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समाज

जातिवादी वर्चस्व को तोड़े बिना नहीं मिटेंगे भेदभाव

शिवप्रसाद जोशी
२० जून २०२०

अमेरिका में दो अश्वेत नागरिकों की मौत और दुनिया में जारी आंदोलनों के बीच भारत की ओर भी ध्यान गया है जहां ये भेदभाव अलग अलग ढंग से दिखता है. भारत में व्याप्त भेदभाव पर भी बहस उठने लगी है लेकिन बदलाव की राह आसान नहीं.

भेदभाव के खिलाफ दलित आंदोलनतस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky

अमेरिका के नस्लभेद और रंगभेद की तरह ही भारत का जाति आधारित सामाजिक यथार्थ दमन और शोषण से बना है. एक प्रमुख फर्क यही है कि भारतीय स्थिति ज्यादा पेचीदा, परतदार, बहुआयामी और व्यापक हताशा वाली है. सवर्णवादी और ब्राह्मणवादी विभाजन ने गरीबों, आदिवासियों और दलितों को बराबरी से हमेशा वंचित रखा. ये बंटवारा न सिर्फ धर्मों और जातियों के भीतर है बल्कि उनमें परस्पर भी है. ये विभाजन अमीर-गरीब, छोटे-बड़े और स्त्री-पुरुष का भी है. यहां तक कि कोरोना महामारी की आड़ में भी भेदभाव पनप चुका है, गैर-मरीजों का मरीजों से!

आंकड़े बताते हैं कि दलितों पर क्रूरता और उनसे भेदभाव की घटनाओं में कमी आती नहीं दिखती. ये बात सही है कि संविधान-प्रदत्त अधिकार और कानूनी प्रावधान भी जातीय भेदभाव, उत्पीड़न और अन्याय को खत्म करने में बहुत सफल नहीं रह पाते हैं. क्योंकि सत्ता राजनीति को संचालित करने वाली शक्तियां उन अधिकारों और दमित जातियों के बीच में अवरोध की तरह बनी रहती है. यही वजह है कि आईएएस जैसी सर्वोच्च सिविल सेवा में पहुंच जाने के बाद भी अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को ताने सहने पड़ते हैं, उच्च शिक्षा हासिल करने का सामाजिक दंश झेलना होता है, समाज में अपनी आर्थिक हैसियत बना लेना एक गंभीर अपराध समझा जाता है और उच्च जाति में प्रेम और विवाह जैसी कोशिश तो मौत के मुंह में धकेल सकती है.

हिंदी पट्टी हो या देश के गैर हिंदी-भाषी अन्य राज्य, ये सामाजिक बुराई सदियों से और पीढ़ियों से चली आ रही है. एक अदृश्य सवर्णवादी नियंत्रण समाज में स्थापित है और उच्च जातियों के दबंगों को प्रश्रय देता है. जातीय नरसंहार का दौर पीछे छूट चुका है, अब एक नयी तरह की हिंसा पनप चुकी है, लिंचिग की शक्ल में या सरेराह दिनदहाड़े सजा सुना देने को तत्पर एक हिंसक दबंगता में या फिर अपमानजनक हालात में घेरे रखने की साजिश के रूप में. मंदिरों में प्रवेश से लेकर, खाना छू लेने या सार्वजनिक समारोहों में भागीदारी कर लेने भर से गरीबों और दलितों की जिंदगी पर बन आती है. छुआछूत का बोलबाला है और आम जनजीवन में उनकी भूमिका होने के बावजूद उनसे दास की तरह व्यवहार किया जाता है. जातीय, लैंगिक, क्षेत्रीय, वर्गीय, धार्मिक और भाषायी भेदभाव से पगी हुई ऐसी धारणाएं अपनी प्रगाढ़ता में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हिस्सा बनने लगती हैं.

मानवाधिकार कार्यकर्ता मार्टिन मैकवान तस्वीर: DW/H. Joshi

हर क्षेत्र में भेदभाव

शिक्षा, अध्यापन, साहित्य, कला, संस्कृति, राजनीति और खेल, यानी समाज का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जहां भेदभाव न पसरा हुआ हो. करियर तबाह हो जाने के किस्से और अपमान की घटनाएं पब्लिक डोमेन में हैं. फिल्म उद्योग में सुशांत सिंह राजपूत आज की एक दुखद मिसाल हैं जो मीडिया खबरों के मुताबिक बॉलीवुड के प्रतापियों का शिकार थे. खेल जगत में प्रकट और प्रछन्न दुर्व्यवहार की सबसे नयी मिसाल वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान डारेन सामी की है. पिछले दिनों इंस्टाग्राम पोस्ट के जरिए सामी ने बताया कि उन्हें बहुत देर से पता चला कि जिस शब्द से उन्हें आईपीएल में उनके साथी भारतीय खिलाड़ी संबोधित करते थे वो रंग के आधार पर चिढ़ाने वाला शब्द था. सामी ने खिलाड़ियों के नाम उजागर नहीं किए लेकिन अपेक्षा जरूर की है कि उनसे निजी तौर पर वे खिलाड़ी कम से कम अपनी सफाई तो दें. खबरों के मुताबिक एक खिलाड़ी ने उनसे बात की और समझाया कि उनके अपमान का या चिढ़ाने का किसी का इरादा नहीं था, बस आम बोलचाल का मजाक था. क्रिकेट का चर्चित मंकीगेट भी पाठक भूले न होंगे. सामी हो सकता है मान गए हों और बात खत्म हो चुकी हो लेकिन इससे एक नयी बहस तो खुलती ही है कि आखिर आपसी मजाक के रूप में भी हम उन वर्चस्ववादी शब्दावलियों को कब तक ढोते रहेंगे. बॉडी शेमिंग और नेम शेमिंग जो है सो है.

