लोकसभा चुनावों से ठीक पहले का साल किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन के लिए काफी अहम होता है. लेकिन कभी राष्ट्रीय राजनीति में अहम स्थान रखने वाले लेफ्ट फ्रंट के लिए वर्ष 2018 एक ऐसा साल है जिसे वह कभी याद नहीं रखना चाहेगा.
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इस दौरान लेफ्ट फ्रंट को देश के अपने दूसरे सबसे मजबूत गढ़ त्रिपुरा में सत्ता से हाथ धोना पड़ा. वहीं पश्चिम बंगाल में भी उसके पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला नहीं थम सका है. पंचायत से लेकर तमाम चुनावों में पार्टी तीसरे-चौथे नंबर पर खिसकती रही है.
अब उसके पास दक्षिणी राज्य केरल ही बचा है. लेकिन वहां इस साल की भयावह बाढ़ से उबरते हुए राज्य का पुनर्निमाण करना उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती है. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के बीच लगातार बढ़ती खाई ने राजनीतिक परिदृश्य में उसकी अगुवाई वाले लेफ्ट को राजनीति के हाशिए पर पहुंचा दिया है. अपने सबसे मजबूत गढ़ रहे बंगाल में उसके पास ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं बचा है.
त्रिपुरा का गढ़ ढहा
लेफ्ट फ्रंट को वर्ष 2018 की शुरुआत में सबसे बड़ा झटका पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में लगा. इस राज्य को पश्चिम बंगाल के बाद लेफ्ट और खासकर सीपीएम का सबसे मजबूत गढ़ माना जाता था. वहां 25 साल से उसकी सरकार थी और अपनी ईमानदारी व सादगी के लिए मशहूर मानिक सरकार दो दशक से मुख्यमंत्री थे. लेकिन विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने उसे गहरा झटका देते हुए सत्ता से बाहर कर दिया. साठ सदस्यों वाली विधानसभा में लेफ्ट 50 से घट कर केवल 16 सीटों तक सिमट गया.
पश्चिम बंगाल में वर्ष 2011 से लेफ्ट फ्रंट की लोकप्रियता घटने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह वर्ष 2018 में भी नहीं थम सका. इस दौरान होने वाले तमाम शहरी निकाय के चुनावों और लोकसभा व विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों में पार्टी कहीं तीसरे तो कहीं चौथे स्थान पर रही. ग्रामीण इलाकों में अपने मजबूत जनाधार के चलते पार्टी ने लगभग साढ़े तीन दशकों तक बंगाल पर राज किया था. लेकिन उन इलाकों में हुए पंचायत चुनावों में भी उसे जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी. इस दौरान राज्य में बीजेपी दूसरे नंबर पर काबिज हो गई.
केरल से उम्मीदें
अब लेफ्ट के पास महज केरल ही बचा है. लेकिन वहां भी उसकी सरकार को भारी चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है. पहले तो बाढ़ ने राज्य में भीषण तबाही मचाई थी. सरकार के समक्ष उस आपदा से हुए नुकसान की भरपाई की चुनौती है. उसके बाद सबरीमाला मुद्दा भी मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन व उनकी सरकार के लिए गले की फांस बनता रहा. मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार अमल नहीं कर सकी. खासकर बीजेपी और आम लोग इसके विरोध में खड़े रहे. लेफ्ट को अगले साल आम चुनावों में इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है.
जर्मनी को कितने याद हैं मार्क्स और एंगेल्स?
समाजवाद के जनक माने जाने वाले कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स जर्मनी में विवादित जरूर माने जाते हैं लेकिन इसके बावजूद यहां की कई स्मारक आज भी इन्हें याद करती नजर आती हैं. एक नजर जर्मनी की ऐसी ही स्मारकों पर.
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चीन की भेंट
साल 2018 में मार्क्स की 200वीं वर्षगांठ हैं. इस मौके पर चीन ने मार्क्स की 6.3 मीटर ऊंची एक प्रतिमा को जर्मनी के शहर ट्रियर को देने की पेशकश की है. ट्रियर कार्ल मार्क्स का जन्म स्थल है. लंबी बहस और सोच विचार के बाद अब सिटी काउंसिल इस भेंट को स्वीकार कर रही है.
