जलवायु परिवर्तन के लिहाज से पूर्वी भारत के राज्य सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं. जिन पांच राज्यों में सबसे कम खतरा बताया गया है उनमें महाराष्ट्र का नंबर पहला है.
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विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की विशेष आकलन रिपोर्ट के मुताबिक बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडीसा और पश्चिम बंगाल जैसे पूर्वी राज्यों के अलावा मिजोरम, असम और अरुणाचल प्रदेश जैसे पूर्वोत्तर राज्य भी जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक संभावित नुकसान झेलेंगे. ये सभी इलाके अतिसंवेदनशील और अरक्षित पाए गए हैं. असम, बिहार और झारखंड के 60 प्रतिशत जिले इस श्रेणी में आते हैं. जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान के खिलाफ असम का करीमगंज जिला सबसे ज्यादा अरक्षित पाया गया है. अपनी तरह का यह पहला अध्ययन है जिसमें राज्यवार और जिलावार क्लाइमेट चेंज का वल्नरेबिलिटी इंडेक्स बनाया गया है और उस आधार पर राज्यों और जिलों को रैकिंग दी गई है. महाराष्ट्र राज्य पर सबसे कम खतरा है लेकिन उसका जिला नंदरबार, देश के सबसे अधिक अरक्षित 51 जिलों में से है. बिहार के कटिहार और किशनगंज जिले, ओडीशा का नौपदा जिला, झारखंड का साहिबगंज, पश्चिम बंगाल का पुरुलिया और कूच बिहार और जम्मू कश्मीर का रामबन जिला इस श्रेणी में रखे गए हैं.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, डीएसटी के इस प्रोजेक्ट में आईआईटी मंडी और आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं के अलावा बंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान, आईआईएस भी शामिल था. अध्ययन के मुताबिक राज्यवार और जिलावार आकलन से राज्यों को भविष्य में आपदा न्यूनीकरण के कदम उठाने या उससे संबधित नीति बनाने में मदद मिलेगी. डीएसटी के मुताबिक सभी राज्यों का विभिन्न कारकों और कारणों और उत्प्रेरकों के लिहाज से अध्ययन किया गया. ये कसौटियां आबादी के अलावा, लोगों की आय के स्रोत, स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति, परिवहन नेटवर्क जैसे बिंदुओं पर आधारित थीं. गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वाली प्रतिशत आबादी, संक्रमित पानी से होने वाली और डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियां, वर्षा-पोषित खेती, कम सघन परिवहन नेटवर्क, छोटे और मझौले भू स्वामित्व वाले अधिकांश लोग, और आय के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता के आधार पर राज्यों को उच्च, औसत और निम्न के वल्नरेबिलिटी इंडेक्स की तीन श्रेणियों में बांटा गया था.
भारत की नदियों का पानी लगातार घट रहा है
भारत में बरसने वाली एक एक बूंद एक बड़े रिवर बेसिन का हिस्सा है. ऐसी ही असंख्य जलधाराओं की मदद से नदियां एक बड़ा रिवर बेसिन बनाती हैं. लेकिन इंसानी दखल और जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के बड़े रिवर बेसिन सूखने लगे हैं.
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तापी नदी बेसिन
तापी या ताप्ती नदी का यह समूचा जल क्षेत्र मध्य भारत का सबसे अहम रिवर बेसिन है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात को पानी देने वाले इस रिवर बेसिन में 10 साल का अनुपात निकालने पर पानी की 81 फीसदी कमी दर्ज की गई. यह नदी बेसिन 65,145 वर्ग किमी में फैला है.
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साबरमती नदी बेसिन
21,674 वर्ग किलोमीटर में फैली साबरमती नदी की पूरी जल घाटी में पानी 42 फीसदी घट चुका है. यह रिवर बेसिन गुजरात और राजस्थान में फैला है. अरावली की पहाड़ियों से शुरू होने वाला यह बेसिन गुजरात में खंभात की खाड़ी में खत्म होता है.
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कृष्णा बेसिन
ताजा पानी में 55 फीसदी गिरावट देखने वाला कृष्णा बेसिन दक्षिण भारत का बेहद अहम रिवर बेसिन है. 2,58,948 वर्ग किमी में फैला यह बेसिन महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के लिए जीवनधारा का काम करता है. कृष्णा नदी महाराष्ट्र में पश्चिमी घाट की सहयाद्री पहाड़ियों से फूटती है और बंगाल की खाड़ी की ओर बहती है.
