जापान में जबरन सेक्स और बलात्कार की है अटपटी परिभाषा
११ जून २०१९![Symbolbild junges Mädchen Gewalt Vergewaltigung](https://static.dw.com/image/42610877_800.webp)
जापान की मियाको शिराकावा 19 साल की थीं जब उनके साथ बलात्कार हुआ. उस पल को याद करते हुए वह कहती हैं कि जब उस आदमी ने उन्हें पकड़ा तब वह सुन्न पड़ गईं, समझ ही नहीं पाईं कि उन्हें क्या करना चाहिए, "जब तक मैं कुछ समझती, वो मेरे ऊपर था." यानी मियाको अपने बलात्कारी से लड़ी नहीं. वह डर गईं और उन्होंने समर्पण कर दिया.
जापान के कानून के अनुसार किसी पर बलात्कार का आरोप साबित करने के लिए जरूरी है कि यह भी साबित किया जाए कि पीड़िता ने खुद को बचाने की कोशिश की थी. ऐसा ना होने पर इसे दोनों की सहमति से बना संबंध माना जा सकता है. 2017 में जापान ने अपने बेहद पुराने बलात्कार कानून में संशोधन तो किया लेकिन इस परिच्छेद को नहीं बदला. पीड़िता को यह साबित करना पड़ता है कि वह अपना बचाव करने की हालत में नहीं थी. यह तब मुमकिन है जब पीड़ित विकलांग हो या वह ऐसी स्थिति में है जिसमें वह खुद का बचाव नहीं कर सकती.
मियाको जैसे मामलों में इसका सीधा मतलब यह है कि बलात्कारी को सजा नहीं हो सकती. मियाको बलात्कार से गर्भवती भी हुईं लेकिन उन्होंने पुलिस में शिकायत नहीं की, बल्कि चुपचाप बच्चा गिराने का फैसला ले लिया. आज मियाको की उम्र 54 साल है. वे मनोचिकित्सक हैं और यौन उत्पीड़न का शिकार हो चुकी लड़कियों की मदद करती हैं. बतौर साइकैट्रिस्ट मियाको आज अपने सुन्न पड़ जाने की वजह को समझती हैं, "यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह खुद को सुरक्षित रखने का एक तरीका है."
जापान में हाल के महीनों में बलात्कार के आरोपियों के बरी होने के कई मामले सामने आए हैं जिनसे मियाको और अन्य कार्यकर्ता काफी निराश हैं. ऐसा ही एक मामला मार्च में सामने आया जब एक पिता पर अपनी 19 साल की बेटी का बलात्कार करने का आरोप लगा. समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार अदालत ने अपने फैसले में माना कि संबंध सहमति से नहीं बनाया गया था. अदालत ने यह भी माना कि पिता ने बल प्रयोग किया और बेटी का शारीरिक और यौन उत्पीड़न किया. लेकिन जजों ने इस बात पर संदेह व्यक्त किया कि क्या लड़की के पास अपना बचाव करने का कोई विकल्प नहीं था. मामला अब भी अदालत में है और स्थानीय मीडिया में इस पर खूब बहस भी चल रही है.
इस मामले के चलते जापान में जगह जगह प्रदर्शन किए जा रहे हैं. प्रदर्शनकारियों का मानना है कि मौजूदा कानून के चलते पीड़ित खुद को दोषी मानने लगते हैं और सामने आने से डरते हैं. हालिया फैसलों के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली मिनोरी कीताहारा की मांग है कि जापान में भी ब्रिटेन, जर्मनी और कनाडा जैसे संवेदनशील कानून बनें. वह कहती हैं, "इस वक्त दुनिया भर में यौन उत्पीड़न पर पीड़ित के नजरिए से चर्चा चल रही है. ऐसे में जापान की कानूनी प्रक्रिया और समाज को बदलने का वक्त आ गया है."
उम्मीद जताई जा रही है कि इस तरह के प्रदर्शनों से वे लोग भी सशक्त हो पाएंगे जो अब तक अपने साथ हुई ज्यादती को ले कर खामोश हैं. हालांकि दुनिया भर में चले मीटू मूवमेंट का जापान पर कोई असर नहीं हुआ था. आंकड़े बताते हैं कि यौन उत्पीड़न के महज 2.8 फीसदी मामले ही पुलिस तक पहुंचते हैं. अधिकतर मामलों में तो पीड़ित किसी से भी अपनी आपबीती नहीं कहते हैं. 2017 की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार जबरन संबंध बनाए जाने के लगभग 60 फीसदी मामलों में महिलाओं ने किसी से भी कुछ नहीं कहा. मियाको शिराकावा इस बारे में बताती हैं, "मेरे पास आने वाले मरीज डरे हुए होते हैं. ज्यादातर को लगता है कि वे कोई कानूनी कार्रवाई कर ही नहीं सकती और उनके पास बस एक ही विकल्प है कि अकेले बैठे रोती रहें."
भारत की ही तरह जापान में भी घर की लड़कियों को परिवार की इज्जत संभालने के लिए जिम्मेदार माना जाता है. किसी लड़की के साथ कुछ गलत होने पर जापानी समाज में उसी की गलती ढूंढी जाती है. कानूनी जानकार बताते हैं कि बलात्कार से जुड़े कानून जापान में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिलने से पहले बनाए गए थे और इनका मकसद परिवार की इज्जत बचाना था. वकील तोमोको मुराता बताती हैं, "इसके पीछे विचार यह है कि महिला को आखिरी हद तक विरोध करना चाहिए. इसके अलावा आज भी यह माना जाता है कि लड़की की ना में हां छिपी है. संबंध बनाने से पहले लड़की की स्वीकृति लेना जरूरी है, यह बात लोगों को समझ में नहीं आती है."
2017 में जब कानून में संशोधन किया गया तब बलात्कार की परिभाषा का विस्तार हुआ, माना गया कि पुरुष भी पीड़ित हो सकते हैं. साथ ही नाबालिगों के अधिकारों की भी रक्षा की गई. लेकिन बलात्कार का विरोध करने वाले परिच्छेद को इसलिए नहीं हटाया गया ताकि झूठे मामलों को प्रोत्साहन ना मिले. उस वक्त यह भी कहा गया कि तीन साल बाद कानून की समीक्षा की जाएगी. ऐसे में जापान के लोगों को उम्मीद है कि शायद 2020 में इस परिच्छेद को भी हटा दिया जाएगा. देश के लिए यह अब केवल एक सामाजिक ही नहीं, राजनीतिक मामला भी बन गया है.
आईबी/एए (रॉयटर्स)
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