध्ययन में कहा था कि साल 2030 से 2050 के बीच ये आंकड़ा 2.5 लाख तक पहुंच सकता है.
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बॉन में उम्मीदें
इन नतीजों के बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक और लैंसेट काउंटडाउन स्टडी के सहअध्यक्ष कर रहे एंथनी कोस्टेलो को अब भी उम्मीद नजर आती है. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि बॉन में होने वाली जलवायु परिवर्तन कांफ्रेस पर इन मसलों पर विस्तार से चर्चा होगी.
पश्चिम बंगाल की भौगोलिक स्थिति अनूठी है. यह देश का पहला ऐसा राज्य है जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी तक पैला है. जलवायु परिवर्तन पर पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से तैयार कार्य योजना में कहा गया है कि वर्ष 2021 से 2050 के दौरान तापमान में 1.8 से 2.4 डिग्री सेल्शियस तक वृद्धि हो सकती है. इसके अलावा चक्रवाती तूफान का सिलसिला तेज होगा और समुद्र के जलस्तर में लगातार वृद्धि होगी. इस अध्ययन रिपोर्ट के नतीजे भयावह हैं. इनमें कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ने की वजह से वर्ष 2100 तक सुंदरबन का पूरा इलाका समुद्र में डूब जाएगा.
अब केंद्र सरकार और दूसरे गैर-सरकारी संगठनों की सहायता से सुंदरबन के अलावा दूसरे इलाकों में जलवाय़ु परिवर्तन के खतरों पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल की गयी है. इसके लिए सरकार ने 12 सूत्री एजेंडा तैयार किया है. इसके अलावा सौर ऊर्जा के उत्पादन और इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं शुरू की गयी हैं ताकि ताप बिजलीघरों से बड़े पैमाने पर होने वाले कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाया जा सके. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि बंगाल को अभी इस दिशा में लंबी दूरी तय करनी है.
समुद्र पर जलवायु परिवर्तन का असर
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सुंदरबन इलाके में जलवायु परिवर्तन की वजह से लगातार बिगड़ते पर्यावरण संतुलन को बनाये रखने की योजना पर काम कर रहे जाने-माने पर्वारण विज्ञानी और जादवपुर विश्वविद्यालय में सामुद्रिक विज्ञान अध्यययन संस्थान के प्रमुथख डॉ. सुगत हाजरा कहते हैं, "सुंदरबन के विभिन्न द्वीपों में रहने वाली 45 लाख की आबादी पर खतरा लगातार बढ़ रहा है. इलाके में कई द्वीप पानी में डूब चुके हैं और कइयों पर यह खतरा बढ़ रहा है." वह बताते हैं कि खतरनाक द्वीपों के 14 लाख लोगों को दूसरी जगह शिफ्ट करने के साथ ही बाढ़ और तट कटाव पर अंकुश लगाने के लिए मैंग्रोव जंगल का विस्तार करने को प्राथमिकता देनी होगी. उनका कहना है कि सरकार को पर्यावरण की मार से पैदा होने वाले इन शरणरार्थियों के लिए एक ठोस नीति बनानी होगी.
जानिए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से जुड़ी अहम बातें
जर्मनी के बॉन शहर में 6-17 नवंबर तक चलने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, कॉप23 में दुनिया भर के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे.
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क्या है कॉप23
कॉप23, 23वीं क्रॉन्फेंस ऑफ द पार्टीज टू द यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का छोटा नाम है. यूएनएफसीसीसी को साल 1992 में रियो अर्थ सम्मिट के दौरान अपनाया गया था. रियो सम्मेलन को विश्व समुदाय का जलवायु परिवर्तन की दिशा में उठाया गया पहला संयुक्त कदम माना जाता है.
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फिजी की अगुवाई
कॉप23 की अगुवायी इस साल फिजी कर रहा है. फिजी का उद्देश्य पेरिस समझौते के तहत कमजोर समाजों को जलवायु परिवर्तन से जुड़े कदमों का हिस्सा बनाना है. जिसके लिए अध्यक्ष देश समावेशी और पारदर्शी दृष्टिकोण को अपना रहा है. साथ ही यह छोटा विकासशील द्वीप अपने अनुभव भी साझा कर रहा है.
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रियो कनवेंशन
रियो अर्थ समिट को रियो कनवेंशन के नाम से भी जाना जाता है. इस कनवेंशन में यूनएफसीसीसी ने वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में स्थिरता लाने की दिशा में एक ढांचा तैयार किया था. यूएनएफसीसीसी को साल 1994 में लागू किया गया था और अब दुनिया के तकरीबन 195 देश इसके सदस्य हैं.
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कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज
हर साल समझौते में शामिल पार्टियां या सदस्य देश कनवेंशन की प्रगति का आकलन करती हैं. साथ ही चर्चा करती हैं कि कैसे अधिक से अधिक व्यापक ढंग से जलवायु परिवर्तन से निपटा जाये. पहली कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज साल 1995 में बर्लिन में आयोजित की गयी थी. साल 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल स्थापित किया गया, जो विकसित देशों पर उत्सर्जन घटाने से जुड़ी कानूनी बाध्यतायें तय करता है.