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मार्क्स की झलक
ट्रियर ने इस राजनीतिक विचारक की मौत के 130 साल बाद 2013 में उनकी वर्षगांठ मनाई थी. जर्मन आर्टिस्ट ओटमार होर्ल ने इस मौके पर मार्क्स की प्लास्टिक की 500 मूर्तियां तैयार की थीं. इनका मकसद मार्क्स के कार्यों और विचारों पर बहस को प्रोत्साहित करना था.
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विचारक के रूप में एंगेल्स
साम्यवाद के दार्शनिक फ्रेडरिक एंगेल्स की यह चार मीटर ऊंची कांस्य मूर्ति, ट्रियर में लगी मार्क्स की मूर्ति से कुछ छोटी है. एंगेल्स के गृहनगर वूपरटाल में लगी यह मूर्ति भी एक चीनी आर्टस्टि ने तैयार की थी. साल 2014 में चीन की सरकार ने ही यह मूर्ति भी दी थी.
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पश्चिम की ओर
बर्लिन में "कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो" को लिखने वाले इन दोनों विचारकों को पेश किया गया है. साल 1986 में पूर्वी जर्मनी की सरकार ने इस स्मारक को बनवाया था. लेकिन साल 2010 में इस स्मारक में कुछ बदलाव किया गया और अब मार्क्स और एंगेल्स पश्चिम की ओर देखते नजर आते हैं
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पत्थरों पर उकेरा
जर्मनी के शहर खेमित्स में मार्क्स की एक बड़ी मूर्ति को पत्थरों पर उकेरा गया है. इस शहर का भी नाम साल 1990 में मार्क्स के नाम पर रखा गया. दीवार पर कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का बेहद प्रचलित वाक्य "दुनिया के मजदूर, एकजुट हों" चार भाषाओं (जर्मन, अंग्रेजी, रूसी, फ्रेंच) में लिखा है.
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बिस्मार्क की जगह ली
पूर्वी जर्मनी का हिस्सा रहे फुर्स्टनवाल्डे शहर में इस पत्थर पर कभी जर्मन साम्राज्य के पहले चांसलर बिस्मार्क की मूर्ति उकेरे हुई थी. लेकिन साल 1945 में यहां बिस्मार्क के स्थान पर मार्क्स को स्थापित कर दिया गया.
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विवादों की संभावना को हवा देती प्रतिमा
जर्मन शहर लाइपजिग में कार्ल मार्क्स को इस कांस्य प्रतिमा में भी उकेरा गया है. लगभग 30 वर्ष तक इसने लाइपजिग यूनिवर्सिटी के मुख्य द्वार की शोभा बढ़ाई. 2006 में मरम्मत के काम के लिए इसे वहां हटाया गया. फिर इसे कैंपस यानाले में लगाया गया.
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दरअसल, लेफ्ट की सबसे बड़ी घटक सीपीएम के शीर्ष नेतृत्व के बीच बढ़ते मतभेदों ने पार्टी को राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा दिया है. विपक्षी महागठबंधन के सवाल पर पूर्व महासचिव प्रकाश कारत और मौजूदा महासचिव सीताराम येचुरी की अलग-अलग लाइन का मुद्दा केंद्रीय समिति से लेकर पार्टी कांग्रेस तक में छाया रहा. सीपीएम की बंगाल प्रदेश समिति इस मुद्दे पर सीताराम येचुरी के साथ रही. शीर्ष नेतृत्व ने बंगाल में सीपीएम को कांग्रेस से हाथ मिलाने की अनुमति नहीं दी. नतीजतन पार्टी के पैरों तले जमीन खिसकने का सिलसिला नहीं रुका.
