जीडीपी पर मंडराती जलवायु परिवर्तन के खतरे की घंटी
२९ जून २०१८इसका असर देश की करीब आधी आबादी के जीवन स्तर पर भी पड़ेगा. रिपोर्ट के अनुसार मध्य भारत के दस जिलों के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे. इसमें महाराष्ट्र का कुपोषित विदर्भ इलाका भी शामिल है. रिपोर्ट ने ऐसे अत्यधिक और औसत तौर पर संवेदनशील स्थानों को हॉटस्पॉट के रूप में चिह्नित किया है. ये वे जगहें हैं जहां न सिर्फ तापमान में बढ़ोतरी देखी जा रही है बल्कि ये भी पता चलता है कि किस तरह स्थानीय आबादी, जलवायु परिवर्तनों से निपटने में सामाजिक और आर्थिक रूप से कितनी सक्षम है. करीब 15 करोड़ लोग, इन अत्यधिक संवेदनशील इलाकों में रहते हैं. 44 करोड़ की आबादी मॉडरेट हॉटस्पॉटों में रहती है. अगर इन इलाकों के हालात बद से बदतर हुए तो भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 1178 अरब डॉलर का बड़ा नुकसान हो सकता है.
आज स्थिति ये है कि वायु की गुणवत्ता, जैव विविधता और ग्रीन हाउस उत्सर्जन के मामलों पर अपेक्षित सुधार न कर पाने के कारण भारत वैश्विक पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में सबसे निचले पायदानों पर है. 2016 में भारत 180 देशों में 141वें स्थान पर था. 2018 में ये खिसककर 177वें स्थान पर जा पहुंचा है. ये आंकड़ा स्टेट ऑफ इंडिया एन्वायरनमेंट (एसओई) की रिपोर्ट में आया है जिसे सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट संस्था की डाउन टू अर्थ पत्रिका में प्रकाशित किया गया है. भारत में वायु गुणवत्ता चिंताजनक स्तरों पर है. सौ में से उसे इसके लिए 5.75 अंक ही मिले हैं. पानी की बात करें तो हर घर जल योजना का लक्ष्य था 2030 तक भारत के हर घर को पेयजल मुहैया कराना. टिकाऊ विकास लक्ष्यों में ये योजना शामिल है. लेकिन 18 राज्यों के करीब 80 फीसदी ग्रामीण घरों में पीने के पानी की लाइन नहीं गई है. भूजल प्रदूषित हो रहा है और उसकी गुणवत्ता में गिरावट आ रही है. स्वच्छता का संबंध सिर्फ शौचालयों के निर्माण से नहीं होना चाहिए. ओवरऑल सफाई के प्रति न सरकारें चिंतित हैं और न ही लोग जागरूक. प्लास्टिक और कचरे के ढेरों के निस्तारण को लेकर शहरों और नगरपालिकाओं के पास त्वरित और ठोस कार्ययोजना का अभाव है.
ऊर्जा क्षेत्र में देखें तो वहां भी स्थिति कोई आशाजनक नहीं कही जा सकती है. 2022 तक 175 गीगावॉट की अक्षय ऊर्जा की स्थापना का लक्ष्य सुस्ती का शिकार है. केंद्र की उज्ज्वला योजना भी वित्त के नये दुष्चक्र में घिरी है. 15 राज्यों में ही एलपीजी सिलेंडरों का वितरण ठीक से हो पाया है. वन क्षेत्र में यूं तो करीब 0.2 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है लेकिन ये वृद्धि दरअसल खुले जंगल की है जिसमें व्यावसायिक वृक्षारोपण शामिल है. सघन वन का दायरा सिकुड़ रहा है. एक चिंताजनक पहलू ये भी है कि निर्माण कार्यों के लिए जंगल काटने का सिलसिला बढ़ा है.
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की आपत्तियों और फटकार के बावजूद ऐसे निर्माण जारी हैं. ताजा उदाहरण उत्तराखंड की चार धाम ऑल वेदर रोड परियोजना है. रही सही कसर, वाहनों की संख्या में बढोतरी से फैलते प्रदूषण और जंगलों की आग ने पूरी कर दी है. सरकार का दायित्व है कि वो आपात स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्रवाई सुनिश्चित करे. दो स्तरों पर ऐसा करना होगा. फौरी हल तलाश कर उन्हें तुरंत अमल में ले आना होगा और दूसरा दीर्घकालीन अवधि की योजनाओं पर काम शुरू कर देना होगा.
जो भी नीतियां या ऐक्शन प्लान बनेगा उसमें सबसे पहले तो लोगों की मूलभूत जरूरतों की निर्बाध आपूर्ति की गारंटी करनी होगी. शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के स्तर को सुधारना होगा. रोजगार की स्थितियां बेहतर करनी होंगी. नागरिकों को शिक्षित और जागरूक करना होगा- अलग अलग नारों और अभियानों से बात नहीं बनेगी. स्वच्छ भारत के नारे में कोई बुराई नहीं लेकिन उसके साथ दूसरे अभियानों और सरकार की समाज कल्याण योजनाओं को भी जोड़ना होगा. एक समन्वित पहल की जरूरत है. भारत में समस्या ये है कि एक विभाग का दूसरे विभाग के साथ सैद्धांतिक तालमेल तो दिखाया जाता है लेकिन व्यवहारिक स्तर पर ये तालमेल नगण्य है. और अगर है भी तो वो लालफीताशाही और कई स्तरों पर फैली सुस्ती की भेंट चढ़ जाता है.
पहाड़ों और घाटियों में निर्मित और निर्माणाधीन बड़े बांध, नदियों के जलस्तर में कमी या बदलाव, बेहिसाब खनन और खुदाई, जंगलों की आग, सूखा, अनियंत्रित बाढ़, भीषण औद्योगिकीकरण, शहरी इलाकों में अंधाधुंध निर्माण, प्लॉटो और बाजारों में बदलती खेती की जमीनें, वाहनों की बेशुमार भीड़ और बढ़ता प्रदूषण, अपार्टमेंटों, कॉलोनियों और आबादी का अत्यधिक दबाव- ये सब मानव निर्मित घटनाएं प्राकृतिक संसाधनों को चौपट कर रही हैं. पेड़ पौधे मिट रहे हैं, नदियां, तालाब, पोखर आदि विलुप्त हो रहे हैं और भूजल सूख रहा है. ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी घटनाओं ने पहाड़ों से मैदानों तक शहरों से गांवों तक पारिस्थतिकीय और पर्यावरणीय संतुलनों को उलटपुलट दिया है.
विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट में एक बात ये स्पष्ट नहीं है कि क्या नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों से भी लोगों की जीवनदशा प्रभावित हुई है और क्या इसका संबंध जलवायु परिवर्तन से बनता है या नहीं. ये तो मानना पड़ेगा कि इन फैसलों से आर्थिकी पर पड़े भार और लोगों के सामने आई विकटताओं ने संसाधनों पर दबाव बढ़ाया है. और जिसके नतीजे में जो चुनौतियां और चिंताएं और मुखर हुई हैं उनमें जलवायु परिवर्तन भी एक है.