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कावेरी बेसिन
दक्षिण भारत की गंगा कही जाने वाली कावेरी नदी का उद्गम कर्नाटक की ब्रह्मगिरी पहाड़ियों से होता है. अपनी दर्जनों सहायक नदियों की मदद से कावेरी, केरल, पुद्दुचेरी और तमिलनाडु से गुजरती हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है. 10 साल के औसत के आधार पर कावेरी बेसिन में पानी में 45 फीसदी कमी दर्ज की गई.
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गंगा बेसिन
गंगा और उसकी सहायक नदियों व जलधाराओं के समूचे तंत्र को गंगा बेसिन कहा जाता है. गंगा रिवर बेसिन पर धरती की सबसे ज्यादा आबादी यानि 65 करोड़ लोग निर्भर हैं. गंगा के बेसिन को भारत और नेपाल की दर्जनों नदियों से पानी मिलता है. लेकिन हाल के बरसों में गंगा नदी के बेसिन में भी 9.25 फीसदी पानी कम हुआ है.
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महाराष्ट्र के अलावा गोवा, नागालैंड, केरल, तमिलनाडु, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, सिक्किम, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश को निम्न वल्नरेबिलिटी इंडेक्स में रखा गया था. रिपोर्ट के मुताबिक इस श्रेणी के राज्य प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर नहीं है, उनके यहां बीपीएल आबादी भी अपेक्षाकृत कम है और सड़क और रेल संपर्क बेहतर है. उच्च वल्नरेबलिटी वाले राज्यों के बारे में शोधकर्ताओं का कहना है कि उनके यहां प्रति व्यक्ति आय कम है, और वे मानव विकास सूचकांक में नीचे आते हैं. उन राज्यों में बीमारियां अधिक हैं, स्वास्थ्य सेवाएं स्तरीय नहीं है, बीपीएल आबादी अधिक है और अत्यधिक खेती की जाती है.
औसत या मॉडरेट वीआई कैटगरी में उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा, गुजरात, मेघालय, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, मध्य प्रदेश, मणिपुर, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक को रखा गया है. इंडियन एक्सप्रेस अखबार में डीएसटी के सचिव आशुतोष शर्मा के हवाले से प्रकाशित बयान में कहा गया है कि "जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से देश के अति संवेदनशील हिस्सों की मैपिंग से जमीनी स्तर पर जलवायु कार्रवाईयों को शुरू करने में मदद मिलेगी." देशव्यापी राज्यवार और जिलावार सूचना संग्रहित कर जलवायु परिवर्तन के हवाले से अध्ययन की तैयारी 2019 में शुरू कर दी गयी थी. भारत जैसे विकासशील देश में वल्नरेबलिटी का आकलन एक महत्त्वपूर्ण एक्सरसाइज मानी जाती है. इसके जरिए उचित और अनुकूलित प्रोजेक्ट और प्रोग्राम विकसित करने में मदद मिलती है. जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के तहत विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग दो राष्ट्रीय मिशन चला रहा है. एक है नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग द हिमालयन ईकोसिस्टम (एनएमएसएचई) और नेशनल मिशन ऑन स्ट्रेटजिक नॉलेज फॉर क्लाइमेट चेंज (एनएमएसकेसीसी). इन्हीं अभियानों के तहत राज्यों के जलवायु परिवर्तन प्रकोष्ठों को मदद दी जाती है.
जलवायु परिवर्तन अजन्मे बच्चे पर ऐसे डाल रहा है असर
एक शोध के मुताबिक ब्राजील के अमेजन क्षेत्र में जन्म लेने वाले बच्चे का कम वजन और अत्यधिक बारिश के बीच रिश्ता है. यह शोध जलवायु परिवर्तन से जुड़े मौसम के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों को रेखांकित करता है.
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क्या है शोध?
शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन और अजन्मे बच्चे की सेहत पर शोध किया. शोध में कठोर मौसम और जन्म के समय बच्चों के वजन पर ध्यान दिया गया. इस शोध को ब्रिटेन की लैनकास्टर यूनिवर्सिटी और ब्राजील के फियोक्रूज हेल्थ रिसर्च इंस्टीट्यूट ने किया है.
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शोध के नतीजे
उत्तरी अमेजन राज्य में गर्भावस्था के दौरान असाधारण रूप से भारी बारिश और बाढ़ को जन्म के समय बच्चे के कम वजन से जोड़कर देखा गया. शोधकर्ताओं ने पिछले 11 सालों में तीन लाख जन्मों की तुलना स्थानीय मौसम डाटा के साथ किया और पाया कि भारी बारिश से जन्म के समय वजन कम हो सकता है.
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कम वजन क्यों?