क्यों राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा लेफ्ट
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि नई सामाजिक-आर्थिक संरचना के अनुरूप नीतियों में जरूरी बदलाव करने में नाकामी, आत्ममंथन का अभाव, आंतरिक मतभेदों, प्राथमिकताएं तय नहीं होने और खासकर पश्चिम बंगाल में पूर्व मुख्यमंत्रियों - ज्योति बसु व बुद्धदेव भट्टाचार्य - के कद के नेताओं की कमी ने पार्टी को आम लोगों से दूर कर दिया है.
राजनीति विज्ञान के एक प्रोफेसर संजय सेनगुप्ता कहते हैं, "बदलते समय के साथ खुद को नहीं बदलना ही सीपीएम की नाकामी और उसके राजनीतिक हाशिए पर पहुंचने की प्रमुख वजह रही. लोकसभा व विधानसभा चुनावों में मिलने वाले वोटों में लगातार कमी से साफ है कि पार्टी अब अपना जनाधार खो चुकी है.” वह कहते हैं कि आंतरिक मतभेदों में व्यस्त रहने की वजह से शीर्ष नेतृत्व में कभी इन वजहों पर ध्यान देकर उनको दूर करने की कोई रणनीति ही नहीं बनाई. नतीजतन पार्टी धीरे-धीरे आम लोगों और खासकर कामगर तबके से दूर होती गई.
पर्यवेक्षकों का कहना है कि सीपीएम ने बंगाल या त्रिपुरा में कभी जमीनी हकीकत पर ध्यान नहीं दिया. यही वजह है कि बंगाल से कोई एक दशक पहले उसके जनाधार में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह अब भी जस का तस है.
सीपीएम के पूर्व सांसद और अर्थशास्त्री प्रसेनजित बोस कहते हैं, "लेफ्ट में संकट की शुरुआत बंगाल से शुरू हुई थी. लेकिन शीर्ष नेतृत्व इस हकीकत को कबूल नहीं कर सका है.” उनका सवाल है कि जब तक आप संकट और उसकी वजह स्वीकार नहीं करेंगे तब तक उसे दूर करने की रणनीति कैसे बनाई जा सकती है?
बोस कहते हैं कि बंगाल में नेतृत्व की दूसरी कतार कभी नहीं पनप सकी. पार्टी को अब इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. इसके अलावा नामालूम वजहों से नए सदस्य बनाने का अभियान भी लंबे समय से ठप है. बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे नेता अब स्वास्थ्य वजहों से राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं हैं. लेफ्ट फ्रंट के अध्यक्ष बिमान बसु मानते हैं कि अब युवा तबके के लोग वाम दलों की ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं. उनका दावा है कि पार्टी बंगाल में अपना खोया जनाधार दोबारा हासिल करने की रणनीति बना रही है. बसु का दावा है कि लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहेगा.
क्या लौटेंगे लेफ्ट के अच्छे दिन?
पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल में लेफ्ट फिलहाल दिग्भ्रमित है. पार्टी के काडर बीजेपी जैसी पार्टियों में शामिल हो रहे हैं. लेकिन सीपीएम नेतृत्व इस कड़वी हकीकत को स्वीकार करने से कतरा रहा है. प्रोफेसर सेनगुप्ता कहते हैं, "सीपीएम ने हाल में चुनाव जीतने या अहम राजनीतिक फैसलों के लिए नहीं बल्कि शीर्ष नेतृत्व में मतभेद के लिए ज्यादा सुर्खियां बटोरी हैं.”
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में लगातार अपनी प्रासंगिकता खोने के बावजूद नेतृत्व खुद या पार्टी की नीतियों को बदलने के लिए तैयार नहीं है. पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समितियों के जरिए सामूहिक तौर पर फैसला लेने की उसकी रणनीति भी वोटरों को रास नहीं आ रही है. शीर्ष नेतृत्व में बढ़ती कड़वाहट ने भी सीपीएम के वोट बैंक के बिखरने की प्रक्रिया तेज की है. प्रसेनजित बोस कहते हैं, "बंगाल में नेतृत्व में बदलाव ही सीपीएम के पुनर्जीवित होने की गारंटी नहीं है. लेकिन यह एक जरूरी शर्त तो है ही.” मौजूदा हालातों को ध्यान में रखते हुए आने वाले समय भी पार्टी की किस्मत बदलने की उम्मीद कम ही है.
