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जो बोलेगा मारा जाएगा!

२ सितम्बर २०१३

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की आजादी के 66 साल का जश्न मनाए पांच दिन भी नहीं बीते कि 69 साल के नरेंद्र अच्युत दाभोलकर की हत्या कर दी गई. 20 अगस्त का धब्बा भारत के माथे से कभी नहीं मिटने वाला.

तस्वीर: imago/imagebroker

नरेंद्र दाभोलकर हमारे समय के एक बड़े तर्कशास्त्री और सच्चे मायनों में समाजसेवी थे. अंधविश्वास, जादू टोने, ज्योतिष और धर्म और आस्था से जुड़े अन्य पाखंडों के खिलाफ दाभोलकर लगभग युद्ध की तरह डटे हुए थे. उन पर तब गोलियां चलाईं गईं जब वह सुबह की सैर पर निकले थे. डॉक्टरी के बाद समाजसेवा में आए दाभोलकर ने 1989 में महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (एमएएनएस) की स्थापना की. जिसके तहत उन्होंने अंधविश्वासों के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ दिया. दाभोलकर को धमकियां मिलती रहीं लेकिन उन्होंने सुरक्षा लेने से इनकार किया. ऐसी निर्भयता आज के दौर में दुर्लभ है.

उनकी मौत पर उनके बेटे हमीद दाभोलकर ने कहा कि जो लड़ाई उनके पिता ने छेड़ी थी और जिसे वे आगे बढ़ाएंगें, वो असल में सदियों पुरानी उस लड़ाई का हिस्सा है जो कोपरनिकस से शुरू हुई थी. कोपरनिकस और गैलीलियो से होते हुए तर्कशास्त्रियों के विचार और उनके प्रमाण पुरातनपंथियों, कठमुल्लावादियों, अंधविश्वासियों और पाखंडियों को शूल की तरह चुभते रहे हैं. दाभोलकर वैज्ञानिक और समाज सुधारक परंपरा के आधुनिक नेता थे. बेशक वो नास्तिक थे और ईश्वरीय चमत्कार या अस्तित्व को चुनौती देने के लिए उनके पास पर्याप्त और अकाट्य तर्क थे लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि किसी तरह के धार्मिक विश्वास, मतावलंबियों, आस्था वाले लोगों के प्रति उनके मन में कोई विद्वेष था.

तस्वीर: Ann-Christine Woehrl/Echo Photo Agency

कहने से कतराती जनता

वह बस इतना चाहते थे कि लोग सही मायनों में आधुनिक बनें और इसका प्रतिनिधित्व दशमलव आबादी ही न करती दिखाई दे. इन शहरी गरीबों, निम्न मध्यवर्गीय जमातों, ग्रामीण, पिछड़े और देहाती समाजों को इस दुष्चक्र से निकालना चाहते थे जो धार्मिक वितंडाओं में घेरे जाते रहे हैं और इस तरह उन्हें अपनी रोजमर्रा की दुश्वारियां याद नहीं रहती हैं. वे अपने शोषण के खिलाफ एकजुट नहीं हो पाते हैं. वे ये नहीं कह पाते हैं कि हमें आस्था के नाम पर दकियानूसी अंधेरों में मत फेंको, धर्म को हम पर डर की तरह मत गिराओ, हमारी परंपरा को मंत्रजाल और तंत्रमंत्र में मत बांधो, वे नहीं कह पाते हैं.

उन्हें इस तरह से तमाम मुश्किलों से निजात दिलाने की घुट्टी पिला दी जाती है कि झाड़फूंक मंत्र जाप माला मनके अंगूठी पत्थर धागे गंडा ताबीज, जादू टोने में ही वे तमाम मुश्किलों का हल ढूंढने की कोशिश करते हैं कि उन्हें झंझटों से मुक्ति मिलेगी और वे खुशहाल होंगे. ऐसा कहां होता है. ऐसा कब हुआ है. यही दाभोलकर बताते थे. बताते ही नहीं थे, साबित भी करते थे. अभियान के तहत निकलते थे अलख जगाने वे अपने ही ढंग के कबीर थे.