जलवायु परिवर्तन और अजन्मे बच्चे के बीच कड़ी को जोड़ता यह शोध नेचर सस्टेनेबिलिटी पत्रिका में छपा है. जन्म के समय बच्चे के कम वजन के लिए खराब शिक्षा प्रणाली, लचर स्वास्थ्य सुविधाएं, आर्थिक कमजोरी को कारण बताया गया है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Dedert
वजन पर बारिश का प्रभाव
शोध में कहा गया कि भारी बारिश नहीं होने पर भी 40 फीसदी नवजातों का वजन कम रहने का जोखिम रहता है. शोध के सह-लेखक ल्यूक पैरी कहते हैं कि भारी बारिश और बाढ़ के कारण मलेरिया और संक्रामक बीमारियां होने का खतरा रहता है, गर्भवती महिलाओं में भोजन और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे भी कम वजन के लिए जिम्मेदार हैं.
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"जलवायु अन्याय"
ल्यूक पैरी कहते हैं कि यह लोग अमेजन के कट रहे जंगलों से बहुत दूर हैं और यह "जलवायु अन्याय" का उदाहरण है. उनके मुताबिक इस इलाके का पर्यावरण इन लोगों की वजह से नहीं बदला और पर्यावरण ने सबसे अधिक नुकसान इन्हें पहुंचाया. वे कहते हैं कि ये प्रभाव कितने गंभीर हैं इससे वे आश्चर्यचकित हैं.
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अमेजन की नदी में गंभीर बाढ़
विज्ञान की पत्रिका साइंस एडवांसेस की 2018 की एक रिपोर्ट कहती है कि कुछ दशक पहले तक अमेजन नदी में इतनी भयानक बाढ़ नहीं आती थी लेकिन अब गंभीर बाढ़ की संख्या पांच गुना अधिक हो गई है.
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जलवायु के अनुकूल होते लोग
शोध के सह-लेखक पैरी का कहना है कि इस इलाके के लोग जलवायु परिवर्तन के मुताबिक खुद को बदल रहे हैं. वे कहते हैं कि लेकिन यह कोई समाधान नहीं है. पैरी के मुताबिक, "नदी का बढ़ता स्तर और भारी बारिश यहां रहने वाले लोगों की बदलने की क्षमता से ज्यादा शक्तिसशाली साबित हो रही है."
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वैसे तो पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक संवेदनशील हालात वाले देशों में भारत का भी नाम आता है. 2019 के एक वैश्विक जोखिम सूचकांक में 191 देशों में से भारत की 29वीं रैंक है. भारत के विभिन्न हिस्सों में हर साल बाढ़, अतिवृष्टि, सूखा, भूस्खलन, भूकंप और चक्रवात जैसी मौसमी आपदाओं की मार पड़ती है. इनमें से कई मानव निर्मित आपदाएं भी मानी जाती हैं. गांवों से लेकर शहरों तक बेतहाशा निर्माण, जंगल क्षेत्र में परियोजनाएं और पेड़ों की कटान और पानी की अत्यधिक खपत वाली खेती ने हालात को और पेचीदा और गंभीर बना दिया है. इन स्थितियों में सरकार की यह रिपोर्ट एक स्वागतयोग्य पहल है क्योंकि इससे न सिर्फ संवेदनशील भौगोलिक इलाकों का सहज और सुगम चिन्हीकरण हो पाएगा बल्कि वहां आवश्यकतानुसार न्यूनीकरण प्रबंध के लिए नीति क्रियान्वयन के कार्यक्रम जोर पकड़ेंगे.
इस रिपोर्ट में मशविरे और हिदायतें और सबक भी हैं. लेकिन आखिरकार इस अध्ययन की सार्थकता तभी है जब इसके आधार पर जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक पीड़ित होने वाले समुदायों, जनजातियों, आदिवासियों और गरीबों के लिए समयबद्ध रूप से मुकम्मल पुनर्वास योजना भी समांतर तौर पर चलाई जा सके. सबसे पहली कोशिश तो यही होनी चाहिए कि उन्हें अपने जल जंगल और जमीन से विस्थापित और बेदखल न होना पड़े. क्योंकि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ इंसानी लड़ाई में सबसे आगे की रक्षापंक्ति उन्हीं लोगों से निर्मित होती है जो जंगल के मूलनिवासी हैं और जो कुदरत को सबसे सही और न्यायसंगतत ढंग से समझते आए हैं.
क्या जलवायु परिवर्तन खा जाएगा पोलर बेयर को?
रूस के कुछ वैज्ञानिक आर्कटिक इलाकों के वन्य जीवों पर जलवायु परिवर्तन के असर का पता लगा रहे हैं. उनका विशेष ध्यान है ध्रुवीय भालुओं पर, जिन्हें ग्लोबल वॉर्मिंग के आगे सबसे संवेदनशील जानवरों में से एक माना जाता है.