कार्ल मार्क्स: मोजेल का उस्ताद
कार्ल मार्क्स की गिनती निश्चित रूप से जर्मनी के सबसे महान दार्शनिकों में होती हैं. लेकिन अगर कार्ल मार्क्स आज जिंदा होते तो क्या उन्हें अपना काम पंसद आता? उन्होंने कुछ ही शर्तों में एक हाथ में ताकत की बात कही थी.
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व्यावहारिक नजरें
कार्ल मार्क्स न सिर्फ एक महान चिंतक थे बल्कि वह एक स्टाइलिस्ट भी थे. उन्होंने उस वक्त ही इंसान के आधुनिक जीवन की अहम आर्थिक समीक्षा की. मार्क्स ने कहा कि आर्थिक दबाव के चलते इंसान "आखिरकार आपसी रिश्तों को व्यावहारिक नजरों से देखने के लिए बाध्य होंगे." दार्शनिक मार्क्स के मुताबिक पूंजीवाद और पुर्नजागरण के बीच एक खामोश रिश्ता बनेगा.
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विचारक और नदी
कार्ल मार्क्स बेहद रूमानी प्राकृतिक खूबसूरती के बीच पले बढ़े. उनका घर मोजेल नदी के किनारे बसे शहर ट्रियर में था. इसे आज भी जर्मनी के सबसे खूबसूरत इलाकों में गिना जाता है. ट्रियर से कुछ दूरी पर फ्रांस है, जहां 1789 में क्रांति हुई और उससे "आजादी, समानता और भाईचारे" के विचार निकले. बहुद जल्द ही ये नारे ट्रियर तक पहुंचे.
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खूबसूरत मन
अपने शुरुआती जीवन में कार्ल मार्क्स एक रोमांटिक कवि थे. उनकी एक कविता है, "मैं भीतरी इच्छाशक्ति, लगातार घुमड़ती दहाड़ों और हमेशा बनी रहने वाली चमक से अविभूत हूं." ये पंक्तियां उन्होंने अपनी प्रेमिका जेनी फॉन वेस्टफालेन के लिए लिखी. जेनी ने प्यार की स्वीकृति दी और जून 1843 में दोनों ने शादी कर ली. मार्क्स ने पहले रजिस्ट्रार ऑफिस में शादी की और फिर, आप माने न मानें, चर्च में भी.
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दोस्त और फाइनेंसर
अपने जीते जी मार्क्स पैसे का इंतजाम नहीं कर सके. उनका परिवार बुरी तरह कर्ज में डूबा था. लेकिन 1840 के दशक में मार्क्स की जिंदगी में फ्रीडरिष एंगेल्स आए. एंगेल्स एक बौद्धिक शख्सियत होने के साथ साथ धनी फैक्ट्री मालिक के बेटे भी थे. उन्होंने ताउम्र मार्क्स की मदद की. मार्क्स को अब भी अक्सर साहूकारों से कर्ज की जरूरत होती, लेकिन पहले से बहुत कम.
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स्वामित्व और स्वामी
कार्ल मार्क्स ने अपनी सबसे अहम किताब "दस कैपिटल" में लिखा है कि पूंजीपतियों पर नियंत्रण के लिए " उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण जरूरी है." मार्क्स कहते हैं, ऐसा करने से ही आखिरकार "पूंजीवादी कवच" टूटेगा. फिर शोषण करने वालों के गिरेबान पकड़े जाएंगे, दूसरों को लूटने वाले खुद लुटेंगे. शब्दों के चयन से पता चलता है कि पुराने स्कूल के समाजवादियोंको लैटिन भाषा की भी ठोस सम
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इतिहास त्रासदी है और नाटक भी
मार्क्स ने फ्रांस के राजा चार्ल्स लुई नेपोलियन बोनापार्ट का बड़ी गहराई से अध्ययन किया. नेपोलियन बोनापार्ट ने 1851 में खुद को फ्रांस का राजा घोषित किया. उसका आदर्श पूर्व राजा नेपोलियन था. इस पर टिप्पणी करते हुए मार्क्स ने कहा, "इतिहास खुद को दोहराता है, पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार हास्य से भरे नाटक के रूप में.
