अमेरिका ने जी7 शिखर सम्मेलन के लिए भारत को भी आमंत्रित किया है. यह आमंत्रण सम्मान के साथ एक दायित्व भी है. दुनिया को नेतृत्व देने के लिए नैतिक क्षमता के प्रदर्शन का दायित्व ताकि लोग उस पर न्याय के लिए भरोसा कर सकें.
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महत्वपूर्ण देशों के सम्मेलनों में बुलाया जाना हमेशा एक तरह का सम्मान होता है. लेकिन सम्मान के अलावा बैठकों में बुलाए जाने की वजह भी होती है. अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस साल जी7 की बैठक के लिए बुलाया है. इसकी वजह ट्रंप मोदी दोस्ती से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत का बढ़ता महत्व है. ये महत्व उसका आकार, उसकी आबादी और बढ़ती क्षमता मिलकर बनाते हैं. खासकर कोरोना महामारी के युग में वायरस को रोकने में भारत की दोहरी जिम्मेदारी है. एक तो अपने लोगों को बचाकर दुनिया को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी और दूसरे इलाज के उपायों से अन्य देशों की मदद. भारत दवाओं के विकास से लेकर उनके परीक्षण तक में योगदान दे सकता है और दे रहा है. भारत के अनुभव कोरोना जैसी महामारी का सामना करने के लिए जरूरी हैं. इसलिए जी7 जैसे सम्मेलन में उसे नजरअंदाज करना किसी के लिए भी मुश्किल होता.
भारत इस बीच विश्व की महत्वपूर्ण आर्थिक सत्ता है. जीडीपी के आधार पर दुनिया की पांचवी आर्थिक शक्ति, परचेजिंग पावर पैरिटी के आधार पर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति, भले ही प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से उसका स्थान विश्व में 139 वां ही क्यों न हो. जी7 के देशों के पास दुनिया की 58 फीसदी संपत्ति है और ग्लोबल जीडीपी में उनका हिस्सा 46 प्रतिशत है. चीन के साथ इस समय अमेरिका की लगी है, तो स्वाभाविक है कि भारत, ऑस्ट्रेलिया, रूस और दक्षिण कोरिया जैसे देशों को जी7 की बैठकों में बुलाया जाए और बैठक के मुद्दों पर उनकी सलाह ली जाए. लेकिन जिस तरह से ये निमंत्रण गया है, इरादों पर संदेह होता है. राष्ट्रपति ट्रंप कोरोना के कारण मार्च में स्थगित सम्मेलन पहले जून के अंत में कराना चाहते थे. लेकिन जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल के मना करने के कारण उनकी योजना खटाई में पर गई. फिर उन्होंने सितंबर में सम्मेलन कराने की घोषणा की और साथ में आमंत्रित किए जाने वाले बाहरी देशों के नामों की भी घोषणा कर दी. इनमें भारत भी था.
बवेरिया में एलमाउ को जी-7 के मेजबान धरती पर स्वर्ग बता रहे हैं. प्रमुख औद्योगिक देशों को हमेशा से पता था कि सुंदर जगहों पर बैठक करने का अपना मजा होता है. लेकिन अक्सर शिखर सम्मेलन ने ही रमणीय इलाकों की शांति तोड़ी.
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रांबुए का किला
शुरुआत इतनी मधुर थी. 1975 में उस समय छह देशों के नेता फ्रांस के रांबुए किले में बातचीत के लिए मिले. 14वीं सदी में बने फ्रांसीसी राष्ट्रपति के ग्रीष्मकालीन निवास ने उस समय के बड़े मुद्दों पर बात करने और तेल संकट से निबटने के रास्ते ढूंढने का मौका दिया.
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सान खुआन
दूसरे शिखर सम्मेलन में ही प्रमुख औद्योगिक देशों की संख्या सात हो गई थी. अमेरिका, जर्मनी, इटली, फ्रांस, जापान. ब्रिटेन और कनाडा के नेता अमेरिका के बाहरी इलाके कैरिबियाई द्वीप सान खुआन में मिले. जहां दूसरे लोग छुट्टी बिताते हैं वहां विश्व के नेता काम कर रहे थे.
