भारत में मनुष्य-पशु संघर्ष के मामलों में चिंताजनक बढ़ोत्तरी देखी गई है. रिहाइशों इलाकों में जानवरों का प्रवेश हो या उनके वास-स्थलों पर इंसानी कब्जा, भारत में मनुष्य-पशु संघर्ष का नया अभूतपूर्व दौर चल रहा है.
विज्ञापन
भारत अपनी वन्यजीव आबादी में बढ़ोत्तरी के लिहाज से दुनिया में अग्रणी है. बाघ और एशियाई हाथी का तो भारत सबसे बड़ा ठिकाना माना ही जाता है. लेकिन उसी देश में मनुष्य-पशु संघर्ष वन्यजीव संरक्षण की राह में सबसे बड़ी चुनौती बन गया है.
प्राकृतिक संसाधनों पर इंसानी अतिक्रमण से हाथियों के स्वाभाविक कॉरीडोर छिन गए हैं, बाघों और तेंदुओं की बढ़ती आबादी के लिए रहने की जगह और भोजन की किल्लत हो रही है. यही हाल उन छोटे जानवरों का भी है जो यूं तो अनुसूची एक में दर्ज नहीं हैं लेकिन संघर्ष का एक अलग कोण बनाते हैं. जैसे किसानों की फसल को बरबाद करते जंगली सूअर और नीलगाय और गांव खलिहानों से लेकर शहरों के आवासीय इलाकों में उत्पात मचाते बंदर.
पिछले कुछ महीनों में महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखंड, ओडीशा, कर्नाटक, पंजाब और केरल जैसे कई राज्यों में बाघ और तेंदुओं के हमलों और उन्हें पीट पीट कर मार देने की घटनाएं प्रकाश में आई हैं. जानवरों के हमले भी बढ़े हैं.
मिलिए बेशकीमती और गुणवान भारतीय पशुओं से
दुनिया का सबसे ज्यादा पशुधन भारत में है. बकरियों की संख्या के लिहाज से भारत का विश्व में दूसरा तो भेड़ों में तीसरा स्थान है. मिलिए भारत के पशुधन के उन रत्नों से जो अपनी खासियत के चलते दुनिया भर में आकर्षण का केंद्र है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
भैसों की मुर्रा नस्ल का सरताज - "युवराज"
हरियाणा के पशुपालक कर्मवीर सिंह का 1,500 किलो का यह भैंसा 10.6 फीट लंबा और 5.9 फीट ऊंचा है. यह रोजाना बीस किलो दूध, दस किलो सेब, बीस किलो चारा-दाना और ड्राई फ्रूट का सेवन करता है. इस का नाम प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाडी युवराज सिंह के नाम पर रखा गया है. राष्ट्रीय स्तर पर युवराज सत्रह बार ब्रीड चैम्पियन का पुरस्कार जीत चुका है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
"युवराज" साढ़े नौ करोड़ में नहीं बिकेगा
युवराज के मालिक कर्मवीर सिंह 9.5 करोड़ रुपये में भी उसे बेचने को तैयार नहीं है. वे कहते हैं कि विश्व भर में उनकी प्रसिद्धि युवराज के कारण ही है और वो उनके बच्चे जैसा है जिस का सौदा नहीं किया जा सकता. साल भर में युवराज के वीर्य और प्रदर्शनों से ही कर्मवीर एक करोड़ से ज्यादा कमा लेते है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
कोहिनूर घोड़ा है सवा करोड़ का
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के मारवाड़ी घोड़े "कोहिनूर" के लिए खरीददार सवा करोड़ की कीमत लगा चुके है. दो बार नेशनल लाइवस्टॉक चैंपियनशिप जीत चुका कोहिनूर अपने सीधे खड़े कान, रौबीली कद काठी और चंचलता के लिए घुड़सवारों की पहली पसंद है. इस का दैनिक भोजन एक गिलास देसी घी, मौसमी फल, ड्राई फ्रूट्स और चारा दाना है. इसकी रोज मालिश और कंघी भी होती है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
मोल खोते जा रहे रेगिस्तानी जहाज ऊंट
भारत में ऊटों की घटती संख्या चिंता का विषय बनी हुई है. राजस्थान में तो इसे "राज्य-पशु" का दर्जा दिया गया है. इसके वध पर रोक लगायी गयी है और ऊंट परिवहन को नियंत्रित किया गया है. ऊंटों को बेचना भी पहले जैसा आसान नहीं रह गया है. राजस्थान में कड़े कानून के चलते ऊंट अपनी कीमत खोता जा रहा है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
रेगिस्तान की शान है ऊंट