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"मैं कोई मार्क्सवादी नहीं हूं"
मार्क्स के नाम पर क्रांति का झंडा उठाकर दुनिया भर में कई तानाशाही ताकतें सत्ता में आईं. ताकत के बल पर उन्होंने मार्क्स के विचारों को अमल में लाने की कोशिश की. लेकिन मार्क्स इस खतरे को पहले ही भांप चुके थे. एक बार उन्होंने कहा, मैं जो कुछ भी जानता हूं, उसके आधार पर कहता हूं कि "मैं कोई मार्क्सवादी नहीं हूं." हालांकि इस बयान की कभी पुष्टि नहीं हुई. मार्क्स अपने काम को उदारवाद से जोड़कर देखते थे.
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लाल पूरब
पूरब लाल है और अफ्रीका में भी. इसी अंदाज में इथोपिया में मार्क्स और एंगेल्स का जश्न मना. इसके बाद दुनिया ने लेनिन को देखा और ऐसा लगने लगा जैसे मार्क्स और लेनिन ही दुनिया का उज्ज्वल भविष्य हैं. उनके विचारों का समर्थन दुनिया भर में बड़े जनसमुदाय ने किया. 1987 में अदीस अबाबा में हाइले मेनगिस्टुस के सत्ता में आने की 13वीं वर्षगांठ के मौके पर इसका सबूत मिला.
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देश छोड़कर भागे लोग
1989 तक मार्क्स के सिद्धांतों के नाम पर पूर्वी यूरोप में कई तानाशाही सत्ताएं आईं. बाद में आर्थिक तंगी के चलते वो पस्त पड़ गईं. दुनिया को हैरान करते हुए समाजवादी ढांचे वाले देश धराशायी हो गए. हंगरी ने पश्चिम के लिए अपनी सीमा खोल दी. पूर्वी जर्मनी के नागरिक भी एक ही चीज चाहते थे, देश छोड़कर भागना. 1989 के बाद मार्क्स के आसपास खामोशी छाने ल
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क्रांति का अधूरा प्रोजेक्ट
कम्युनिज्म के धराशायी होने के कुछ समय बाद मार्क्स फिर से सामने आ गए. इस बार बर्लिन में ग्रैफिटी आर्ट के जरिए. उनकी टीशर्ट पर पर लिखा है, "मैं तुम्हें समझा चुका हूं कि तुम कैसे दुनिया बदल सकते हो." तस्वीर में मार्क्स उम्रदराज और रिटायर हो चुके शख्स हैं, जो कमाई के लिए बिखरी बियर की बोतलें जमा कर रहे हैं.
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सुपरमैन
चीन के कलाकार वू वाईशान ने कार्ल मार्क्स की चार मीटर से ऊंची प्रतिमा बनाई है. कलाकार के मुताबिक, "उनके लंबे बाल और लंबा कोट उनकी बुद्धिमत्ता को आत्मसात करते हैं." ट्रियर के लोगों ने लंबे वक्त तक चीन की इस मूर्ति को स्वीकार नहीं किया. लोग मानवाधिकारों को लेकर चीन से नाराज थे. क्या मार्क्स को इसका अंदाजा था?
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आखिरी पुकार
1883 में 64 साल की उम्र में लंदन में कार्ल मार्क्स ने आखिरी सांस ली. उनकी कब्र हाईगेट सिमेट्री में है. कब्र के ऊपर मार्क्स की प्रतिमा लगी है और नीचे लिखा है, "दुनिया भर के मजदूरों एक हो जाओ." (रिपोर्ट: केर्स्टन क्निप/ओएसजे)