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कला के शहर में
1980 के दशक में शिखर सम्मेलन बड़े लेकिन सुंदर शहरों में आयोजित किए गए. 1980 और 1987 में इटली का वेनिस जी-7 का मेजबान था. 1980 की गर्मियों में जर्मन चांसलर हेल्मुट श्मिट ने शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया था और मौसम के हिसाब से हल्के नीले सूट में वहां पहुंचे थे.
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आयोजन की खुशी
1980 के दशक में शिखर सम्मेलन के दूसरे मेजबानों में लंदन, टोक्यो और बॉन शामिल थे. 1985 में बॉन में हुए शिखर सम्मेलन में रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर भी थे. जर्मनी की ओर से मेजबान थे हेल्मुट कोल. इन दिनों सम्मेलन के खिलाफ प्रदर्शन नहीं हुआ करते थे.
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शिखर के खिलाफ
1990 और 2000 के दशक में भूमंडलीकरण विरोधियों की नजर शिखर सम्मेलनों पर गई. उन्होंने शिखर सम्मेलन के मुद्दों को प्रभावित करने की कोशिश शुरू की. इसके लिए उन्होंने रैलियों, प्रदर्शनों और सम्मेलन में बाधा डालने का सहारा लिया. इसके लिए हमेशा कानूनी रास्ते नहीं अपनाए गए.
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गेनुआ 2001
2001 में इटली के गेनुआ में हुए शिखर सम्मेलन के दौरान प्रदर्शन में हिंसा भड़क गई. भूमंडलीकरण के विरोधियों और इटली की पुलिस के बीच हुई हिंसक झड़पों में 23 वर्षीय प्रदर्शनकारी कार्लो जुलियानी मारा गया. यह घटना शिखर सम्मेलनों के इतिहास में अहम मोड़ साबित हुई.
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पहाड़ी पृष्ठभूमि
2002 में शिखर सम्मेलन का आयोजन सुनसान में किया गया. कनाडा के कनानास्किस में रूस सहित जी-8 देशों के नेताओं ने सम्मेलन में हिस्सा लिया. वहां से पूरब में स्थित कैलगरी में भूमंडलीकरण विरोधियों के प्रदर्शन जरूर हुए लेकिन सब कुछ शांति से हुआ.
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समांतर सभा
शिखर सम्मेलन तो शांति से होने लगा लेकिन लोगों में यह भावना पैदा हुई कि विश्व नेता आम लोगों से किनारा कर रहे हैं. फिर उन्हें प्रभावित कैसे किया जाए? रॉकस्टार बॉब गेल्डॉफ ने 2005 में लाइव8 कंसर्ट का आयोजन किया और अफ्रीकी देशों का कर्ज माफ करने की मांग की.
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मौलिक अधिकारों पर हमला
लेकिन यह कंसर्ट नेताओं और जनता के बीच बढ़ती दूरी को रोक नहीं पाया. 2007 में जी-8 शिखऱ सम्मेलन के कारण जर्मनी के लोकप्रिय रिजॉर्ट शहर हाइलिगेनडाम को हफ्तों तक नो गो एरिया बना दिया गया. सवा करोड़ यूरो के खर्च पर सम्मेलन भवन के चारों ओर 12 किलोमीटर लंबी बाड़ लगा दी गई.
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छवि परिवर्तन
शिखर सम्मेलन की छवि बेहतर बनाने के लिए लोगों में उसकी दिलचस्पी का फायदा उठाना 2009 में जी-8 का मकसद था. इसलिए सम्मेलन को सारडीन से हटाकर लाकिला ले जाया गया जो कुछ ही समय पहले भयानक भूकंप का शिकार हुआ था. संदेश था भूकंप पीड़ितों को भूलो नहीं.
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भारी सुरक्षा
शिखर सम्मेलन स्थल भविष्य में भी भारी सुरक्षा वाले इलाके बने रहेंगे, इस साल भी. यहां एलमाउ के निकट पुलिस एक पहाड़ी चोटी को सुरक्षित कर रही है ताकि पहाड़ चढ़कर आने वाले आंदोलनकारियों और आतंकवादियों को राजनीतिज्ञों से दूर रखा जा सके. कम से कम 2,300 मीटर की दूरी पर.
