जा रहे थे अमेरिका पहुंच गए बगदाद
१६ जून २०१०कुमार रामजली का कहना है कि क़ायदे की शिक्षा न होने की वजह से उसके जैसे लोगों के लिए परदेस जाकर धन कमाना ही अकेला चारा रह जाता है. अपने गांव में उसने ऐसे बहुत से किस्से देखे हैं. लोग परदेस में काम करके धन कमा लाते हैं, और फिर आराम की ज़िंदगी बसर करते हैं.
मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के एक सम्मेलन में वह अपना किस्सा सुना रहा था. सन 2004 में उसने अपनी किस्मत आजमाने का फ़ैसला लिया. काठमांडू में एक एजेंसी को उसने 1300 डालर दिए, जो उसकी एक साल की आमदनी के बराबर था. अपना सारा पैसा बटोर कर और फिर उधार लेते हुए उसने यह यह रकम चुकाई. उससे वादा किया गया कि उसे अमेरिका में कोई नौकरी दिला दी जाएगी. लेकिन न्यूयार्क के बदले उसे न्यू देहली पहुंचा दिया गया.
दिल्ली में एक एजेंसी ने उसे अमेरिका भेजने के लिए फिर इतने ही पैसे मांगे. एजेंसी ने उसका पासपोर्ट अपने पास रख लिया और उसे जार्डन भेज दिया. अम्मान पहुंचने के बाद कुमार को पता चला कि उसे अमेरिका नहीं, बल्कि जार्डन लाया गया है, और इराक भेजा जा रहा है.
मेरे पास कोई चारा नहीं था. मुझे उनकी हर बात माननी पड़ी. दिल्ली में ही मेरा पासपोर्ट उन्होंने ले लिया था, और पास में पैसे भी नहीं थे. इराक जाने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं था - कुमार रामजली कहते हैं.
यह कोई इकलौता किस्सा नहीं है. जार्डन की सीमा से बगदाद तक बसों का एक काफ़िला जा रहा था, जिसमें उसके अलावा नेपाल के अस्सी लोग थे. यह सफ़र नहीं, दहशत थी. रास्ते में विद्रोहियों का हमला हुआ, उन्होंने एक बस पर कब्ज़ा कर उसमें बैठे लोगों को अगवा कर लिया. 12 लोग उनके हाथों मारे गए.
कुमार की जान बच गई. पश्चिम इराक के अल असद अमेरिकी हवाई अड्डे पर उसे पहुंचा दिया गया. पहले उसे लांड्री में काम करने को कहा गया, फिर पेट्रोल के डिपो में और आखिरकार उसे कूड़ा इकट्ठा करने में लगा दिया गया. हर महीने 1200 डालर देने का वादा किया गया था, मिले सिर्फ़ 280. बाद में पगार बढ़ा कर 500 डालर कर दी गयी, लेकिन बदले में हफ़्ते में सातों दिन 12-12 घंटे काम करने पड़ते थे.
पिछले सालों के दौरान दक्षिण एशिया के हज़ारों लोगों को इस तरह लगभग बंधुआ कामगार के तौर पर इराक ले जाया गया है. अंतर्राष्ट्रीय आप्रवास संगठन आईओएम को अक्सर इनके मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा है, ताकि ऐसे आप्रवासियों को वापस भेजा जा सके. आईओएम के प्रतिनिधि ज़्यां फिलिप शॉज़ी कहते हैं कि इन सबकी कहानी एक जैसी है.
ख़ासकर नौकरी ढूंढ़ने वाले नौजवानों को इस तरीके से झांसा दिया जाता है, और फिर वे अपने-आपको इराक में पाते हैं. वे बिल्डिंग साइट पर या मामूली नौकरों के तौर पर काम करते हैं. अगर वे मदद पाने की कोशिश न करें, तो बचने का कोई ज़रिया नहीं होता. - ज़्यां फिलिप शॉज़ी
अल असद सैनिक अड्डे पर चार साल तक काम करने के बाद कुमार और उसके साथियों को छुटकारा मिला. उनकी जगह पर नए कामगार मिल गए थे, जो और सस्ते थे.
रिपोर्ट: क्लाउडिया विट्टे/उभ
संपादन: राम यादव