भारतीय महिलाओं की पहुंच से दूर हैं स्वास्थ्य सुविधाएं
२३ अगस्त २०१९
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों ने पाया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी भारतीय महिलाएं भेदभाव की शिकार हैं. रूढ़िवादी सोच के चलते महिलाएं कई बार अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में बता तक नहीं पातीं.
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अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक संयुक्त अध्ययन में पाया गया है कि भारत में लैंगिक आधार पर भेदभाव की वजह से महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है. शोधकर्ताओं ने 2016 में जनवरी से लेकर दिसंबर तक एम्स में इलाज कराने आए 23,77,028 मरीजों के रिकॉर्ड का अध्ययन किया. अध्ययन में पाया गया कि सिर्फ 33 प्रतिशत महिलाओं को ही स्वास्थ्य सेवा मिल पाती है. वहीं, पुरुषों में यह दर 67 प्रतिशत है.
एम्स एशिया का तीसरा सबसे बड़ा अस्पताल है. यहां उच्च स्तर की इलाज की सुविधा उपलब्ध है. हर साल यहां 20 लाख से ज्याद मरीजों का इलाज होता है. यहां आने वाले मरीजों में से 90 प्रतिशत चार राज्य बिहार, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के होते हैं और इन चारों राज्यों की कुल आबादी 39 करोड़ से ज्यादा है.
प्रजनन की आयु इलाज का बड़ा कारक
शोध से यह पता चला कि महिला की प्रजनन आयु यह निर्धारित करने में बड़ी भूमिका निभाती है कि वह इलाज के लिए डॉक्टर तक पहुंच सकती है या नहीं. 31 से 44 वर्ष की उम्र की महिलाओं को लैंगिक भेदभाव का सामना कम करना पड़ता है. इस उम्र के दायरे में 1.5 पुरुष मरीज प्रति महिला मरीज का आंकड़ा मिला है. वहीं 45 से 59 वर्ष की महिलाओं में लैंगिग भेदभाव की दर 1.4 पुरुष मरीज प्रति महिला मरीज है. 18 साल उम्र तक की महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव बढ़कर 1.9 पुरुष मरीज प्रति महिला और 19 से 30 साल की उम्र वाली महिलाओं के साथ यह बढ़कर 2.02 पुरुष मरीज प्रति महिला हो जाता है. 2016 में 60 वर्ष से ऊपर की उम्र की बात करें तो यह दर एक महिला मरीज के मुकाबले 1.7 पुरुष मरीज रही.
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अध्ययन से यह भी पता चला कि राजधानी दिल्ली से मरीज के रहने के स्थान की दूरी की वजह से भी इलाज में लैंगिक भेदभाव बढ़ता है. दिल्ली के मुकाबले बिहार और पूर्वांचल (उत्तर प्रदेश) से काफी कम संख्या में महिलाएं इलाज करवाने आईं. 2016 में बिहार से एम्स में इलाज करवाने आए पुरुषों की संख्या 2 लाख से ज्याद रही, वहीं महिलाओं की संख्या 84,926 दर्ज की गई. दिल्ली में यह लैंगिक असमानता कम दिखी. यहां 6 लाख 60 हजार पुरुष मरीजों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 4 लाख 80 हजार रही.
एम्स में कार्डियोलॉजी के प्रोफेसर और अध्ययन के मुख्य लेखक अंबुज रॉय कहते हैं, "यात्रा में खर्च महिलाओं के इलाज पर सीधा असर डालता है. अस्पताल से महिला मरीज का घर जितना दूर होगा, इलाज के लिए उसके आने की संभावना उतनी ही कम होगी." दूसरे शब्दों में कहें तो यदि यात्रा पर ज्यादा खर्च होता है तो परिजनों द्वारा महिला सदस्यों को एम्स जैसे विशेष अस्पतालों में लाने की संभावना काफी कम होती है.
कितने तरह के कैंसर जानते हैं आप?
'कैंसर' एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही डर लगने लगता है. एक बार शरीर में कैंसर पहुंच जाए, तो वह शरीर के अलग अलग हिस्सों में फैल सकता है. जानिए कुछ सबसे खतरनाक कैंसर के बारे में.
