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जलवायु परिवर्तन ने बिगाड़ा भारत में मॉनसून का मिजाज

अजीत निरंजन
३० अप्रैल २०२१

भारत में हर साल 80 प्रतिशत बारिश उन चार महीनों में ही पड़ जाती है जो किसानों के लिए बड़े अहम हैं. समर मॉनसून की ये बरसात सामान्य नहीं है बल्कि कुछ असाधारण भौगोलिक कारणों से बेकाबू हो चुकी है.

Indien Ahmedabad Wetter & Monsun
तस्वीर: Reuters/A. Deve

जिस देश की 20 प्रतिशत अर्थव्यवस्था खेती पर टिकी हो, वहां फसलों को बहा ले जाने वाली भारी बारिश के भुखमरी बढ़ाने की आशंका ज्यादा होती है. अपने भोजन के लिए भारत में एक अरब से ज्यादा लोग अस्थिर और अनिश्चित जलवायु व्यवस्था पर निर्भर हैं. दो अलग-अलग अध्ययनों के मुताबिक अरब प्रायद्वीप में गर्मियों में उठने वाला धूल का तूफान और दुनियाभर में जलता जीवाश्म ईंधन, यहां भारी मौसमी बारिशों की वजह बन रहे हैं.

मौसमी उलटफेर की मार गरीब देशों पर

अप्रैल में अर्थ-साइंस रिव्यूज जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में बताया गया है कि पश्चिम एशिया (मध्यपूर्व) के रेगिस्तानों के वायुमंडल में दाखिल होने वाले धूल के कण, धूप से इतने गरम हो जाते हैं कि वे अरब सागर के ऊपर वायु के दबाव में भी बदलाव कर देते हैं. आसमान में इसके चलते एक किस्म का हीट पंप बन जाता है, जो महासागर के ऊपर से नमी को खींचता हुआ उसे भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर तान देता है. इसकी बदौलत ज्यादा बारिश वाला मॉनसून सीजन बनने लगता है जो हवाओं को और मजबूत करता हुआ, धूल के और ज्यादा कणों को ऊपर फेंकता रह सकता है.

दूसरा अध्ययन अर्थ सिस्टम्स डाइनेमिक्ट जर्नल में बुधवार को प्रकाशित हुआ. उसमें बताया गया है कि मानव-निर्मित जलवायु परिवर्तन भारत के समर मॉनसून को ज्यादा बरसाती और ज्यादा अस्थिर बना रहा है. सबसे ताजा जलवायु मॉडलों के जरिए जर्मनी में पोट्सडाम इन्स्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) के शोधकर्ताओं ने पाया कि तापमान में हर अतिरिक्त डिग्री का इजाफा, मॉनसून की बारिश में पांच प्रतिशत की वृद्धि कर देता है.

औद्योगिक क्रांति के दिनों से पृथ्वी पहले ही एक डिग्री सेल्सियस से ज्यादा गरम हो चुकी है. नवंबर में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व नेताओं की वैश्विक तापमान को इस सदी में डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक रखने की योजनाएं "निराशाजनक रूप से अपर्याप्त” हैं. इसी रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक गर्मी इसकी दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है. इस मामले में सबसे कम जिम्मेदार देश जैसे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- विशेष रूप से गरीब देश हैं. वे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए कुख्यात देशों की अपेक्षा कृषि पर ज्यादा निर्भर हैं और मौसम की अत्यधिकताओं से पहले ही पीड़ित हैं.

पीआईके से जुड़ी प्रमुख लेखक आन्या कात्सेनबर्गर कहती हैं, "जैसा पहले सोचा जाता था - समर मॉनसून के लिहाज से - और ज्यादा संवेदनशील है. ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के जरिए हमारे पास इन बदलावों की तीव्रता को आकार देने की ताकत है."

भारत में मॉनसून का बिगड़ा मिजाज

अंग्रेजी शब्द मॉनसून अरबी भाषा से आया हैः मौसम. इससे आशय हवाओं की दिशा में साल में दो बार होने वाले परिवर्तनों से है जो गर्मियों में जमीन पर ऊष्ण वर्षा (वॉर्म रेन) लाती है और सर्दियों में ठंडी सूखी हवा को समन्दर की ओर भेजती है. भारत के पश्चिमी घाट जैसे हिस्सों में, समर मॉनसून की आवाजाही, अर्ध-शुष्क पहाड़ों को हरेभरे लैंडस्केप में बदल देने की क्षमता रखती है.

साल दर साल बदलते रहने वाले मॉनसून से संचालित समयावधियों के हिसाब से किसान, हजारों वर्षों से चावल और गेहूं जैसी प्रमख खाद्य फसलें उगाते और काटते रहे हैं. लेकिन जैसे जैसे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से वायुमंडल अवरुद्ध हो रहा है, धूप रुकने लगी है और धरती गरम रहने लगी है, वैज्ञानिक मानते हैं कि मॉनसून और ज्यादा अस्तव्यस्त होता जाएगा.

कात्सेनबर्गर कहती हैं, "भविष्य में बारिश इतनी बेकाबू होती जाएगी तो किसानों के सामने उतनी भारी मात्रा में होने वाली बारिश से निपटने की चुनौती भी होगी." वह कहती हैं कि पहली नजर में देखें तो बरसात में इजाफा फसल के लिए अच्छा संकेत हो सकता है लेकिन बहुत ज्यादा ही होने लगेगी तो कुछ फसलों की पैदावार बहुत ही कम रह जाएगी.