यह कैसा दौर है..

ऐसा समय आ गया है कि तर्क सिर्फ राजनैतिक सामाजिक आर्थिक वितंडा के रह गए हैं. मिसाल के लिए संसद में तूतूमैंमैं के तर्क हैं, चुनावी रैलियों भाषणों और अन्य रथी महारथी लोकतंत्र को बचाने के उपाय बताते घूम रहे हैं. हर किस्म की बीमारी के शर्तिया इलाज के लिए ये भूमंडलीय नीमहकीमी का दौर चला हुआ है. आप इसे सिर्फ मेडिकल दुनिया के प्रपंचों और झोला झाप मक्कारी में न देखें. राजनीति, समाज और चिंतन सब जगह इस तरह का तत्कालवाद घुस गया है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

तर्कवाद की जिस परंपरा में दाभोलकर आते हैं, वहां जाहिर है ये एक दिन या कुछ मिनटों या घंटों का काम नहीं था. ये एक पूरी प्रक्रिया थी अपना उजाला अपने भीतर ही पाने की. दाभोलकर चुपचाप अपने ढंग की कोशिश कर रहे थे. ये काम जब धर्म और बाजार के कट्टरपंथियों को अखरने लगा तो दाभोलकर मार दिए गए. क्या वाकई इस तरह ज्ञान और अभिव्यक्ति का उजाला बुझाया जा सकता है.

नागरिक चेतना को जगाने वाली बिरादरी और एक मानवीय विश्वास पर हमले और हत्या के दौर आते रहे हैं. और इसे हम लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले के रूप में भी देख सकते हैं. उनमें से एक बुनियादी मूल्य है अभिव्यक्ति की आजादी का. ये दौर गलत, अनैतिक और अमानवीय अभिव्यक्तियों के लिए तो न जाने कैसे सहजता से जगह बना लेता है. लेकिन सच्ची नागरिक अभिव्यक्तियों के लिए गुंजाइशें सिकुड़ती जाती हैं. दाभोलकर की हत्या से पहले इसी पुणे में आरटीआई कार्यकर्ता सतीश शेट्टी मारे जा चुके हैं.

कितना खून चाहिए?

दिल्ली में रंगकर्मी सफदर हाशमी को दिनदहाड़े मारा गया, बिहार के सीवान में तेजतर्रार युवा राजनैतिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर की हत्या कर दी गई, उत्तराखंड के पौड़ी में पत्रकार उमेश डोभाल को मार डाला गया. ये चुनिंदा नाम या घटनाएं ही नहीं हैं. बहुत से लोग हैं, बहुत सी वारदात हैं. जितना ज्यादा मुक्त सूचना प्रवाह हो गया है जितना ज्यादा मुक्त बाजार हुआ है, उतना ही ज्यादा अभिव्यक्ति का दम घुट रहा है. दिखने में लगता है कहां कोई गड़बड़ है, सब ठीक ही तो है. दूसरी ओर सही ढंग से कोई बात अभिव्यक्त होती नहीं कि एक अदृश्य बिल्ली मंडराने लगती है.

दाभोलकर की मौत के बाद एक तीव्र लहर सी उठी और न जाने कहां सो गई. आखिर ऐसा क्यों होता है. उनकी हत्या को लोग भूल जाएंगे. पाखंड और भस्म भभूत का धुआं और सघन हो जाएगा. 1995 में महाराष्ट्र विधानसभा में अंधविश्वास निवारण बिल पहली बार पेश किया गया था. उसके बाद 29 बार इसमें संशोधन कर दिए गए लेकिन पास नहीं कराया जा सका. दाभोलकर की हत्या के बाद हड़बड़ाई महाराष्ट्र सरकार इस बिल को अध्यादेश के तौर पर ला रही है. अंधविश्वास के खिलाफ ये देश का पहला कानून होगा. सोचिए आजादी के 66 साल बाद पहला कानून!

असल में विचारों की जर्जरता को कभी एक मुकम्मल और मकबूल धक्का दिया ही नहीं गया.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी, देहरादून

संपादनः अनवर जे अशरफ

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