ऊंट आज भी लोकप्रिय है और रेगिस्तान की शान है. ऊंटनी का दूध मधुमेह, हृदय रोग और एलर्जी के ईलाज के लिए अमृत समान समझा जाता है. ऊटों की मींगनी से सिगार भी बनाये जाने लगे है. कैमल लेदर का उपयोग तो बहुत पुराने समय से होता आया है. कैमल मिल्क और कैमल आइसक्रीम का स्वाद भी अब लोगों की जुबान पर चढ़ने लगा है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
कैमल्स के भी है सैलून
जोधपुर के बिलाड़ा कस्बे के ऊंट पालक श्रवण रामजी अपने ऊटों की रूप सज्जा की इतने शौकीन है कि उसका 'हेयर-ड्रेसर' हमेशा साथ ले कर चलते है. ऊंट पर उनका नाम, पते के साथ ही उनका मोबाइल नंबर और आकर्षक मांडणा भी उकेरा गया है. कमल का एक फूल और "जय जय राजस्थान" का नारा भी ऊंट पर नजर आता है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
काला सोना है - काला मुर्गा 'कड़कनाथ"
मुर्गों की एक किस्म "कड़कनाथ" अत्यंत स्वादिष्ट और औषधिकारी है. इसमें सबसे ज्यादा प्रोटीन, सभी अठारह तरह के आवश्यक एमिनो एसिड और कई तरह के विटामिन होते हैं. इस के मांस में कोलेस्ट्रॉल भी काफी कम होता है. अपने काले रंग और काले खून के लिए प्रसिद्ध इस मुर्गे की आदिवासी समुदाय में विशेष मांग है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
चार गुना ज्यादा अंडे देने वाली मुर्गी "प्रतापधन"
राजस्थान में विकसित की गयी मुर्गियों की नई नस्ल "प्रतापधन" देसी मुर्गियों की तुलना में, तीन चौथाई ज्यादा शारारिक भार वाली और चार गुना ज्यादा अंडे देती है. यह खुद बहुरंगी है और इस के अंडे हल्के भूरे रंग के होते हैं. इस का नर मादा से ज्यादा खूबसूरत होता है.
तस्वीर: DW/J. Sehgal
फैक्ट्री चलाने जैसा है सूअर पालन
मात्रा 8-9 महीने में एक मादा सूअर बच्चे देने के लिए तैयार हो जाती है और एक बार में वो 6 से 12 बच्चे देती है. सूअरों में सबसे तेज गति से शारारिक वृद्धि होती है और इसीलिए सूअर पालन का व्यवसाय भारत के युवा उद्यमियों की पसंद बनता जा रहा है. भारत में वाइट यॉर्कशायर नस्ल काफी लोकप्रिय है. (जयपुर से जसविंदर सहगल की रिपोर्ट)
तस्वीर: DW/J. Sehgal
9 तस्वीरें1 | 9
राजस्थान स्थित रणथंभौर राष्ट्रीय पार्क में पिछले दिनों बाघ ने दो लोगों को मार डाला. केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय के एक आंकड़े के मुताबिक 2013 से 2017 के बीच मानव-पशु संघर्ष में 1,608 लोगों की जानें गई हैं.
ये आंकड़ा उन 23 राज्यों से मिला है जहां वन्यजीव और मनुष्य संघर्ष का डाटा दर्ज किया गया है. इन आंकड़ों के समांतर ऐसा डाटा नहीं मिला जिसमें जानवरों की मौत का भी उल्लेख हो. दरअसल ये डाटा प्रभावित व्यक्तियों के मुआवजा क्लेम के आधार पर तैयार किया गया.
2014 से 2018 तक लगातार चार साल, देश में बाघ के हमलों में सबसे ज्यादा (45 प्रतिशत) मौतें महाराष्ट्र में दर्ज की गईं. सरकार ने राज्य में मनुष्य पशु संघर्ष पर काबू पाने के लिए देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के साथ मिलकर 19 करोड़ रुपए की एक योजना को मंजूरी दी है. एक चिंताजनक तस्वीर कर्नाटक से भी है, जहां पिछले पांच साल में राज्य में 220 मौतें हुईं जिनमें सबसे अधिक जंगली हाथियों से हुई हैं. जानकारों का मानना है कि पश्चिमी घाट का वनक्षेत्र, परियोजना आधारित सघन गतिविधियों से छिन्न-भिन्न हुआ है.
वन विशेषज्ञों के मुताबिक हाथी 600 से 700 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र कवर करते हैं, खास मौकों पर 2,800 वर्ग किलोमीटर तक भी सफर कर लेते हैं. लेकिन भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का पांच फीसदी हिस्सा ही संरक्षित वन क्षेत्र है, तो ऐसे में बड़े जानवरों के लिए विचरण के लायक जगह ही नहीं बचती है.