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ब्रेस्ट कैंसर
स्तन का कैंसर महिलाओं में पाया जाने वाला सबसे आम कैंसर है. हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री एंजेलीना जोली को ब्रेस्ट कैंसर के खतरे के कारण अपने स्तन हटवाने पड़े थे.
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पैंक्रियास का कैंसर
पेट के पीछे छोटी सी पाचक ग्रंथि होती है, जो पाचन प्रक्रिया में हमारी मदद करती है. एप्पल के सीईओ स्टीव जॉब्स को पाचक ग्रंथि का कैंसर था. आठ साल तक इससे लड़ने के बाद उनकी जान चली गयी.
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फेफड़ों का कैंसर
धूम्रपान के कारण होने वाला सबसे आम कैंसर फेफड़ों का है. प्रदूषित हवा में सांस लेने से भी इसका खतरा बढ़ता है. बच्चों में इसका खतरा ज्यादा होता है क्योंकि वे बड़ों की तुलना में सांस के साथ अधिक हवा शरीर में लेते हैं.
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खून का कैंसर
फिल्म 'आनंद' में राजेश खन्ना को एक खास किस्म का खून का कैंसर था. इस फिल्म ने लोगों का ध्यान इस बीमारी की ओर खींचा जिसके बारे में पहले बहुत बात नहीं हुआ करती थी.
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ब्रेन ट्यूमर
आम तौर पर सिगरेट और शराब को कैंसर के लिए जिम्मेदार माना जाता है लेकिन ज्यादातर मामलों में दिमाग के कैंसर की यह वजह नहीं होती. इसमें दिमाग की कोशिकाएं असामान्य रूप से बढ़ने लगती हैं.
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कोलन कैंसर
आंत का कैंसर अधिकतर 50 साल से ज्यादा उम्र के लोगों में देखा जाता है. आंतों में असामान्य रूप से गांठें बनने लगती हैं, जो सालों तक वहां रह सकती हैं लेकिन आखिरकार कैंसर का रूप ले लेती हैं.
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प्रोस्टेट कैंसर
अमेरिका में पुरुषों के कैंसर में सबसे आम प्रोस्टेट ग्रंथि का है. इसी ग्रंथि में शुक्राणु होते हैं. इस कैंसर के शुरुआती दौर में कोई लक्षण नहीं होते, इसलिए जब तक इसके बारे में पता चलता है, इलाज काफी मुश्किल हो जाता है.
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लीवर का कैंसर
लीवर यानि यकृत के कैंसर की सबसे बड़ी वजह है शराब. यह सबसे आम किस्म का कैंसर है. कई बार कैंसर शरीर में कहीं और शुरू होता है और फिर लीवर तक पहुंचता है.
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अध्ययन के सह लेखक और प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य शामिका रवि कहती हैं, "यह पूरे भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य की घोर उपेक्षा की कहानी है. मुझे लगता है कि ट्रेंड पूरे देश में है. स्वच्छ भारत अभियान की तरह जिला स्तर पर स्थानीय स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने की जरूरत है. इससे महिलाओं को उचित इलाज मिल सकेगा."
महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली और नई दिल्ली में सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी को लगता है कि कम लिंगानुपात एक ऐसा सामाजिक पहलू है जिसकी वजह से महिलाओं को उचित स्वास्थ्य देखभाल नहीं मिल पाती है. वे कहती हैं, "भारतीय समाज की मनोदशा की वजह से महिलाएं घर के अंदर काफी धैर्य बनाए और चुप्पी साधे रहती हैं. हमारे देश में महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रमुखता नहीं दी जाती है. कोई भी महिलाओं के इलाज में पैसा खर्च नहीं करना चाहता है. यह दोनों तरीकों से काम करता है. एक यह कि ज्यादातर समय महिलाएं अपने स्वास्थ्य के बारे में चुप रहती हैं. दूसरी यह कि उनकी परवरिश ऐसी होती है कि वे शर्मीली बन जाती हैं और शर्मीलापन या कम आत्मसम्मान की वजह से वे इलाज कराने के लिए खुलकर कह नहीं पाती हैं."
