झारखंड में दृष्टिबाधित आईएएस अफसर को जिले की जिम्मेदारी
२४ जुलाई २०२०
झारखंड की हेमंत सोरेन की सरकार ने उन्हें बोकारो जिले का उपायुक्त बनाया है. राजेश सिंह देश के दूसरे विजुअली चैलैंज्ड अधिकारी हैं जिन्हें किसी जिले की कमान सौंपी गई है. इससे पहले मध्य प्रदेश में एक अधिकारी को ये जिम्मेदारी दी जा चुकी है. इससे पहले दृष्टिबाधित प्रांजल पाटिल को केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम का सब कलेक्टर बनाया गया था. उपायुक्त के पद पर तैनाती के पहले राजेश सिंह उच्च व तकनीकी शिक्षा विभाग में बतौर विशेष सचिव कार्यरत थे. उपायुक्त जैसे जिम्मेदार पद पर उनकी नियुक्ति उस व्यवस्था को एक चुनौती है जो ऐसे दिव्यांगों पर भरोसा नहीं करती और अहम पद के काबिल नहीं मानती.
राजेश सिंह को यह सफलता एक झटके में नहीं मिली है. 2007 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें आईएएस में नौकरी पाने के लिए भी एक लंबी कानूनी लड़ाई लडनी पड़ी. चार साल के संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद वे 2011 में उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी बनाया गया. राजेश की कहानी यह बताने को काफी है कि हौसले अगर बुलंद हो तो कामयाबी तय है.
राजेश बिहार की राजधानी पटना के धनरुआ के निवासी हैं. उनका गांव एक विशेष प्रकार के लड्डू के लिए जाना जाता है. उनके पिता आरके सिंह पटना सिविल कोर्ट में बतौर अधिकारी तैनात हैं. राजेश की आंख की रोशनी छह वर्ष की उम्र में उस वक्त चली गई थी जब वे क्रिकेट खेल रहे थे. एक तेज रफ्तार गेंद ने उनकी आंखों की रोशनी ले ली. आंखों की रोशनी क्या गई, सब कुछ बदल गया. राजेश कहते हैं, "अब संकल्प लेने का समय था. अपनी जीवटता बरकरार रखने का समय था." इसी जीवटता के तहत उन्होंने देहरादून के मॉडल स्कूल से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय होते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक का सफर तय किया. उनका लक्ष्य आईएएस अफसर बनना था. उन्होंने अपना लक्ष्य भी पा लिया. वे कहते हैं, "वास्तविक संघर्ष तो परीक्षा की तैयारी थी लेकिन मैं भाग्यशाली था कि मेरे कई मित्रों ने मेरा काफी सहयोग किया. जेएनयू ने मुझे बहुत कुछ दिया. वह विभिन्न तरह के आइडियाज व आइडियोलॉजी की प्रयोग स्थली है. इसने मेरी पर्सनालिटी, मेरे विजन को काफी हद तक विकसित किया और जो समानता मैंने वहां देखी वह वाकई अतुलनीय है."
संघर्ष करना पड़ा नियुक्ति के लिए
लेकिन जीवन का तीसरा अध्याय तब शुरू हुआ जब नेत्रहीन होने के कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा में उनकी नियुक्ति से इंकार कर दिया गया. उन्हें कहा गया कि सौ फीसद दृष्टिबाधित व्यक्ति को आईएएस सेवा नहीं दी जा सकती है. उन्हें पुन: यह सूचना मिली कि दिव्यांग श्रेणी में केवल एक पद ही था और उस पर पहले रैंक वाले को नियुक्त कर लिया गया. किंतु अदम्य साहस के धनी व जीवट स्वभाव के राजेश ने हार नहीं मानी, सिस्टम से लड़ने का निश्चय किया. दिल्ली हाईकोर्ट के एक ऐसे ही मामले में फैसले के बाद भी जब उन्हें न्याय नहीं मिला तत्पश्चात राजेश ने सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल की जिसमें उन्होंने न्याय की गुहार लगाई.
