जान से भारी कतर की नौकरी
२३ जनवरी २०१४कई महीने तक वेतन नहीं दिया गया. अब 44 साल के गुरुंग इस घटना को याद करके कहते हैं, "एक कैफे में छात्र ने मुझ पर नस्ली टिप्पणी की. मैंने उससे कहा कि यह वैसा ही है अगर मैं उसे एक खास तरीके से बुलाऊं. फिर क्या था, उसने मुझे सींखचों के पीछे पहुंचवा दिया." गुरुंग दो साल तक वहां विज्ञान पढ़ाते रहे. नेपाल के बुद्धिजीवी वर्ग से दबाव पड़ने के बाद उन्हें 12 दिन बाद किसी तरह रिहा किया गया.
इसके बाद उन्हें घर भेज दिया गया. इसके बाद से वह पैसे इकट्ठा कर रहे हैं, ताकि मारे गए प्रवासी लोगों के बच्चों को पढ़ाया जा सके, "अगर मुझ जैसे पढ़े लिखे आदमी को जेल जाना पड़ सकता है, तो फिर सोचिए कि उनका क्या होगा, जिन्हें पढ़ना भी नहीं आता, जो विदेशी भाषा में ठीक से अपनी बात भी नहीं कह सकते." गुरुंग का कहना है कि जेल में उन्हें कई और नेपाली मिले, जिनका कहना था कि उन्हें गलत आरोप में फंसाया गया है.
खतरनाक है कफाला
उनका कहना है, "कफाला सिस्टम के तहत कतर में नौकरी देने वाले को नौकरी पाने वाले पर पूरा अधिकार मिल जाता है. यहां तक कि दस्तावेज हासिल करने और नौकरी बदलने का अधिकार भी नौकरी देने वाले के रहम पर निर्भर करता है. यह आधुनिक काल की दास प्रथा जैसा है."
हर रोज कोई 1600 नेपाली मजदूर मलेशिया या खाड़ी देशों की तरफ जाते हैं. वे आम तौर पर मजदूरी करने जाते हैं. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता दिवास आचार्य का कहना है कि प्रतिदिन दो से चार नेपाली लोगों का शव त्रिभुवन एयरपोर्ट पर आता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2000 के बाद से 7500 नेपाली नागरिक प्रवास के दौरान दूसरे देशों में मारे गए. पिछले चार महीने में ही 60 लोगों की मौत हो चुकी है. आचार्य का कहना है कि नौकरी देने वाली कंपनियां इन्हें "स्वाभाविक मौत" बताती हैं. गुरुंग कहते हैं, "कतर में आम तौर पर मजदूरों की मौत की वजह दिल का दौरा या लू लगना बताया जाता है. कभी कभी तो कहा जाता है कि मजदूर सोने गए और फिर बिस्तर से उठे ही नहीं."
बेध्यान सरकार
सितंबर में नेपाल ने कतर से अनुरोध किया था कि उसे मजदूरों की सेहत का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जुलाई अगस्त में 44 लोगों की मौत हो गई थी. आचार्य कहते हैं, "कतर सरकार ने अपनी कंपनियों की निगरानी कड़ी कर दी और हमारे दूतावास में खबर भेजी गई कि स्थिति पहले से बेहतर हुई है." हालांकि गुरुंग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते, "नेपाल सरकार की उपस्थिति कमजोर है. इतने सारे बेकसूर लोगों के लिए हमारे दूतावास ने कुछ नहीं किया. कई तो अभी भी जेल में हैं."
विदेश मंत्रालय का हाल अजीब है. अगले दिन सुबह दफ्तर खुलने के इंतजार में लोग एक दिन पहले ही रात 10 बजे लाइन लगा देते हैं, ताकि उन्हें पासपोर्ट मिल सके. सर्दियों में भी वे लंबी लाइनों में खड़े रहते हैं ताकि लेबर परमिट हासिल कर सकें. पिछले नौ साल से अलग अलग देशों में काम कर चुके मोहन सिंह बसनेत का कहना है, "नेपाल में आपको क्या मिलेगा. या तो आपको धोखाधड़ी करनी होगी या फिर किसी से पैरवी करानी होगी. नेताओं के मन में इस स्थिति को बदलने का ख्याल ही नहीं आता."
जान जाए तो जाए
बसनेत कहते हैं, "मैंने इराक और अफगानिस्तान जैसे देशों में भी काम किया है, जहां मेरी जान भी जा सकती थी. लेकिन कम से कम मैंने इतना कमा लिया है कि मेरे परिवार को मुश्किल नहीं होगी."
माया तमांग का कहना है, "पहले मैं कुवैत में नौकरानी के तौर पर काम करती थी. लेकिन मेरे साथ बुरा सलूक हुआ, फिर मैं कतर चली गई." तमांग के पति भी कतर में ही रहते हैं लेकिन दोनों को साथ रहने की इजाजत नहीं मिली, "हम पति पत्नी के तौर पर नहीं रह सकते क्योंकि वहां का कानून बहुत सख्त है. लेकिन नेपाल में बेरोजगार रहने से बेहतर है कि किसी एक देश में दोनों रह रहे हैं."
नेपाल के जीडीपी का 28 फीसदी विदेशी धन से जुड़ता है. राष्ट्रीय योजना आयोग के पूर्व सदस्य गणेश गुरुंग का कहना है, "जो लोग इन नौकरियों के लिए आवेदन करते हैं, आम तौर पर वे दक्ष कामगार नहीं होते. इसकी वजह से उन पर खतरा ज्यादा रहता है." वहीं कतर की जेल से छूटे दोरजी गुरुंग कहते हैं, "एजेंट उन्हें सब्जबाग दिखाते हैं, कहते हैं कि विदेशों में पैसा है और उनके परिवार का ध्यान रखा जाएगा. कोई निराश है, तो उसे आसानी से उम्मीदें बेची जा सकती हैं." उनका कहना है कि 22 साल का एक नेपाली नागरिक कतर की जेल में बंद है और पांच साल से अपने परिवार से नहीं मिला है. गुरुंग कहते हैं कि उनके लिए तो ज्यादा मुश्किल नहीं रही लेकिन "हजारों लोग ऐसे हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ खो दिया है."
एजेए/एमजे (डीपीए)