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विरोध जारी
जहां विश्वनेताओं के मिलने की जगह की नाकेबंदी रहेगी, वहां प्रदर्शन कहीं और होंगे. इसलिए 2015 में भूमंडलीकरण के विरोधी एलमाउ के करीब स्थित गार्मिश पार्टेनकिर्षेन में प्रदर्शन कर रहे हैं. विंटर गेम्स का शहर प्रदर्शनकारियों का मक्का बन गया है.
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बनता बिगड़ता सहयोग
जी7 के बाहर के देशों को वार्षिक शिखर सम्मेलन में शामिल करने की कोशिश पहले भी हो चुकी है. 1997 में रूस के शामिल होने के साथ जी7 जी8 बन गया था. दुनिया में राजनीतिक भाईचारे का माहौल था, सुरक्षा परिषद में सुधार की बहस चल रही थी. सन 2000 में दक्षिण अफ्रीका को बुलाने के साथ जी8 जमा पांच बनने की शुरुआत हुई. 2003 में शिखर सम्मेलन में भारत, चीन, ब्राजील और मेक्सिको को भी बुलाया गया. चीन पहले से ही सुरक्षा परिषद में था. दक्षिण अफ्रीका, भारत, ब्राजील और मेक्सिको अपने अपने महाद्वीपों से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनने के प्रबल दावेदार थे. उन्हें जोड़ने की कोशिश शुरू हुई और हर साल एजेंडे के हिसाब से छोटे विकासशील देशों को भी बुलाया गया. लेकिन ये परीक्षण 2012 तक ही चला. उभरते देशों के आने के साथ जी7 के फैसले उतने आसान नहीं रहे, आपसी हितों की खींचतान शुरू हो गई. रूस को जी8 से बाहर निकाले जाने के साथ इन परीक्षणों का भी अंत हो गया.
जी7 एक तरह से मूल्यों का संगठन रहा है. लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूल्य. इसमें शामिल सारे देश अमेरिका के सहयोगी हैं. एक तरह से देखें तो द्वितीय विश्व युद्ध में एक दूसरे से लड़ने वाले देश लेकिन युद्ध के बाद एक दूसरे से सहयोग करने वाले देश. सब के सब लोकतांत्रिक देश. एक मंच पर साथ आने वाले इन देशों के आर्थिक हित एक जैसे तो थे ही, लोकतंत्र, मानवाधिकार और बोलने की आजादी जैसे मुद्दों पर भी एक जैसी राय थी. जी8 का विस्तार इस उम्मीद पर आधारित था कि रूस लोकतांत्रिक हो रहा है. लेकिन क्रीमिया को हड़पे जाने के साथ ये उम्मीद पूरी तरह टूट गई. उसके पहले ही साफ हो गया था कि सम्मेलन में साथ लाए गए पांच देश वैश्विक जिम्मेदारी निभाने के बदले अपने अपने हितों पर ज्यादा ध्यान दे रहे थे. एक दशक की एप्रेंटिसशिप में वे वैश्विक भूमिका के लिए तैयार नहीं हो पाए. और इस परीक्षण के विफल होने के साथ सुरक्षा परिषद के सुधार की सुगबुगाहट भी खत्म हो गई. इस बीच भारत के अलावा किसी भी विकासशील देश को सुरक्षा परिषद की सदस्यता का गंभीर उम्मीदवार नहीं माना जा रहा.
भारत की जिम्मेदारियां
सुरक्षा परिषद को विश्व सरकार माना जाता है तो जी7 दुनिया को एक तरह का आर्थिक नेतृत्व देता है. इस जमात का सदस्य बनने का मतलब है कि दुनिया की मुश्किलों पर राय बनाई जाए, उसके समाधान के उपाय खोजे जाएं और उनमें योगदान दिया जाए. ये करने के लिए घरेलू आर्थिक और राजनीतिक ताकत भी जरूरी है. ये ताकत भारत जैसे देश राजनीतिक और आर्थिक समरसता के जरिए पा सकते हैं. प्रति व्यक्ति आय बढ़ाकर भारत आर्थिक तौर पर तो ताकतवर हो जाएगा लेकिन नैतिक रूप से ताकतवर बनने के लिए देश में सामाजिक विषमता को दूर करना जरूरी है. राजनीतिक ध्रुवीकरण को खत्म करने और मीडिया को ताकतवर बनाने की भी जरूरत है. औद्योगिक देशों के अनुभवों का लाभ उठाकर और ट्रेड यूनियनों को मजबूत कर मजदूरों का शोषण रोका जा सकता है और औद्योगीकरण से पैदा हो रहे पर्यावरण संबंधी समस्याओं को कम किया जा सकता है.