भारत में ये कह देना कि जातीय भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है, एक ईमानदार पुकार हो सकती है या ये सत्ता राजनीति का एक आकर्षक नारा भी हो सकता है लेकिन ऐसा वास्तव में संभव हो पाएगा ये एक कठिन सवाल बना हुआ है जिसका कोई फौरी जवाब देना कठिन है. सब जगह धंसा हुआ ये भेदभाव कोई सीधी रेखा या एकरेखीय समस्या नहीं है. ऊंची या अगड़ी जात, गोरी चमड़ी, रईसी और ठाठबाट के प्रति आकर्षण, भारतीय पूर्वाग्रह के कुछ उदाहरण हैं. रंग, रूप, देह के आधार पर मजाक उड़ाने और अपमानित करने वाले नाम रखने की मानसिकता मिटी नहीं हैं. इसी रंगभेदी धारणा का फायदा उठाने के लिए बाजार भी है जहां काले रंग को तौहीन की तरह पेश किया जाता है. भारत में अफ्रीकी मूल के छात्रों के साथ हिंसा और बदसलूकी की घटनाएं भी हाल के वर्षों में दिल्ली से लेकर बंगलुरू जैसे ‘संभ्रांत' महानगरों में घटित हो चुकी हैं. पूर्वोत्तर राज्य के नागरिकों ने भी ऐसी ही शर्मनाक हरकतें और क्रूरताएं देश के विभिन्न हिस्सों में भुगती हैं. हाल में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई युवा फिल्मकार निकोलस खारकोन्गोर की फिल्म "अखुनी” इस यातना की झलक दिखाती है.

दलित संगीत के केंद्र में गिन्नी माहीतस्वीर: DW/A. Andre

भेदभाव का विरोध भी

हिंदी साहित्य जगत में विद्यासागर नौटियाल और ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे रचनाकार इन दारुण कथाओं को अपनी कृतियों में पिरो चुके हैं. मराठी भाषा में दलित अस्मिता के सबसे प्रमुख रचनाकार मराठी महाकवि नामदेव ढसाल, बकौल हिंदी कवि विष्णु खरे, ‘भारतीय कविता के आम्बेडकर‘ थे. इसी तरह तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन की रचनाएं- समकालीन दलित चेतना को मौलिक स्वर देती हैं. साहित्य में जातीय क्रूरताओं के प्रति वंचितों के मुखर होने के स्वर इधर और तीखे और स्पष्ट हुए हैं. दलित राजनीति भी परंपरागत दायरों से निकलकर एक नये फलक को निहार रही है. गुजरात में जिग्मेश मेवाणी से लेकर उत्तर प्रदेश मे चंद्रशेखर रावण जैसे युवा नेता जिस राजनीति की अगुवाई करते दिखते हैं. इस दलित राजनीति का एक प्रमुख प्रारंभिक बिंदु है अल्पसंख्यक मुस्लिमों के साथ सामूहिक संघर्ष चेतना का निर्माण.

पॉप्युलर कल्चर में भी दलित अस्मिता ने अपने लिए जगह बनाई है और ग्रेट चमार, चमार पॉप और दलित बैंड जैसे अभियान सामने आए हैं. तमस जैसे छोटे पर्दे की कहानी और पार जैसी संवेदनशील फिल्मों की रोशनी में नयी कहानियां आ रही हैं जिनमें विडंबनाएं और जघन्यताएं बेशक कायम हैं लेकिन विवशता का स्थान उल्लास ने और अन्याय सहते रहने की प्रवृत्ति का स्थान प्रतिरोध ने ले लिया है. इसकी एक झलक नये मीडिया में प्रसारित पाताल लोक जैसे वेब धारावाहिकों मे देखी जा सकती है. ये सब प्रस्तुतियां और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां भी राजनीति के साथ देश में लंबे समय से जारी उस बहस का तानाबाना बुनती है जो जातीय भेदभाव, नफरत और तनाव पर केंद्रित है और आज और तीव्र हो उठी है.

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