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क्या है सीएमपी
साल 2005 तक कॉप का छोटा नाम सीएमपी हुआ करता था. सीएमपी का अर्थ है, "कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज सर्विंग एज द मीटिंग ऑफ पार्टीज टू द क्योटो प्रोटोकॉल". इसका मतलब है कि कॉप23 को सीएमपी13 भी कहा जा सकता है.
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कॉप21
फ्रांस की राजधानी पेरिस में साल 2015 के दौरान कॉप21 में पेरिस समझौते के लिए हामी भरी गयी. यह समझौता ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और विकासशील देशों को ऐसे कदमों को अपनाने में सहयोग देने से जु़ड़ा हुआ है.
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पेरिस समझौता
इसमें हस्ताक्षरकर्ता देशों ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने को लेकर कानूनी प्रतिबद्धता जतायी. यह समझौता सभी देशों के वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने की कोशिश करने के लिए भी कहता है.
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अमेरिका बाहर
जून 2017 में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से बाहर आने की घोषणा की. इस पर ट्रंप ने कहा था, "फिलहाल अमेरिका गैर बाध्यकारी पेरिस समझौते और समझौते की वजह से लादे गए क्रूर वित्तीय और आर्थिक बोझ को लागू करने के सारे कदमों पर रोक लगा रहा है."
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सरकार ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो रोडमैप तैयार किया है उसमें जल संसाधन, कृषि, जैविक विविधता और जंगल, स्वास्थ्य और ऊर्जा के क्षेत्रों पर खास ध्यान देने की बात कही गयी है. इसमें दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र और सुंदरबन को सबसे संवेदनशील क्षेत्र करार दिया गया है. पर्यावरण विभाग ने स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज के तहत तैयार इस रोडमैप को लागू करने के लिए विभिन्न उप-समितियों का गठन किया है. इसके अलावा वृक्षारोपण पर खास जोर दिया जा रहा है. इसमें विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों और स्थानीय क्लबों की सहायता ली जा रही है. इस मामले में सुंदरबन इलाके में मैंग्रोव जंगल को बढ़ाने पर भी ध्यान दिया जा रहा है. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि वृक्षारोपण की मौजूदा गति से वांछित नतीजे नहीं मिलेंगे.
आईआईटी में नया केंद्र
राज्य के खड़गपुर स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) ने जलवायु परिवर्तन के नतीजों के अध्ययन के लिए एक सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित करने का फैसला किया है. अगले महीने से शुरू होने वाले इस केंद्र में 30 से 35 शोधार्थी जमीन, नदी, समुद्र व पर्यावरण पर जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन करने वाली विभिन्न परियोजनाओं पर काम करेंगे. आईआईटी के निदेशक पार्थ प्रतिम चक्रवर्ती बताते हैं, "फिलहाल जलवायु परिवर्तन से निपटना दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती है."
वैज्ञानिकों का कहना है कि कोलकाता और दक्षिण बंगाल जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील है. चक्रवर्ती कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के असर के अध्ययन से बादल फटने और चक्रवाती तूफान के बारे में सटीक पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. इससे इन प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में सहूलियत होगी. इस केंद्र के प्रमुख संयोजक और सामुद्रिकी अभियंत्रण विभाग के प्रमुख प्रोफेसर भास्करन कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन की वजह से बीते एक दशक के दौरान चक्रवाती तूफानों के स्वरूप और गति में बढ़ोतरी हुई है." वह बताते हैं कि इस केंद्र में जलवायु परिवर्तन के असर के तमाम पहलुओं का गहराई से अध्ययन किया जाएगा ताकि उनसे निपटने या कम से कम के उनके असर को कम करने के लिए ठोस योजनाएं बनायी जा सकें.
बदलते मौसम की मार झेलता सोलोमन द्वीप
सोलोमन द्वीप के लौ लैगून हिस्से में रहने वाले लोगों का समुद्र के साथ रिश्ता कई पीढ़ियों से चला आ रहा है. लेकिन अब जलवायु परिवर्तन और समुद्र के बढ़ते जल स्तर ने इनकी जिंदगी और अस्तित्व पर सवाल उठा दिये हैं
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पानी पर जिंदगी
उच्च ज्वार में लौ लैगून द्वीप पर पहले शायद ही कभी जलस्तर ऊपर उठता था लेकिन अब यहां अति उच्च ज्वार और तेज तूफानों का आना आम बात हो गयी है. नतीजन, अब तक प्रकृति की गोद में रहने वाले इस द्वीप का कुछ हिस्सा समुद्र में डूबने लगा है.
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समुद्र से जुड़े लोग
स्थानीय कहानियों के मुताबिक "वाने ई ऐसी" या समुद्री लोग इस कृत्रिम द्वीप में 18 पीढ़ियों से रह रहे हैं. ये लोग कहते हैं कि उन्हें समुद्र के करीब अपनापन महसूस होता है और यह समंदर उन्हें मछलियां देता है. साथ ही उन्हें मच्छरों से भी राहत रहती है.
