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जेनरेशन इंटरनेट के चक्रव्यूह में फंसी सरकार

२७ फ़रवरी २०१२

एक्टा कार्यकर्ता सरकार के लिए चुनौती तो राजनीतिक दलों के लिए भी पहेली जैसे हैं. कोई नहीं जानता कि एक्टा समझौते के खिलाफ सड़कों पर उतरने वाले ये लोग कौन हैं. जर्मनी के राजनीतिक दल परेशान हैं कि उनकी मांगों से कैसे निबटें.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

पूरे यूरोप में हुए प्रदर्शनों के बाद एक्टा (एंटी काउंटरफीटिंग ट्रेड एग्रीमेंट) समझौते को फिलहाल ताक पर रख दिया गया है. इससे पहले की जर्मन सरकार इस पर दस्तखत करे, यूरोपीय न्यायालय इस बात की जांच करेगा कि यह यूरोपीय कानूनों को तो नहीं तोड़ता.

राजनीतिक प्रतिनिधि कुछ हद तक दो नावों पर सवार हैं. वे जनरेशन इंटरनेट की मांगों को मानना चाहते हैं लेकिन उसके लिए बौद्धिक संपदा की सुरक्षा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. इस सप्ताह भी हजारों लोगों ने जर्मनी में एक्टा समझौते के खिलाफ प्रदर्शन किया जिसके जरिए यूरोपीय संघ, अमेरिका और जापान इंटरनेट में भी बौद्धिक संपदा की सुरक्षा को सुनिश्चित करना चाहते हैं.

इस समझौते में शामिल देशों ने चोरी को रोकने और इंटरनेट में भी बौद्धिक संपदा की सुरक्षा के लिए असरदार कदम उठाने का आश्वासन दिया है. लेकिन इंटरनेट कार्यकर्ताओं को डर है कि वे जब भी कुछ डाउनलोड करेंगे तो उनके बारे में जानकारी आगे बढ़ा दी जाएगी और उन्हें जुर्माने का खतरा हो सकता है.

जर्मनी के कई शहरों में एक्टा का प्रदर्शनतस्वीर: dapd

सामाजिक आंदोलनों पर शोध करने वाले डीटर रूख्त एक्टा के विरोध के आयाम पर चकित हैं. बर्लिन में समाजिक शोध संस्थान के रिसर्चर रूख्त कहते हैं, "मैं समझता था कि यह ऐसा मुद्दा है जिस पर लोगों को इकट्ठा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि संगठन की निचली संरचना नहीं है और लोग अकेले अकेले अपने कंप्यूटरों पर बैठकर समस्या का सामना कर रहे हैं."

बर्लिन में हुए पिछले प्रांतीय चुनावों में इंटरनेट आजादी का समर्थन करनेवाली पिराटेन पार्टी ने अप्रत्याशित सफलता पाई थी. अब जर्मनी की स्थापित पार्टियों को इस बात का डर सता रहा है कि एक्टा जैसे विवादास्पद समझौतों के कारण पिराटेन पार्टी 2013 के संसदीय चुनावों में भी बर्लिन की सफलता दोहरा सकती है.

इतना ही नहीं सत्ता समीकरणों की आदी पार्टियों को इस बात की भी आशंका है कि पिराटेन पार्टी जर्मन राजनीतिक परिदृश्य के लिए स्थायी बात साबित हो सकती है. हालांकि उस पार्टी पर सिर्फ एक मुद्दे का प्रतिनिधित्व करने का आरोप लगाया जाता है, लेकिन 30 साल से कम उम्र के लोगों के लिए इंटरनेट उनके जीवन का केंद्रबिंदु है. आम तौर पर चुनाव से दूर रहने वाली पीढ़ी ने अपने लिए एक प्रतिनिधि पा लिया है. तीन दशक पहले के ग्रीन आंदोलन की तरह इस आंदोलन का चरित्र भी अंतरराष्ट्रीय है.

जर्मनी में एक्टा पर चल रही बहस दिखाती है कि परंपरागत राजनीति को जनरेशन इंटरनेट से निबटने का रास्ता अभी तक नहीं सूझा है. मामले को इस बात ने और भी गंभीर बना दिया है कि 2008 से लेकर 2011 तक इस समझौते पर अधिकारियों के बीच बातचीत चली है लेकिन खुले तौर पर उस पर कोई बहस नहीं हुई. रूख्त कहते हैं कि आलोचक गुप्त सौदेबाजी तक के आरोप लगा रहे हैं. "अगर ऐसा है तो यह मौजूदा पीढ़ी की दुखती नस पर चोट करता है क्योंकि पारदर्शिता को उन्होंने देवता बना रखा है."

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चांसलर अंगेला मैर्केल की सत्ताधारी सीडीयू-सीएसयू पार्टी सामान्य जीवन की तरह इंटरनेट में भी बौद्धिक संपदा और कॉपीराइट की सुरक्षा की समर्थक है. लेकिन पार्टी जानती है कि जिम्मेदार नेता 55 साल से ज्यादा उम्र के हैं और उनमें से ज्यादातर का अभी भी कंप्यूटरों से बहुत कुछ लेना देना नहीं है. अभी भी बहुत से पार्टी नेता सोचते हैं कि एक पार्टी को लोगों को बताना चाहिए कि वह क्या चाहती है, लेकिन पिराटेन पार्टी के साथ ऐसा नहीं है.

देश की दूसरी बड़ी पार्टी एसपीडी भी ऐसा ही सोचती है. उसके बहुत से सदस्य 60 प्लस की पीढ़ी के हैं. पार्टी प्रमुख जिगमार गाब्रिएल इस बीच फेसबुक फैन बन गए हैं और वे लोगों के साथ सीधे संपर्क के महत्व को समझते हैं. उनका कहना है कि चोरी चोरी है, वह इंटरनेट पर हो या सामान्य जिंदगी में. इसलिए चोरी को रोकने की जरूरत है लेकिन म्यूजिक या वीडियो का इस्तेमाल करने वाले हर किसी को संभावित अपराधी नहीं समझना चाहिए.

विरोध की एक नई संरचना बन रही है. युवा लोगों पर शेल की स्टडी करने वाले क्लाउस हुरेलमन का मानना है कि विरोध के पीछे लोगों की स्वार्थी प्रवृति है. आजादी और निजता को सीमा में न बांधा जाए, व्यक्तिगत जीवन की निगरानी न हो, यह इस विरोध का मोटर है. हुरेलमन का कहना है  कि समाज में इस परिवर्तन की वजह यह है कि 70 के दशक के विपरीत जब सारा करियर तय था, युवावस्था जल्दी शुरू होती है और देर तक चलती है. नौकरी को कोई ठिकाना नहीं है. इसकी वजह से राजनीतिक दलों में लोगों की सक्रियता कम हुई है.

लेकिन रूख्त का मानना है कि आजकल विरोध का समय कम हो गया है. संगठनात्मक संरचनाएं न होने के कारण वह कब खत्म हो जाएं पता नहीं. इसके विपरीत पर्यावरण या परमाणु ऊर्जा के विरोध जैसे दूसरे राजनीतिक मुद्दों पर विरोध की स्थिर संरचनाओं का विकास हो गया है.

रिपोर्टः डीपीए/महेश झा

संपादनः एन रंजन

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