उम्र के साथ बदलती है नजर
जीवन के अनुभवों से जाने-अनजाने में इंसान बहुत कुछ सीखता रहता है जिससे सोच और नजरिए में बदलाव आना लाजमी है. लेकिन बढ़ती उम्र के साथ इंसान की नजर भी बदलती है.
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नवजात बच्चों की दृष्टि बहुत साफ नहीं होती और उन्हें दुनिया के रंग भी इतने चटकीले नहीं दिखते. करीब छह साल की उम्र तक आते आते आमतौर पर बच्चों में 20/20 दृष्टि यानि परफेक्ट विजन आ जाता है.
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उम्र बढ़ने के साथ आंखों पर भी असर पड़ता है. निकट दृष्टिदोष कई बार कुछ बड़े बच्चों और किशोरों में ही विकसित होता है.
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40 की उम्र से ही आंखों के लेंस का लचीलापन थोड़ा कम होने लगता है. यही वह समय होता है जब बहुत से लोगों को पढ़ने के लिए चश्मा लगाना पड़ जाता है.
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65 वर्ष से बड़ी उम्र के लोगों में कैटेरेक्ट या मोतियाबिंद की समस्या होना आम बात है. आजकल तो इससे काफी कम उम्र के लोगों को भी मोतियाबिंद हो रहा है जिसमें आंखों के लेंस पर बदली सी छाई दिखती है.
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विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक मोतियाबिंद दुनियाभर में अंधेपन का सबसे बड़ा कारण है. इसे किसी दवा से ठीक नहीं किया जा सकता. मामूली ऑपरेशन से आंखों पर पड़ी झिल्ली हटवा देना ही इसका इलाज है.
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एल्बिनिज्म एक दुर्लभ आनुवंशिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति के शरीर में मेलानिन नाम का पिगमेंट कम या बिल्कुल भी नहीं बनता. मेलानिन ही आंखों, त्वचा और बालों को रंग देता है. इसकी अनुपस्थिति में भी लोगों में देखने की क्षमता पर असर पड़ता है.
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इंटरनेशनल एजेंसी फॉर दि प्रिवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस का मानना है कि दुनिया भर में कई लाख ऐसे लोग हैं जो जन्मजात दृष्टिहीन नहीं थे बल्कि बाद मोतियाबिंद और ट्राकोमा जैसी बीमारियों के कारण अपनी दृष्टि खोते हैं. संस्था का मकसद ऐसे ही मामलों को कम से कम करना है.
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डॉक्टरों की कमी
डॉक्टरों की कमी ने भी समस्या को बढ़ावा दिया है. नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 के अनुसार दक्षिण एशिया के देशों में 11,082 मरीजों पर एक डॉक्टर है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के अनुसार प्रत्येक एक हजार व्यक्ति पर एक डॉक्टर होने चाहिए. भारत का 75% स्वास्थ्य देखभाल बुनियादी ढांचा शहरी क्षेत्रों में है.
रंजना कुमारी इसके पीछे कई वजह बताती हैं, "ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा में लगे लोगों का रवैया गैर जिम्मेदाराना रहा है. एक बड़ी संख्या उन डॉक्टरों की है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में काम नहीं करना चाहते हैं क्योंकि यहां उन्हें ज्यादा पैसे नहीं मिलते हैं. इसका यह नतीजा है कि निजी क्षेत्रों द्वारा स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाई जा रही हैं, जो काफी महंगी हैं. यह गरीब और नौकरी से रिटायर हो चुके लोगों की पहुंच के बाहर हो जाती हैं."
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकार का खर्च काफी कम है. सरकार ने स्वास्थ्य सेवा पर अपने जीडीपी का सिर्फ 1.3 प्रतिशत खर्च किया, जो कि वैश्विक स्तर के 6 प्रतिशत से काफी कम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारतीय महिलाओं की जीवन अवधि पुरुषों की तुलना में अधिक है. स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने महिलाओं के इलाज में सुधार के लिए अधिक से अधिक सरकारी भागीदारी का आह्वान किया है.