भारत ने पिछले सालों में विकास का एक लंबा रास्ता तय किया है. पर्यावरण की रक्षा के क्षेत्र में वह वैश्विक स्तर पर नेतृत्व की भूमिका निभा रहा है. उसे एक और मौका मिला है जी7 के साथ आने का. इस बार चीन और रूस इस जमात में नहीं हैं. चीन के अलावा कुछ दूसरे पड़ोसी देशों के साथ भी भारत का मनमुटाव है. उन विवादों में उलझे रहने के बदले भारत के पास विश्व मंच पर चमकने का अभूतपूर्व मौका है. लेकिन उसे इसका सक्रिय तौर पर इस्तेमाल करना होगा. शुरुआत घर से करनी होगी.
जी20, जी7, जी77. इतने सारे जी. दुनिया में जी संगठनों की सूची लंबी है. जी का मतलब ग्रुप से है. सदस्य देशों का वह ग्रुप जो अपने साझा लक्ष्यों का दुनिया भर में प्रतिनिधित्व करना चाहता है.
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जी20: आर्थिक तौर पर मजबूत देश
हालांकि इन देशों की मुलाकात अनौपचारिक होती है लेकिन जी20 के देश जो फैसला लेते हैं उसमें वजन होता है. दुनिया के 20 औद्योगिक और विकासशील देश वैश्विक उत्पादन के 90 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं और इस तरह वे अंतरराष्ट्रीय कारोबार, वैश्विक विकास और जलवायु परिवर्तन को भी प्रभावित करते हैं. जी 20 का गठन जी7 देशों ने किया है.
जी7: एक्सक्लूसिव क्लब
सात पश्चिमी औद्योगिक देशों के नेताओं ने इस संगठन के साथ आपस में बातचीत और सलाह मशविरा का अनौपचारिक मंच बनाया है. दुनिया का हर दसवां नागरिक किसी जी7 देश में रहता है. सदस्य देश एक तिहाई उत्पादन करते हैं और एक चौथाई ग्रीनहाउस गैस पैदा करते हैं.
जी8: झगड़े में टूटा
शीत युद्ध की समाप्ति के सालों बाद रूस को जी7 में शामिल कर लिया गया था. जी7 जी8 बन गया और 2014 तक रहा. यूक्रेन के क्रीमिया इलाके को अपने साथ मिलाने के कारण रूस को इस अनौपचारिक संस्था से निकाल दिया गया. 2005 में पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर चर्चा के लिए ब्राजील, चीन, भारत, मेक्सिको और दक्षिण अफ्रीका के साथ जी8+5 मंच बना.
जी10: कर्जदाता देश
11 औद्योगिक देश अमेरिका, इटली, जापान, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, नीदरलैंड्स, स्वीडन और स्विट्जरलैंड अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अंदर दस का ग्रुप बनाते हैं. वे मुद्रा कोष को अतिरिक्त कर्ज उपलब्ध कराते हैं और मुश्किल में फंसे देशों को कर्ज देने के फैसले में हिस्सेदार होते हैं.
जी15: दक्षिण दक्षिण सहयोग
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपना असर बढ़ाने के लिए 1989 में 15 विकासशील देशों ने 15 देशों के समूह का गठन किया. अब इस समूह में 17 सदस्य हैं और वे 2 अरब की आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे आपसी सहयोग के जरिये दक्षिण और दक्षिण के बीच विकास और आर्थिक प्रगति को बढ़ावा देते हैं.
जी77: गरीबों का ग्रुप
इसलिए कि सिर्फ धनी देश ही संयुक्त राष्ट्र में वैश्विक आर्थिक नीति पर फैसला न करें, विश्व व्यापार सम्मेलन में 77 विकासशील देशों ने साथ मिलकर काम करने का फैसला किया. इस समय जी77 में 134 सदस्य हैं, लेकिन उनका असर अभी भी मामूली है. इसके दो बड़े सदस्य भारत और चीन जी20 के भी सदस्य हैं.