खेती पर निर्भर समाज की चुनौतियां

बहुत से भारतीय अपने जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर हैं और उनकी फसलें बारिश की विभिन्नताओं के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील हैं. तीन अलग अलग संस्थानों से जुड़े जलवायु विशेषज्ञों ने डॉयचेवेले को ईमेल से बताया कि पीआईके का अध्ययन पिछले जलवायु मॉडल से मिलता-जुलता है जिसमें बताया गया है कि ग्रीन हाउस गैसों का लेवल बढ़ने से भारत में समर मॉनसून का मिजाज भी बिगड़ता जाएगा और बारिशें ज्यादा होंगी.

ब्रिटेन में रीडिंग यूनिवर्सिटी में मॉनसून सिस्टम्स के एसोसिएट प्रोफेसर एंड्रयू टर्नर कहते हैं, "सबसे हालिया मॉडलों पर आधारित ये नया शोधपत्र पुरानी रिसर्च को ही सपोर्ट करता है."

वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी वैंकूवर में स्कूल ऑफ एन्वायरोमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर दीप्ति सिंह कहती हैं कि इस अध्ययन में पाया गया है कि "कम उत्सर्जन वाली स्थितियों में प्रोजेक्ट की गयी सहने योग्य तपिश के दौरान भी मॉनसून बिगड़ सकता है. एक प्रमुख निष्कर्ष ये है कि इन सबसे नये क्लाइमेट मॉडलों में मॉनसून की और ज्यादा घोषित तीव्रता का अनुमान लगाया गया है."

लेकिन विश्लेषण में शामिल सभी नये क्लाइमेट मॉडल, मॉनसून सर्कुलेशन का सही सही अनुकरण नहीं करते हैं. इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मटियरियोलॉजी में सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च से जुड़े रॉक्सी मैथ्यू का कहना है, "इससे नतीजों में भरोसा कम होता है. फिर भी एक बात ये है कि तमाम जलवायु मॉडल प्रक्षेपण इस बात से सहमत हैं कि अत्यधिक बरसात की घटनाएं तो बढ़ेंगी ही. बल्कि पर्यवेक्षणों में तो ये बात पहले ही दिखती है."

शहरों पर मंडराता खतरा

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एरोसोल से मिलने वाली स्थानीय ठंडक

वैज्ञानिक मॉनसून के पैटर्न को समझने की जद्दोजहद में लगे हैं क्योंकि वे प्रतिस्पर्धी कारकों पर निर्भर रहते हैं. जलवायु परिवर्तन वैसे तो धरती को गरम कर रहा है लेकिन भू उपयोग में बदलाव और वाहनों के धुएं और फसल को जलाने से होने वाला एरोसोल उत्सर्जन ठंडक पहुंचाने वाला एक फैक्टर है.

1950 से भारत में समर मॉनसून की बारिश वास्तव में कम हुई है. वैज्ञानिक मानते हैं कि ऐसा, ऊर्जा को सोखने वाले एरोसोल्स के धूप को मद्धम करने वाले प्रभाव की वजह से होता है. टर्नर कहते हैं कि ये प्रभाव "अगले 10 या 20 वर्षों में ग्रीनहाउस गैसों की बदौलत होने वाली मॉनसूनी वर्षा वृद्धि को कुछ हद तक भड़काता रह सकता है." भले ही अधिकांश एरोसोल कम बरसात लाते हैं, तब भी कुछ ऐसे हैं जिनका असर विपरीत होता है.

ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने की चुनौती

धरती पर सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों वाले दक्षिण एशिया पर लटकी हुई ब्लैक कार्बन और सल्फेट की मोटी परतें सतह को ठंडा करती है और मॉनसून बारिश में कटौती करती हैं. तब भी खाड़ी से उड़कर आने वाली खनिज धूल वातावरण को गरम कर देती है और बारिश में वृद्धि करा सकती हैं. अर्थ-साइंस रिव्यूज जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक वैसे तो बहुत से अध्ययन इस पर सहमत हैं कि ये धूल के एरोसोल भारत के समर मॉनसून को मजबूत बनाते हैं. लेकिन बारिश कैसे और कहां होगी- इसे लेकर उनके आकलन बहुत भिन्न हैं.

अमेरिका में कन्सॉ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक चिनज्यान जिन कहते हैं कि इन प्रक्रियाओं को समझकर, मॉडल बनाने वालों को बारिश का अनुमान लगाने में बेहतर मदद मिल सकती है. ईमेल के जरिए उन्होंने बताया, "भले ही पिछले कई दशकों में हमने काफी तरक्की कर ली है लेकिन मॉनसून के बारे में हमारी समझ बहुत सीमित है." भारत में समर मॉनसून की बारिश के लिए शताब्दी के प्रारम्भ से ही ग्लोबल वॉर्मिंग, एरोसोल उत्सर्जन जैसी दूसरी इंसानी गतिविधियों से ज्यादा जिम्मेदार रही है. कात्सेनबर्गर का कहना है, "इस शताब्दी के शेष समय में भी ऐसा ही बना रहने का अनुमान है."

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