इंटरनेट और कॉलिंग जैसे जैसे सस्ते हो रहे हैं, फोन पर वैसे वैसे ज्यादा वक्त बीतने लगा है. फोन आपको कैसे धीरे धीरे बीमार कर रहा है, शायद आपको इसका अंदाजा भी नहीं है. जानिए फोन कैसे आपके लिए जानलेवा साबित हो सकता है.
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पीठ में दर्द
स्मार्टफोन की लत ऐसी है कि छोटा हो या बड़ा, इन दिनों हर कोई हाथ में स्मार्टफोन लिए और सर झुकाए नजर आता है. फोन को देखते समय आपकी गर्दन झुकी रहती है और यह रीढ़ की हड्डी के लिए बेहद बुरा है. इससे सर्वाइकल का दर्द बढ़ता है, पीठ के दर्द की समस्या होती है.
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खराब आंखें
चश्मा लगने की एक बड़ी वजह आपका फोन है. हर वक्त फोन पर चैट करते रहना, उसी पर वीडियो देखना, रात को अंधेरे में भी फोन पर खबरें पढ़ते रहना, यह सब आंखों की रोशनी को कम करने में योगदान दे रहा है.
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शुक्राणुओं की कमी
फोन से निकलने वाला विकिरण शुक्राणुओं की संख्या पर भी असर डालता है. यही वजह है कि पुरुषों को फोन जेब में ना रखने की हिदायत दी जाती है.
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नींद की कमी
सोने से पहले भी फोन को बंद ना करना आपकी नींद पर असर डालता है. रात में भी मेसेज और अन्य नोटफिकेशन के कारण फोन बजता है और इससे नींद टूटती है. या तो फोन को बंद कर दें, या सायलेंट मोड पर डालें या फिर एयरप्लेन मोड का इस्तेमाल करें.
ढेरों व्हट्सऐप ग्रुपों में शामिल होने के कारण फोन में मेसेज की बाढ़ सी आ जाती है. इन सबको वक्त रहते पढ़ना और सभी का जवाब देना हमेशा मुमकिन नहीं होता. दोस्तों और रिश्तेदारों के ये मेसेज आधुनिक जीवनशैली में तनाव का नया कारण बन गए गए हैं.
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इंफेक्शन
आप अपने फोन का इस्तेमाल कहां कहां करते हैं? क्या टॉयलेट जाने से पहले आप इसे बाहर ही छोड़ कर जाते हैं? अक्सर लोग ऐसा नहीं करते. फोन पर बड़ी संख्या में कीटाणु मौजूद होते हैं जो हर वक्त आपके साथ रहते हैं और आपको बीमार करते हैं.
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कान भी खराब
अगर आप हेडफोन लगा कर रखते हैं, तो बाकी लोगों की तुलना में आपके कान ज्यादा जल्दी खराब होने वाले हैं. रिसर्च दिखाती है कि हेडफोन के इस्तेमाल से कान में बैक्टीरिया की संख्या बढ़ जाती है. कॉल सेंटर में काम करने वालों को इससे ज्यादा खतरा है.
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कैंसर
रिसर्च बताती है कि स्मार्टफोन से ऐसा विकिरण निकलता है जो कैंसर के लिए जिम्मेदार है. हालांकि इस रिसर्च को प्रमाणित करने के लिए आंकड़ों की कमी है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह एक धीमी गति से चलने वाली प्रक्रिया है. फोन के कारण ट्यूमर बनने में 20-25 साल लग सकते हैं और अब तक स्मार्टफोन को हमारे जीवन में आए इतना वक्त नहीं हुआ है.
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कमजोर दिल
फोन के विकिरण का जितना बुरा असर दिमाग पर पड़ता है, उतना ही दिल पर भी. यह लाल रक्त कोशिकाओं पर वार करती है, जो दिल के सही से काम करने के लिए जरूरी हैं.
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जान का खतरा
ड्राइविंग के दौरान भी ध्यान फोन की ही ओर रहता है, बस कहीं कोई मेसेज ना छूट जाए. इस मेसेज को पढ़ने के चक्कर में ध्यान सड़क से हट जाता है और लोग अपनी जान गंवा बैठते हैं. इसलिए फोन छोड़ें और अपनी सेहत का ध्यान रखें.