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बढ़ता जलस्तर
अब जब यहां समुद्री जलस्तर बढ़ रहा है तो लोगों के पास पानी से ऊपर बने इन घरों को और ऊंचा करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है.
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बच्चों का जीवन
अपने बचपन को इस समुद्र के निकट बिताते यहां के बच्चों के लिए ये पानी जीवन का अहम हिस्सा है. अपने स्कूल जाने के लिए ये बच्चे समुद्री रास्ता पार कर जाते हैं.
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जन्म से नाविक
लोग द्वीप से तट तक का रास्ता बनाना, उसे पार करना आसानी से सीख जाते हैं और जल्द ही पानी के ऊपर बने अपने घरों से तट की ओर-जाना इनकी आदत में शुमार हो जाता है.
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बदलाव के संकेत
यहां रहने वाले 52 साल के जॉन काईया इस द्वीप पर रहने वाली आइनाबाउलो जनजाति के मुखिया है. जॉन कहते हैं कि उन्होंने अपने जिंदगी में पहली बार मौसम में ऐसे बदलाव देखें हैं.
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तूफानी मौसम
लैगून पर रहने का मतलब है उष्णकटिबंधीय तूफानों को झेलना. ये तूफान पारंपरिक रूप से गर्मी के मौसम में आते थे लेकिन अब लौ लैगून पर मौसम अप्रत्याक्षित रूप से बदल रहा है.
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बहते आशियाने
बढ़ते जल स्तर और आये दिने आने वाले तूफानों ने यहां रहने वाले लोगों के घरों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है. इसलिए अब लोगों ने घरों की मरम्मत के काम ही रोक दिया है.
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समय के साथ जंग
बढ़ते जल स्तर के बीच लंबे समय तक यहां रहना एक चुनौती है. लेकिन लोग अब भी गुजर बसर कर रहे हैं लेकिन आउटहाउस को बांधने वाले पुल का नियमित रख-रखाव किया जा रहा है.
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पंछियों का अड्डा
तस्वीर में नजर आ रहा यह आउटहाउस पहले किसी घर का हिस्सा था जो आज यहां से गुजरने वाले पंछियों का अड्डा बन गया है. जलवायु परिवर्तन ने इसे लोगों से बेहद ही दूर कर दिया है
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नये पड़ोसी
लौ लैगून के लोग अब पड़ोस के द्वीप को समुद्र से बांधने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इन्हें काफी विवादों का सामना करना पड़ रहा है. भूमि विवाद का मतलब है निर्माण काम पर अदालती आदेश के बाद रोक.
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नई शुरूआत
कुछ वाने ई लोग अब भी सुरक्षित जगह के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कुछ नए कृत्रिम द्वीप बनाने की कोशिशों में हैं लेकिन अब भी इनके लिए काफी काम किया जाना बाकी है.
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विश्वास बरकरार
सोलोमन के इस द्वीप पर धर्म को बहुत अधिक तवज्जो मिलती है. बदलती परिस्थितियों में यहां के लोगों को भरोसा है कि इनकी जिदंगी को बचाने और इन्हें दूसरी जगह बसाने में चर्च जरूर मदद करेगा.
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अलविदा, अलविदा
प्रकृति के साथ तालमेल बिठा कर रहने वाले इन लोगों की जिदंगी को बढ़ते औद्योगिकीकरण के इस दौर में खतरा है, संभवत: भविष्य में यह द्वीप अपना अस्तित्व न बचा पाये और इसके साथ ही एक संस्कृति का भी अंत हो जाये.
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सौर ऊर्जा को बढ़ावा
जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने और कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए सरकार सौर ऊर्जा के दोहन पर भी जोर दे रही है. पश्चिम बंगाल हरित ऊर्जा विकास निगम के पूर्व प्रबंध निदेशक और सौर ऊर्जा विशेषज्ञ एसपी गोनचौधरी कहते हैं, "बंगाल में सौर ऊर्जा की व्यापक संभावनाएं हैं. समुचित दिशानिर्देश तैयार कर उसे सही तरीके से लागू करने की स्थिति में अगले पांच साल के दौरान सौर ऊर्जा से एक हजार मेगावाट बिजली पैदा करना कोई मुश्किल नहीं है."
पानी का अम्लीकरण
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बीते साल राज्य में देश के पहले तैरते सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना की गयी थी. अब 1300 सरकारी इमारतों, स्कूलों और अस्पतालों की शिनाख्त की गयी है जहां छतों पर सौर ऊर्जा के पैनल लगाए जाएंगे. सरकार का लक्ष्य वर्ष 2017-18 के दौरान 120 मेगावाट बिजली पैदा करना है. सौर ऊर्जा परियोजनाओँ के लिए एक हजार करोड़ का प्रावधान रखा गया है.
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह काम एक दिन या किसी एक संस्था का नहीं है. जलवायु परिवर्तन के असर पर अंकुश लगाने के लिए बड़े पैमाने पर सामूहिक और सतत प्रयासों की जरूरत है. इसके साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर इमानदारी से लागू किया जाए.