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नींद में है शोध का यह साझेदार
यह ध्रुवीय भालू इस शोध में हिस्सा जरूर ले रहा है लेकिन अपनी मर्जी से नहीं. वैज्ञानिकों को पहले इसे बेहोश करना पड़ा. रूस के कुछ वैज्ञानिक आर्कटिक इलाकों के वन्य जीवों पर जलवायु परिवर्तन के असर का पता लगाने के लिए एक शोध के मुख्य चरण में हैं. पोलर बेयर इस प्रोजेक्ट का एक मुख्य बिंदु हैं.
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करीब से भालू का निरीक्षण
प्रोजेक्ट का लक्ष्य है ध्रुवीय भालुओं के स्वास्थ्य और व्यवहार पर नजर रखना और यह पता करना कि वो अपने प्राकृतिक वास में आ रहे बदलावों से कैसे जूझ रहे हैं. यह बदलाव मोटे तौर पर जलवायु से संबंधित हैं.
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जलवायु परिवर्तन का प्रतीक
आर्कटिक धरती के बाकी हिस्सों से दो गुना ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है. इस से इलाके के वन्य-जीवों पर गंभीर असर पड़ा है. यहां के सबसे बड़े परभक्षी होने के बावजूद, ध्रुवीय भालू जलवायु परिवर्तन के आगे सबसे संवेदनशील प्रजातियों में से हैं.
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बर्फ नहीं तो शिकार नहीं
पोलर बेयर सील मछलियों और दूसरी मछलियों का शिकार करने के लिए आर्कटिक समुद्र के इर्द गिर्द फैली बर्फ पर निर्भर होते हैं. जैसे जैसे यह बर्फ पिघलती है, भालुओं को खाने के लिए या तो दूर तक तैरना पड़ता है या किनारे पर दूर तक भटकना पड़ता है.
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अंडों का भोजन
भालू का भोजन सील मछलियों और दूसरी मछलियों की आबादी के बीच संतुलन बनाए रखता है लेकिन अब स्थिति बदल रही है. कैनेडियन यूनिवर्सिटी ऑफ विंडसर में हाल ही में हुए एक अध्ययन में सामने आया कि भूखे पोलर बेयर अब अकसर समुद्री पक्षियों के अंडे खाने लगे हैं. इससे प्रकृति के नुकसान की एक कड़ी शुरू हो सकती, जिसकी शुरुआत समुद्री पक्षियों की संख्या कम होने से हो सकती है.
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शिकार की पसंदीदा जगह
इन सब बदलावों को बेहतर समझने के लिए वैज्ञानिक यूएमकेए 2021 अभियान में शामिल हो गए हैं. यह रूस के फ्रांज जोसेफ लैंड में चल रहा है जो लगभग 200 द्वीपों का एक समूह है. यह सभी द्वीप समुद्री बर्फ से जुड़े हुए हैं जो ध्रुवीय भालुओं के शिकार करने की जगह है.
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भालुओं को पकड़ना
यहां ध्रुवीय भालुओं को पकड़ने के बाद वैज्ञानिक उनका वजन, शरीर में जमा हुई चर्बी और रक्तचाप जैसी चीजें नापते हैं और उन्हें नोट कर लेते हैं. इससे उन्हें भालुओं के भोजन और ऊर्जा की खपत में बारे में और ज्यादा जानकारी मिलती है.
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जीपीएस टैग
उसके बाद भालुओं के कानों में जीपीएस टैग लगा कर उन्हें छोड़ दिया जाता है. ये टैग उनके स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी शोधकर्ताओं को लगातार भेजते रहते हैं. इनसे उन्हें हेलीकॉप्टर और ड्रोन से ट्रैक करना भी आसान हो जाता है.
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2100 तक नहीं बचेंगे ध्रुवीय भालू?
वैज्ञानिकों का मानना है कि इन पर करीब से नजर रखने से इन्हें लुप्त होने से बचाया जा सकता है. इनकी आबादी तेजी से गिर रही है और कई अध्ययनों ने यह बताया है कि अगर जलवायु परिवर्तन की रफ्तार कम नहीं की गई, तो इस शताब्दी के अंत तक पोलर बेयर लुप्त हो सकते हैं.
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चिट्ठी ना कोई संदेश
जब भी कोई जीपीएस टैग लगे हुए भालू की मृत्यु हो जाती है, उसका टैग संदेश भेजना बंद कर देता है. वैज्ञानिकों को उसकी खबर मिलनी बंद हो जाती है. यह भले ही उनकी सूची से एक भालू का कम होना हो लेकिन धरती की जैव-विविधता के लिए आर्कटिक के इस परभक्षी की आबादी में कमी आना कहीं ज्यादा बड़ी चिंता का विषय है. - मोनीर घैदी