उनकी अर्जी पर न्यायाधीश अल्तमश कबीर व अभिजीत पटनायक की खंडपीठ ने सुनवाई की. अदालत ने अपना फैसला राजेश के पक्ष में दिया और उनकी नियुक्ति असम-मेघालय कैडर में हुई किंतु भाषागत समस्या के कारण उन्हें झारखंड कैडर में स्थानांतरित कर दिया गया. तबसे वे वहीं अपनी सेवा दे रहे हैं. उनकी शादी 2013 में हुई. राजेश ने 1998 से 2006 के बीच तीन बार विजुअली चैलेंज्ड क्रिकेट वर्ल्ड कप में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया. देश में विश्वकप खेलने वाला कोई क्रिकेटर ऐसा नहीं है जो आईएएस अफसर बना हो. आज भी उनका रिकार्ड कायम है.
राजेश सिंह कहते हैं, "सिस्टम बड़ा जटिल है और पूरे सिस्टम को कंविंस करना उससे भी कठिन है. इसमें पूरी तरह से ब्लाइंड व्यक्ति का शामिल हो पाना बहुत ही मुश्किल लग रहा था. किंतु मैंने भी हार नहीं मानी. मेरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आईएएस अधिकारी बनने में दृष्टिकोण (विजन) की जरूरत है, दृष्टि (आई साइट) की नहीं."
अपने अनुभवों पर लिखी किताब
राजेश सिंह ने अपने जीवन में आए बदलाव व संघर्षों को केंद्रित कर एक पुस्तक भी लिखी है. उसका नाम है, आई: पुटिंग आइ इन एन आईएएस. इस पुस्तक का विमोचन 2016 में लोकसभा की स्पीकर सुमित्रा महाजन ने किया था. विमोचन के मौके पर स्पीकर ने कहा था, "स्पेशियली चैलेंज्ड व ऐसे ही मार्जिनलाइज्ड तबके के लोगों की रचनात्मकता, योग्यता और कौशल को यों ही जाया नहीं होना चाहिए. हमें उनके प्रति ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है." इस पुस्तक में राजेश ने एक विजुअली चैलेंज्ड आईएएस प्रतियोगी की मन:स्थिति, उसकी मनोभावना व संघर्ष को उकेरने की कोशिश की है. वे कहते हैं, "कोई भी व्यक्ति जो तमाम बाधाओं से घिरा है लेकिन उसके पास दृढ़ इच्छाशक्ति, असीम धैर्य व अथक परिश्रम का माद्दा है तो उसके सपने पूरे होने में कोई संशय नहीं."
बोकारो के उपायुक्त के पद पर अपनी नियुक्ति पर वे कहते हैं, "मैं मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन व मुख्य सचिव का आभारी हूं और यह विश्वास दिलाता हूं कि मैं उनकी उम्मीदों पर खरा उतरूंगा. दृष्टिहीन होना कोई श्राप नहीं है. असमानता के बाद भी जो कसौटी पर खरे उतर कर स्वयं को साबित करते हैं वे ही स्पेशल कहलाते हैं. ऐसे भी अपना देश विविधताओं का देश है. मेरी दृष्टिहीनता कोई कमजोरी नहीं है बल्कि मुझे अन्य लोगों से भिन्न बनाती है. कोशिश करूंगा सभी को उनका हक दिला सकूं, उसका अधिकार दिला सकूं चाहे वह डिजर्व करने के बाद भी किसी कारण से उससे वंचित न रह गया हो. काम करते वक्त मेरे समक्ष टारगेट होता है न कि किसी का चेहरा." राजेश सिंह की कहानी हमें यह बताने को काफी है कि किसी भी विपरीत परिस्थिति में धैर्य व परिश्रम का साथ नहीं छोड़ना चाहिए. सिस्टम से लड़ने का माद्दा होना चाहिए. इसी दमखम पर उन्होंने आईएएस अफसर बनने के अपने सपने को साकार किया और क्रिकेटर भी बने.
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