भारत में 30 हजार हाथी और 2,200 से ज्यादा बाघ हैं. नई गणना में ये संख्या बहुत अधिक बढ़ने की बात की जा रही है. पूरी दुनिया में बाघों की रेंज वाले 13 देश हैं. इनमें भारत अव्वल है. उसके पास सबसे अधिक संख्या में बाघ हैं - वैश्विक बाघ आबादी का करीब 70 प्रतिशत. लेकिन भारत के पास जंगल क्षेत्र बहुत कम यानी प्रति व्यक्ति वन 0.06 हेक्टेयर है.
जंगली पशु जब अपने कुदरती कॉरीडोर से होकर गुजरते हैं, यानी खाने की तलाश में एक जंगल से दूसरे जंगल का रुख करते हैं तो उनके रास्ते में खेत भी पड़ते हैं, शाकाहारी पशुओं के लिए इससे बेहतर जगह हो नहीं सकती और उनके शिकार की टोह में निकले मांसाहारी पशु भी इसी तरह खेतों और रिहाइशी इलाकों का रुख करते हैं. इन्हीं हालात में वे कभी तस्करों का शिकार बनते हैं या ग्रामीणों के गुस्से का या सड़कों में वाहन के नीचे आकर कुचले जाते हैं.
इस तरह, एक समय जो समूचा जंगल क्षेत्र था और जो पशुओं के रास्ते थे - वे खेतों और रिहाइशों में, रेल पटरियों, सड़कों, पुलों, हाइवे, खदान के कॉरीडोरों, बिजली की लाइनों, जलबिजली और अन्य परियोजनाओं के नये ठिकानों में तब्दील हुए हैं. अभ्यारण्यों के आसपास होटलों, लॉज, रेस्तरां और अन्य एडवेंचर गतिविधियों ने भी प्रदूषण और गतिरोध उत्पन्न किए हैं.
जानवरों को कब मिलेगा इंसान के प्रयोगों से छुटकारा
04:04
जंगल का न सिर्फ इलाका घुट रहा है बल्कि उसकी जैव विविधता, पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर भी बुरा असर पड़ रहा है. कुदरती जल स्रोत सूख रहे हैं, आग लगने की घटनाएं बढ़ी हैं, नदियों का जलस्तर घटा है, बरसाती नदी नाले अवैध खनन और अन्य वजहों से गायब हुए हैं और तस्करों का अदृश्य नेटवर्क जानवरों और जंगल पर निर्भर समुदायों के पीछे लगा है.
प्रभावित लोगों के साथ समन्वय की कमी और उनकी अनदेखी से भी मामला गंभीर बना हुआ है. प्रतिक्रियात्मक उपाय तो हैं लेकिन प्रोएक्टिव उपायों की कमी है. अगर सामुदायिक पारस्पारिकता बढ़ाई जाए, उन्हें कार्ययोजना में भागीदार बनाया जाए और उनसे संवाद बनाए रखा जाए तो हो सकता है पशुओं के साथ टकराव के मामलों में कमी आए और लोगों में पशुओं का खौफ कम हो पाए. वे सहजीवन की जरूरतों और शर्तों को ठीक उसी तरह समझें जैसा कि उनके पूर्वज करते आए थे.
स्थानीय लोगों को मुनाफाखोरों, भूमि दलालों, ठेकेदारों, राजनीतिक लोलुपता के दुष्चक्र से भी निकलने की जरूरत है. जनजागरूकता में ये बात निहित है कि वे अपने भीतर आत्मविश्वास और साहस रखें कि कोई उन्हें डरा-धमका या बरगला न सके. आबादी का सक्रिय प्रबंधन, फसल सुरक्षा की आधुनिक और नवोन्मेषी तकनीकें, खेती के पैटर्न में सुधार, समय पर मुआवजा, फसल या जीवन के नुकसान का समुचित बीमा- ये भी कार्ययोजनाओं का हिस्सा हैं.
बंदरों, सुअरों और नील गाय की आबादी पर अंकुश लगाने के उपायों पर भी जोर दिया जाना चाहिए और नये रिजर्व क्षेत्र चिंहित करने चाहिए. लेकिन सबसे जरूरी ये है कि परियोजनाओं की अत्यधिकता पर भी अंकुश लगाया जाए. ये तो हर हाल में सुनिश्चित करना ही होगा कि संरक्षित क्षेत्र के इर्दगिर्द या उसके भीतर मनुष्य गतिविधि न्यूनतम हो.
केंद्र, राज्य और सिविल सोसायटी के बीच समन्वय और सामूहिक जिम्मेदारी की जरूरत है. संवेदनशील इलाकों के चिन्हीकरण के साथ निगरानी का सिस्टम मुस्तैद बनाने के अलावा वन गार्डो के वेतन और रहनसहन की स्थितियों में सुधार की जरूरत है. स्थानीय आबादी को वन-मित्र बनाने की कोशिशें होनी चाहिए न कि उन्हें जंगल के उपभोक्ता बनाकर छोड़ दिया जाए और फिर वे नादानी या असावधानी या विवशता में किसी कथित कानून की अनदेखी कर बैठें तो उन्हें दंडित कर दिया जाए. कौशल विकास की दिशा में जंगल क्षेत्र की निगरानी का दायित्व उन्हें सौंपा जा सकता है. हालांकि ये काम ऐसे हैं जो अभी तक हो जाने चाहिए थे. सच्चाई ये है कि इन कार्यों पर कभी निष्ठा और पारदर्शिता से अमल ही नहीं किया गया. वरना वन-मित्र की अवधारणा इस देश के लिए नई नहीं है.
अब इंटरनेट पर बिकने लगे हैं जंगली जानवर
इंटरनेट ने न सिर्फ इंसानों की, बल्कि जानवरों की जिंदगी में भी दखल बना लिया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक इंटरनेट पर संरक्षित वन्यजीवों का बाजार तेजी से बढ़ा है और महंगे दामों में इनकी खरीद-फरोख्त हो रही है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Hussain
क्या है मसला
वन्यजीवों के संरक्षण से जुड़ी गैरसरकारी संस्था इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर (आईएफएडब्ल्यू) ने अपनी रिपोर्ट में इस मामले पर रोशनी डाली है. संस्था ने कहा कि हाथी दांत, तेंदुए की खाल से बने कोट से लेकर कछुए और जीवित भालू समेत तमाम तरह के पशु इंटरनेट पर बिक रहे हैं.
तस्वीर: Getty Images/D. Kitwood
कहां के आंकड़ें
संस्था ने रूस, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों में जानवरों से जुड़ी जानकारी को जुटाने में तकरीबन छह हफ्ते का वक्त लिया. विशेषज्ञों ने देखा कि इंटरनेट पर विलुप्त होने के खतरे से जूझ रहे पशुओं की खरीद-फरोख्त पर तमाम विज्ञापन हैं जिनमें पशुओं के जिंदा, मृत, टुकड़ों तक की पेशकश की गई है.
तस्वीर: imago/Anka Agency International
विज्ञापनों की भरमार
ऐसे करीब 11,772 जानवर और इनसे जुड़ी सामग्री इंटरनेट पर बिक रही है. ऐसे करीब पांच हजार से भी ज्यादा विज्ञापन वेबसाइट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर चल रहे हैं. इनकी कीमत भी कुल 40 लाख डॉलर के करीब बैठती है.
तस्वीर: Imago/imagebroker
क्या बिक रहा है
रिपोर्ट में कहा गया है बड़ी संख्या जिंदा पशुओं की भी है, जिसमें मीठे-पानी में रहने वाले कछुए (45 फीसदी), चिड़िया (24 फीसदी) और स्तनपायी जीव (5 फीसदी) है. आईएफएडब्ल्यू के मुताबिक ऐसी खरीद-फरोख्त, कन्वेंशन ऑफ इंटरनेशनल ट्रेड इन एनडेंजर स्पीशीज (सीआईटीइएस) के एक खास परमिट के तहत संभव है लेकिन इन मामलों में ऐसा नहीं है.
तस्वीर: DW/E. Boniphace
गैरकानूनी बिक्री
संस्था अपनी जांच के आधार पर दावा करती है कि इंटरनेट पर पेश की जा रही ये खरीद-फरोख्त गैरकानूनी है. अमेरिका की गैरसरकारी संस्था वाइल्ड क्राइम कहती है कि इंटरनेट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को तेजी से बदला है, जिसके चलते गैरकानूनी जीव व्यापार का तौर-तरीका भी बदल गया है.
ये संस्थाएं कहती हैं कि वन्यजीव अपराध अब ऑनलाइन स्पेस की ओर मुड़ गया है. कछुओं के अलावा, सरीसृपों में सांप, छिपकली, घड़ियाल की भी इस काले बाजार में काफी मांग है. उल्लू समेत अन्य पक्षियों में सारस, रंगबिरंगा टूकन भी इस ई-मार्केट में उपलब्ध है.
स्तनपायी जीवों का बाजार इंटरनेट पर काफी विविधताओं भरा है. गैंडों के सींग से लेकर, तेंदुए की खाल और हाथी के पैरों से बनी कॉफी टेबल भी बिक रही है. रूस में इन जानवरों की बिक्री बढ़ी है, जिनमें बिल्ली, बंदर और भालू शामिल हैं.